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(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)

Women's Day Special: रिश्तों के स्टेटस से बाहर निकलने की आजादी!

महिलाओं के लिए साल का एक दिन तो आप नसीब कर ही देते हैं. किसी भी दूसरे उत्सव दिवसों की तरह. बाकी दिन उनके सहारे आपका काम चलता रहता है. इसीलिए महिला दिवस पर सभी महिलाएं व्हॉट्सएप पर एक दूसरे को बधाइयां देती हैं. एक दूसरे से अपनी पोस्ट शेयर करने का आग्रह भी करती हैं. एक मैसेज में कहा गया है, ''औरत आपकी बहन, मां, बेटी, बीवी है,अच्छी दोस्त भी. उसकी इज्जत कीजिए क्योंकि वह आपकी जिंदगी खूबसूरत बनाती है. क्या हम सभी ऐसी होती हैं.''

आदमियों की जिंदगी में हमारी एहमियत यही है. कभी बहन, कभी बीवी, कभी बेटी और कभी मां पर ये तो सिर्फ भूमिकाएं हैं. इनमें हम कहां हैं? बेशक हर भूमिका में एक्टर कोई दूसरा है- हम सपोर्टिंग एक्टर हैं. इस सर्पोटिंग कास्ट में हम खुश हो जाती हैं. अक्सर गर्व का अनुभव करती हैं. भूल जाती हैं कि इस सपोर्टिंग कास्ट की सबसे बड़ी कीमत भी हमें ही चुकानी पड़ती है. लाला हमें अपना सामान बेच कर भी हम पर एहसान करता है. डिस्काउंट कूपन देकर दो हजार की शॉपिंग और मुफ्त एक हजार के गिफ्ट वाउचर देता है. आदमियों की जिंदगी में अपनी भूमिकाओं पर तारीफ के गिफ्ट वाउचर पाकर हम फूली नहीं समातीं. गदगद हो जाती हैं कि इस गिफ्ट वाउचर से भविष्य में भी खरीदारी करने का सुख पाएंगी लेकिन भूल जाती हैं कि गिफ्ट वाउचर की कीमत उसी दो हजार में पहले ही चुका चुकी हैं. आदमी की जिंदगी में भी ऐसी कीमतें हम चुकाती रहती हैं. फिर भी महिला दिवस पर मिले सम्मान से हमारी बांछें खिल उठती हैं.

हमारी पहली भूमिका बीवी की है. इस बीवी बनने के लिए सात वचन देने पड़ते हैं. जरा ध्यान से सुनिए. सातों वचन प्रो विमेन लगते हैं लेकिन होता ठीक उसका उलटा है. मर्द अगर सातों वचन कबूल करता है तो औरत उसकी वामांगी बनने को तैयार होती है. यानी शादी यहां सशर्त होती है. इसमें पत्नी को अपने बराबर इंसान समझने और आदर करने की शर्त भी शामिल होती है लेकिन पत्नी की सातों शर्तें सहजीवन के शुरू होती है पलट जाती है. घर का काम उसके जिम्मे आता है और बाहर का काम आदमी के जिम्मे. अगर वह बाहर का काम करती भी है तो भी घर का काम उसी के मत्थे आता है. ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) का कहना है कि औसत भारतीय पुरुष रूटीन हाउसवर्क में एक दिन यानी 24 घंटों में सिर्फ 19 मिनट लगाता है जोकि दुनिया के किसी भी देश से सबसे कम है. हां, भारतीय औरतें औसतन इसके लिए 24 घंटों में से लगभग 5 घंटे यानी 298 मिनट खर्च करती हैं. यही वजह है कि कई बार औरतें वर्क फ्रॉम होम वाला ऑप्शन चुनती हैं.

हाल फिलहाल में सरकार जो मेटरनिटी बेनेफिट बिल, 2016 लेकर आई है, उसमें भी वर्क फ्रॉम होम वाला प्रावधान है. महिला संगठनों का कहना है कि इस प्रावधान से श्रम बाजार में उसका कॉम्पिटिटिवनेस कम होगा. यानी पुरुष कर्मचारियों से बराबरी करना उसके लिए मुश्किल होगा. वह श्रम बाजार से आउट भी हो सकती है. वैसे वह आउट हो भी रही है. इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन के आंकड़े कहते हैं कि 2004 से 2011 के बीच भारत की श्रम भागीदारी में औरतों की मौजूदगी 35 परसेंट से 25 परसेंट हो गई है. अब बीवी बनने का खामियाजा तो उसे यूं उठाना ही होगा. फिर भी बीवियों को बीवियां होने की बधाई.

