चुनाव और धार्मिक मुद्दों के बीच उलझी राजनीति और मीडिया की दुनिया, बुनियादी जरूरतों के बदल गए हैं मायने
हम अब उस दौर में जी रहे हैं, जिसमें हर दिन आसपास चुनावी शोर होता है. कभी दक्षिण भारत के राज्य में चुनाव का शोर होता है, तो कभी उत्तर भारत के राज्य में. बीच-बीच में पूर्वोत्तर राज्यों में भी चुनावी गतिविधियां मीडिया की सुर्खियां बनती रहती हैं.
कमोबेश स्थिति ये है कि आप जब भी खबरों पर नज़र डालें, तो चुनावी खबरों की भरमार होती है, चाहे कहीं चुनाव हो रहा हो या नहीं हो रहा हो. अभी आगामी लोकसभा चुनाव में 10 महीने से ज्यादा का वक्त बचा है, लेकिन राजनीति और मीडिया दोनों में ही इसको लेकर पिछले कई महीनों से सरगर्मी काफी तेज है. चाहे सत्ताधारी दल बीजेपी हो या कांग्रेस समेत विपक्ष के तमाम दल, सभी लोकसभा चुनाव को लेकर रणनीति बनाने में जुटे हैं और मीडिया में भी इनसे जुड़ी ख़बरों की बाढ़ आई हुई.
हमेशा चुनावी शोर में जीने को मजबूर लोग
इसके अलावा इस साल मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना और मिजोरम में विधानसभा चुनाव भी होना बाकी है. इसके साथ ही इस साल हम नगालैंड, त्रिपुरा, मेघालय और कर्नाटक का चुनाव देख चुके हैं.
2024 में देश का सबसे बड़ा चुनाव लोकसभा चुनाव तो होना ही है, इसके साथ ही 2024 में 7 राज्यों सिक्किम, आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, ओडिशा, हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में भी विधानसभा चुनाव होना है. इनमें से 4 राज्यों सिक्किम, आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश और ओडिशा में आम चुनाव के दौरान ही विधानसभा चुनाव होने की ज्यादा संभावना है. अगर जम्मू-कश्मीर में हालात ठीक रहे तो वहां भी अगले साल विधानसभा चुनाव हो सकते हैं.
2022 में हमने 7 राज्यों गोवा, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और गुजरात में विधानसभा चुनाव देखा था. 2021 में 5 राज्यों असम, केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव हुए थे. उसी तरह से 2020 में दो राज्यों दिल्ली और बिहार में विधानसभा चुनाव हुए थे.
अब अगर 2020 से 2024 के 5 साल पर नजर डालें तो इस अवधि के दौरान 30 विधानसभा चुनाव का बोझ भारतीय लोकतंत्र और यहां के लोगों से जुड़ा है. इसमें 2024 के लोकसभा चुनाव और जम्मू-कश्मीर की गिनती कर ली जाए तो 2024 के आखिर तक 32 चुनाव (विधानसभा+लोकसभा) के माहौल से देश के लोगों को अलग-अलग वक्त में गुजरना पड़ा है या पड़ेगा.
इन चुनावों में अगर स्थानीय निकायों जिसमें पंचायतों के साथ नगर निकायों का चुनाव भी शामिल कर दिया जाए, तो फिर संख्या और भी ज्यादा हो जाती है. पिछले कुछ सालों से स्थानीय निकायों के चुनाव को भी राष्ट्रीय मीडिया में खूब जगह मिलने लगी है.
मीडिया में चुनावी मुद्दे होते जा रहे हैं हावी
अब जब देश में इतने चुनाव अलग-अलग वक्त में होंगे, तो उसके हिसाब से मीडिया में चुनावी मुद्दों की भरमार होना स्वाभाविक ही है. देश हमेशा चुनावी मोड में ही रह रहा है, उसके पीछे सबसे बड़ा कारण एक तो चुनाव की संख्या है और दूसरा कारण है मीडिया में चुनावी ख़बरों को दूसरी ख़बरों से ज्यादा तवज्जो मिलना. इसके पीछे हमारी राजनीतिक व्यवस्था जितनी जिम्मेदार है, उतनी ही जिम्मेदारी मीडिया विमर्श को तय करने वाले दलों, संस्थाओं और लोगों की भी है.
