राजधानी दिल्ली में एक तरफ जहां नए संसद भवन का उद्घाटन किया जा रहा था तो वहीं कुछ ही दूरी पर इंसाफ की मांग रहे पहलवानों को नए संसद भवन की तरफ मार्च करते वक्त हिरासत में लिया गया. पहलवानों के तंबू वहां से हटा दिए गए. पूरी दुनिया के सामने ये दृश्य हैरान करने वाला था. करीब एक महीने से भी ज्यादा वक्त से ये प्रदर्शन चल रहा था. हम शुरू दिन से ही देख रहे थे कि पहलवान बिल्कुल शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे थे. पहलवानों की दो खूबी होती है. वे पूरी जिंदगी अपने गुरुजी से हाथ नहीं मिलाते हैं, वे गुरु के पैर छूते हैं. दूसरा ये कि पहलवान अपने से बड़ा आदमी वो चाहें कहीं भी मिल जाए, रास्ते में, अखाड़े में तो वे उसके पैर छूते हैं.


हमने ये देखा कि पहलवान उसी शैली में प्रदर्शन कर रहे थे. उनकी जो मांग थी वो प्रदर्शन के जरिए उसका इजहार कर रहे थे. मुझे लगता है कि हमारा देश लोकतांत्रिक देश है, यहां पर पाकिस्तान की तरह डेमोक्रेसी नहीं है, जिसमें तानाशाही अव्वल हो. पहलवानों के इस शांतिपूर्वक प्रदर्शन को पूरा देश देख रहा था.


जो रविवार को ओलंपियन पहलवानों के साथ किया गया, एक सवाल ये भी उठ रहा है कि कल का ही दिन वहां पर पहलवानों ने क्यों रखा?  जब हमने उन पहलवानों से बात की तो उन्होंने ये बताया कि हमने अंदर का नहीं बल्कि नए संसद भवन के सामने का रखा है. जब हमारी बात कोई एक महीने से नहीं सुन रहा है तो कोई न कोई तरीका तो हम बदलेंगे.



पहलवान, प्रदर्शन और एक्शन


पहलवानों ने ये भी कहा कि ये जो सत्तारुढ़ दल है, यही लोग सड़कों पर डांस करते थे, सिलेंडर रख लेते थे. ये लोग भी तो प्रदर्शन करते थे. लेकिन, जिस प्रकार से पुलिस ने बल का प्रयोग किया, इसकी पूरे देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में आलोचना हो रही है. आपने ये देखा कि किस तरह से लड़कियों के बालों पर पैरों के बूट रखा गया. सड़कों पर घसीटा गया. और भी बहुत से तरीके थे उनको उठाने के लिए. उनको आराम से भी उठाया जा सकता था. 


लेकिन, जान बूझकर इन खिलाड़ियों के साथ ये सलूक किया गया और इन्हें घसीटा गया. ये मुझे लगता है कि एक लोकतांत्रिक देश के लिए खतरे की घंटी है. जब आप नजर घुमाएंगे तो देश के अंदर जिले या फिर ब्लॉक में सांसद मिल जाएगा. लेकिन, ओलंपिक मेडलिस्ट या ओलंपियन गिनती के हैं.


ये पहलवान जो बैठे हैं, जिस पुलिस अधिकारी की देखरेख में ये सबकुछ हुआ है, वो पहले इनकी हिस्ट्री जान लेते कि ये कैसे यहां तक पहुंचे हैं. विनेश फोगाट के तो पिता भी नहीं है. बहुत गरीब घरों से, दूध बेचकर और इतनी मेहनत करके यहां तक पहुंचे. एक खिलाड़ी बनने में मुझे लगता है कि कम से कम 12 साल लग जाते हैं.


आईएएस 2 साल जबकि 12 साल में बनते हैं खिलाड़ी


आईएएस या आईपीएस की बात करें तो ये 2 से 3 साल में बन जाते हैं. पूरी दुनिया में इसकी आलोचना हो रही है. हर एक हिन्दुस्तानी का खून इस दृश्य को देखकर खौल रहा है. हमारे पास शब्द नहीं है. हम इसे देखकर शर्म महसूस कर रहे हैं.


लोगों में इस घटना के बाद मैसेज की जहां तक बात है तो जब कोई बच्चा खिलाड़ी मेडल लेकर आता है तो मीडिया उनके बारे में लिखते हैं. लोग उनको पढ़ते हैं या जो अनपढ़ है उन्हें पढ़कर इस बारे में सुनाया जाता है. इससे अनपढ़ मां-बाप भी खुश होते हैं. उन्हें लगता है कि देश के लिए मेडल लेकर आया है. लेकिन पिछले दो दिनों से ये चर्चा है कि जो इनकी हालत की है, उससे बेहतर तो इनको गोली मारना होता.


 सत्ता का नशा काफी खराब होता है. इंदिरा गांधी ने जब इमरजेंसी लगाई थी और जब नसबंदी का काम चल रहा था, उस वक्त पूरे देश में हाहाकार था. लोग बेबस थे. नसबंदी का रथ हरियाणा के पीपली गांव में आकर रुका था. सत्ता के नशे में कोई भी व्यक्ति जब चूर होता है तो उसका अंत जरूर होता है.


जो कुछ भी कल हुआ है, मुझे लगता है कि करोड़ों आदमी जो वर्तमान सरकार है, उसका वोटर था, वो आगे से टूट गया. इतना गहरा उन लोगों को सदमा है कि इसका असर हुआ है. लोगों में ये भी सोच है कि अगर सत्ता पक्ष इसकी सहीं से जांच नहीं करवाता है तो सत्ता ही बदल देनी चाहिए. सत्ता बदलने में तो समय लगेगा. लेकिन लोगों का धैर्य देखिए... लोग छह महीने- साल भर जरूर इंतजार कर रहे हैं. ऐसे में आप ये सोच सकते हैं कि लोगों में किस कदर का रोष है.


आरोप अंडरट्रायल है


इस वक्त जो भी आरोप बीजेपी सांसद बृजभूषण शरण सिंह पर लगाया गया है वो अंडरट्रायल है. इसका न हमें पता है और न ही आपको पता है. सिर्फ उन पहलवानों को पता है या फिर बृजभूषण को पता है या फिर उनको पता है जिनके ऊपर ये इल्जाम लगा है.


मैंने साल 2014 में राष्ट्रीय दैनिक में एक आर्टिकल लिखा था कि जब ज्यादातर पहलवान दिल्ली या फिर हरियाणा के या पंजाब के हैं तो फिर लखनऊ में कैंप क्यों लगता है? मैंने साथ में ये भी लिखा था कि कोई राज्य की बात नहीं. आप कैंप को मुजफ्फरनगर में लगा लीजिए, मेरठ या फिर नोएडा में लगा लीजिए. दिल्ली में या फिर पटियाला में लगा लीजिए... रोहतक, सोनीपत या फिर हिसाल में लगा लें. लेकिन, ये समझ से बाहर है कि लखनऊ में जब कोई महिला-पुरुष पहलवान नहीं तो फिर कैंप क्यों लगता है?


अब मां-बाप खासकर सोचने पर मजबूर हो गए हैं कि आखिर कहीं उनके बच्चों के साथ भी ऐसा न हो जाए. ऐसे में अगर इस केस का निपटारा सहीं से नहीं हुआ तो ये खेल काफी पीछे चला जाएगा.
[ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है.]