दूसरी भूमिका मां की है. बच्चे पैदा करना किस औरत की हसरत नहीं होगी. इस भूमिका के लिए अक्सर यही कहा जाता है लेकिन इसका भी खामियाजा औरत को ही उठना पड़ता है. वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन के आंकड़े कहते हैं कि भारत में हर पांच में से एक औरत बच्चे को जन्म देने के समय होने वाली समस्याओं के कारण मौत का शिकार हो जाती है. अधिकतर मामलों में जन्म के 24 घंटों में बहुत अधिक खून बह जाता है. हालांकि इसे इंस्टीट्यूशनल डिलिवरीज यानी अस्पताल में प्रसव की मदद से रोका जा सकता है लेकिन सरकारी योजनाओं की लचर स्थिति से यह आंकड़ा बहुत धीमी गति से कम हो रहा है. हां, बच्चे की चिंहुक से अक्सर औरतें खुश हो जाती हैं. लेकिन कौन खुश हो सकता है और कितना, यह भी उसकी हैसियत पर निर्भर करता है. कई बार उसे खुश रहना पड़ता है इसलिए कि अगर वह खुश नहीं रहेगी और इस राष्ट्रीय मुस्कुराहट में शामिल नहीं होगी तो वह दूसरी हो जाएगी. सभी कह देंगे कि वह अच्छी मां नहीं है.

अक्सर अच्छी बेटी बनने के लिए भी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है. ऑनर किलिंग के नाम पर. यह सजा उसे तब मिलती है जब वह अपनी बेड़ियां काटने की कोशिश करती है. पिछले साल दिसंबर में गृह राज्य मंत्री ने संसद में एक सवाल के जवाब में खुद यह बात कबूल की थी कि पिछले एक साल में देश में ऑनर किलिंग के मामलों में 800 परसेंट की बढ़ोतरी हुई है. यूं ऑनर किलिंग को आप गालियां देते हैं लेकिन ऐसा करने के समय अपने आसपास अपनी बहन, मां, बीवी पर भी नजरे इनायत कीजिए. कहीं आपने उन्हें मारने की बजाय उनके सवालो को मार कर ही तो संतोष नहीं कर लिया. बेटी पैदा हुई पिता की मर्जी से, जाति में ही शादी की, बच्चे पैदा किए. रोटियां थापी, बर्तन मले और दम तोड़ दिया. ऐसी औरत ऑनर किलिंग का शिकार क्यों होगी? क्या अपनी बेटी से आप यह सुनने को तैयार होंगे कि वह किसी से प्यार करती है? बेटी या बहन बनने का अक्सर उसे यही खामियाजा भुगतना पड़ता है कि वह सांस लेने की अपनी आजादी भी कई बार खो देती है. हम उसे इतनी आजादी नहीं देते तभी बीस साल की लड़कियों की जान ख़तर में पड़ जाती है. उसका एक स्टेटस उसे बलात्कार जैसे हमलों की मुनादी के बीच पहुंचा देता है. वह दो पंथों के बीच पिस जाती है.

कुछ नहीं यह औरत को हासिल करने का खेल है. कभी उसका पीछा करके, कभी उसे भावना के सागर में बहाकर तो कभी इज्जत के नाम पर. ताकि वह चौड़ा होकर घूम सके और सालों अपने पराक्रम पर ताव खाए. यहां तक कि पॉपुलर मीडिया भी हमेशा से औरत की हर भूमिका को बड़ा साबित करता रहता है. औरत मां है, बीवी, बेटी, बहन है इसलिए उसकी इज्जत करो. एज़ इफ.. आप हमारी इज्जत तभी करेंगे जब हम इन पैट्रिआकल रोल्स में फिट होंगे. लेकिन जिन रोल्स की कीमत पर आप हमारी इज्जत करने की बात करते हैं, अक्सर यही रोल्स हमें अपने बारे में सोचने से प्रतिबंधित करते हैं. इसीलिए औरतों को इस खास दिन पर तय करना होगा कि क्या सिर्फ रिश्तों के स्टेटस में फंसे रहना है या शरीर के भूगोल से बाहर भी निकलना है.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)

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