धार्मिक मुद्दों में उलझी राजनीति और मीडिया की दुनिया
अब अगर देश हमेशा चुनावी मोड में रहेगा, तो फिर उसमें धार्मिक और जातिगत मुद्दे तो छाए ही रहेंगे और ऐसा हो भी रहा है. ये अलग बात है कि सैद्धांतिक तौर से चुनाव में धार्मिक और जातिगत मुद्दों पर वोट मांगना या वोटों का ध्रुवीकरण करना, न तो संविधान के हिसाब से मान्य है और न ही चुनावी कानूनों और आदर्श आचार संहिता के हिसाब से. लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही. भारत में 1951-52 के पहले चुनाव से ही कम या ज्यादा धर्म और जाति के आधार पर वोटों के ध्रुवीकरण के प्रयास होते रहे हैं.
ये बात अलग है कि हम जैसे-जैसे विकास के रास्ते पर आगे बढ़ते गए, भारतीय लोकतंत्र में धार्मिक और जातिगत मुद्दों पर चुनावी नतीजों को प्रभावित करने की कोशिशें बढ़ती गई. इसमें जितना योगदान राजनीतिक दलों का है, उतना ही योगदान मीडिया के जरिए बनने वाले ओपिनियन का भी है. पहले भी चुनाव में धार्मिक मुद्दों को उछाला जाता था, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान इसका खूब शोर दिखा. मई 2014 में केंद्र में बीजेपी अगुवाई में एनडीए की सरकार आने के बाद चुनाव में धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण की कोशिशों को और भी बल मिला. इतना ही नहीं इसके बाद देश हर समय चुनावी मोड में ज्यादा नजर आने लगा.
सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव का भी असर
बीजेपी की सरकार केंद्र के साथ ही बाकी कई राज्यों में भी बनी और चुनावी शोर का दायरा भी उसके साथ बढ़ने लगा. हालांकि देश को सुबह, दोपहर, शाम चुनावी मोड में लाने के लिए बीजेपी के साथ ही बाकी विपक्षी दल भी उतने ही जिम्मेदार हैं. इसके साथ ही मीडिया के नए-नए विकल्पों यानी सोशल मीडिया के बढ़ते दायरे और प्रभाव से भी इस प्रवृत्ति को बढ़ावा मिली.
जैसे-जैसे चुनाव का शोर हमारे रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा बनते गया, वैसे ही राजनीतिक दल भी चाहे चुनाव रहे या न रहे, मतदाताओं को किसी न किसी तरह से अपने पाले में हमेशा ही बनाए रखने के लिए मुद्दे गढ़ते गए और उसका ही नतीजा हुआ कि मीडिया भी इन चुनावी मुद्दों में उलझती गई. अब जब रोज चुनावी माहौल रहेगा, तो उसके हिसाब से मुद्दों को भी बनाए रखने के लिए राजनीतिक दलों और मीडिया को ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी. इस कवायद में सभी पक्षों के लिए धार्मिक मुद्दे काफी फायदेमंद साबित हो रहे हैं.
धार्मिक प्रतीकों और पहचान का इस्तेमाल
चुनाव में धार्मिक प्रतीकों और पहचान के इस्तेमाल की प्रवृति कुछ सालों में तेजी से बढ़ी है. चुनाव दर चुनाव इस प्रवृत्ति में वद्धि ही हो रही है. यही वजह है कि इन धार्मिक प्रतीकों और पहचान के जरिए चुनाव नहीं रहने पर भी चुनावी माहौल बनाए रखना ज्यादा आसान हो गया है. चाहे दल कोई भी हो, उस दल के नेता और कार्यकर्ता अपने-अपने हिसाब से अलग-अलग धार्मिक प्रतीकों का प्रयोग करने से गुरेज नहीं कर रहे हैं. अब तो स्थिति ऐसी नाजुक दौर में पहुंच गई है कि सरकारी योजनाओं और नीतियों पर भी सत्ता पक्ष और विपक्ष धार्मिक आधार पर एक-दूसरे से उलझने लगे हैं. साथ ही अपने कार्यकर्ताओं और समर्थन में मतदान करने वाले वोटरों से भी ऐसी ही अपेक्षा करने लगे हैं.
जिस तरह से देश में हमेशा ही चुनाव का माहौल रहने लगा है, उसको देखते हुए एक और बात निकलकर सामने आती है. लोकतांत्रिक प्रक्रिया में चुनाव की व्यवस्था हर पांच साल में सरकार की ओर से किए गए विकास कार्यों पर मैंडेट देने के लिए गई है. लेकिन अब स्थिति ये है कि मतदाता या आम नागरिक चुनाव में वोट दे देते हैं, उसके बाद का जो 5 साल का समय होता है, उस अवधि में भी उन्हें पार्टी आधारित विचार का समर्थन करने के लिए मजबूर किया जाने लगा है और ऐसा नहीं होने पर विरोधी पार्टी का समर्थक मान लिया जाता है.
पक्ष-विपक्ष के बीच बंटते आम लोग
वो गुजरे जमाने की बात हो गई कि देश का कोई आम नागरिक वोट देकर राजनीतिक तौर से अपने जीवन को निष्पक्ष होकर व्यतीत कर सके. हमेशा चुनावी माहौल होने की वजह से इस तरह की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला है. आम नागरिक के लिए ये जरूरी नहीं कि वो हमेशा किसी पार्टी का कार्यकर्ता ही बनकर अपने विचार पेश करे. किसी पार्टी को वोट देने का ये कतई मतलब नहीं होता है कि वो शख्स हमेशा के लिए उस पार्टी का समर्थक हो गया है. वोट का संबंध जितने भी मौजूद विकल्प हैं, उनमें से किसी एक को चुनने की आजादी से है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में मतदान ताउम्र किसी पार्टी के लिए समर्थन जाहिर करने का जरिया नहीं होता. लेकिन देश में हमेशा चुनावी शोर रहने की वजह से इस तरह का परसेप्शन बना है, या यूं कहें कि बनाने की कोशिश की गई है.
बुनियादी जरूरतों के मायने धीरे-धीरे बदलने लगे हैं
चुनावी माहौल और धार्मिक मुद्दों के छाए रहने का सबसे बड़ा दुष्परिणाम ये है कि बुनियादी जरूरतों के मायने धीरे-धीरे बदलने लगे हैं. कम से कम राजनीतिक और मीडिया विमर्श में तो ऐसा हो ही रहा है. पूरा देश हर वक्त चुनावी मोड में हो तो लोगों की बुनियादी जरूरतों से जुड़े मुद्दों को ज्यादा तवज्जो मिलनी चाहिए. लेकिन हो बिल्कुल इसके विपरीत रहा है. हमारे यहां चुनाव जीतने के लिए कौन-सी पार्टी किस तरह की रणनीति बनाने में जुटी है, पार्टियां धार्मिक और जातिगत समीकरणों को साधने में दिन-रात क्या कर रही हैं, ये अब राजनीतिक तौर से पैदा किए गए बुनियादी मसले बनते जा रहे हैं.
इसका नतीजा है कि पहले आम लोगों की जो बुनियादी जरूरतें..रोजगार, भोजन, बेहतर शिक्षा, बेहतर चिकित्सा सुविधा, बढ़ती महंगाई से होने वाली परेशानी और इसी तरह के मसले थे, वे अब धीरे-धीरे मीडिया विमर्श से गायब होते जा रहे हैं या हैं भी तो उस तरह से इन मुद्दों को तरजीह नहीं मिल रही है, जितनी मिलनी चाहिए.
धार्मिक और चुनावी मुद्दे हावी होते जा रहे हैं
देश में हमेशा चुनावी माहौल रहने की वजह से धार्मिक और चुनावी मुद्दे हावी होते जा रहे हैं और बुनियादी जरूरतों से जुड़े मुद्दे गौण हो गए हैं. ये कहना कि हमेशा चुनावी मोड में रहने के लिए सिर्फ़ राजनीतिक दल ही जिम्मेदार हैं, ये भी सही नहीं है. इसमें चुनाव की संवैधानिक व्यवस्था और आम लोगों की दिलचस्पी का भी कहीं न कहीं हाथ है.
'एक देश, एक चुनाव' से मिल सकती है मदद
देश हमेशा चुनावी मोड में न रहे, इसके लिए एक बेहतर उपाय ये हो सकता है कि पूरे देश में लोकसभा चुनाव और हर राज्य के लिए विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाएं. लेकिन ये एक ऐसा मसला है, जिस पर राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति बनाने की जरूरत होगी. ऐसा होने पर ही 'एक देश, एक चुनाव' की संकल्पना को लागू किया जा सकता है.
देश में हर साल या कहें हर एक-दो महीने के अंतराल पर किसी न किसी रूप में चुनावी प्रक्रिया चलती रहती है. कुछ साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'एक देश, एक चुनाव' के विचार का जोर-शोर से समर्थन किया था. उन्होंने जून 2019 में इस पर सर्वदलीय बैठक भी बुलाई थी. हालांकि उस बैठक में कांग्रेस शामिल नहीं हुई थी. लोकसभा और सभी विधानसभा का चुनाव एक साथ हो, इस पर राजनीतिक दलों की राय बंटी हुई है.
संविधान लागू होने के बाद देश में पहला चुनाव 1951-52 में हुआ, उसके बाद 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और सभी विधानसभा के चुनाव साथ-साथ ही होते थे. 1968-69 में कुछ राज्यों की विधानसभाओं के समय से पहले भंग होने की वजह से ये सिलसिला खत्म हो गया. 1971 में लोकसभा चुनाव भी पहली बार तय समय से पहले हुआ. फिर लोकसभा चुनाव और अलग-अलग विधानसभा के अलग-अलग वक्त पर चुनावों का सिलसिला जो शुरू हुआ, वो अभी तक जारी है.
'एक देश, एक चुनाव' पर आम सहमति बनाने की जरूरत
'एक देश, एक चुनाव' को लेकर देश के आम लोगों से ज्यादा राजनीतिक दलों में एतराज है. कुछ दलों का मानना है कि इसके जरिए सत्ता में रहने वाली पार्टी को फायदा हो सकता है. इसके अलावा कुछ संवैधानिक पहलू भी हैं. जैसे अगर ये लागू भी हो गया तो भविष्य में कार्यकाल से पहले लोकसभा या किसी विधानसभा के भंग होने की स्थिति में क्या व्यवस्था होगी. साथ ही वो कौन सी व्यवस्था बने जिससे लोकसभा के साथ ही सभी राज्यों में विधानसभा का कार्यकाल एक साथ ही खत्म माना जाए और उसके बाद से देश में एक साथ लोकसभा और सभी विधानसभा के लिए चुनाव हो सके.इसमें कुछ राज्यों के विधानसभा को समय से पहले भंग करना होगा. यानी राज्यों के बीच भी इस पर सहमति बनाने की कोशिश होनी चाहिए.
कई संवैधानिक पहलुओं का निकालना होगा समाधान
ये ऐसा मुद्दा है जिसमें कई संवैधानिक पहलू जुड़े हैं और इसे करने के लिए संविधान के कई प्रावधानों में बदलाव भी करने पड़ेंगे. राजनीतिक दलों के बीच सकारात्मक चर्चा के जरिए भविष्य में इसको अमलीजामा पहनाया जा सकता है. इससे लगातार चुनाव पर होने वाले सरकारी खर्च के साथ ही पार्टियों के खर्च में भी भारी कटौती की जा सकती है. साथ ही बार-बार चुनाव में लगने वाले मानव संसाधन का भी बेहतर इस्तेमाल सुनिश्चित किया जा सकता है.
राजनीतिक बयानबाजी को कम मिले महत्व
'एक देश, एक चुनाव', अगर लागू हो गया तो कुछ हद तक देश को हमेशा चुनावी मोड से बाहर निकालने में कामयाबी मिल सकती है. लेकिन ये उपाय ही काफी नहीं है. इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ ही मीडिया विमर्श को बदलने की भी जरूरत पड़ेगी. मीडिया विमर्श को राजनीतिक बयानबाजी से बाहर निकाल कर लोगों के जीवन से जुड़ी बुनियादी जरूरतों पर फोकस करना होगा. इसके साथ ही राजनीति और धर्म के घालमेल को रोकने की दिशा में भी संबंधित पक्षों को ठोस प्रयास करने होंगे. तभी देश हमेशा चुनावी मोड से बाहर आ सकता है और आम लोगों के जीवन स्तर को सुधारने में बड़ी भूमिका निभाने वाले मुद्दों को राजनीति और मीडिया में दोनों में पर्याप्त जगह मिलेगी.
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