2024: जलवायु दौड़ में कछुए की चाल वाला रहा यह साल
साल 2024 अब जाने को है और हम सब नए साल में नए चुनौतियों के साथ जाने को तैयार हो रहे है. इस साल लगभग हर महीने, हर हफ्ते, धरती के किसी न किसी कोने में बाढ़, सुखाड़, जंगल की आग, गर्मी के रिकॉर्ड टूटना या फिर मौसम की चरम स्थितियाँ समाचार की सुर्खियां बनती रहीं. इसके साथ-साथ स्थानीय स्तर से लेकर वैश्विक स्तर पर वैश्विक उष्मण से उत्पन्न संकट से बचाव के लिए पहले की तरह आपस में खींचतान भी देखी गयी. जलवायु संकट से बचाव के प्रयास पिछले कुछ सालों से पटरी पर आते दिखे, तभी ट्रम्प के दुबारा राष्ट्रपति चुन लिये जाने के बाद ‘क्लाइमेट डिनायर’ लॉबी के मजबूत होने की सुगबुगाहट शुरू हो गयी. उधर वैश्विक व्यापार का उभरता सुपर पॉवर चीन भी पश्चिमी देशों की तरह अपनी जलवायु जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ाता दिखा.
ये सब तब हो रहा है जब साल 2016 के कुछ सालों के अन्तराल के बाद धरती का बुखार अपने चरम स्तर पर चढ़ने लगा है. पिछले साल जून से गर्मी बढ़ने का जो सिलसिला शुरू हुआ उसमें लगातार हर एक महीना अब तक का सबसे गर्म महीना साबित हुआ. ये सिलसिला लगातर तेरह महीने तक जारी रहा और इस साल जून में जा के टूटा. सनद रहे साल 2023 अब तक का सबसे गर्म साल था और मौजूदा साल और आने वाले साल दोनों के लगातार सबसे गर्म साल होने की पूरी सम्भावना है.
जलवायु संकट पर अब 'एक्शन' का समय
अब वैश्विक नेतृत्व के पास इस संकट से बचाव के लिए सहमत होने के लिए बहुत कम समय बचा है, पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को धीमा करने के लिए कूटनीतिक जिम्मेदारी के बंटवारे और पैसे के मुद्दे पर अटका हुआ है. इससे वही तथाकथित विकास की दौड़ में पिछड़ गए लोग सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं , जो आज भी अपनी प्रकृति सम्मत जीवन पद्धति, कम संसाधन और रचनात्मक तरीकों से इनसे निपटने का प्रयास कर रहे हैं. ऐसे में जरूरी हो जाता है कि मौजूदा साल का लेखा-जोखा हो कि मानव सभ्यता पर गहराते पर्यावरणीय और जलवायु संकट के लिहाज से ये साल कैसा रहा, कैसी रही हमारी तैयारी?
जलवायु संकट से निबटने के सारे प्रयास अभी पेरिस जलवायु समझौते के अनुसार हो रहे है. इसी साल आई संयुक्त राष्ट्र संघ की पहली एमिशन गैप रिपोर्ट के मुताबिक वर्तमान पर्यावरण नीतियां और तैयारियां जारी रही, तो वैश्विक तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर से 3.1 डिग्री सेल्सियस अधिक बढ़ जाएगा. वहीं सभी देश अपने-अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) के पूर्ण कार्यान्वयन को सुनिश्चित भी करे तो भी सदी के अंत तक कम से कम धरती का तापमान 2.6 डिग्री सेल्सियस बढ़ना ही है. यहां ध्यान देना जरूरी है कि पेरिस समझौते का लक्ष्य वैश्विक तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 2°C से नीचे रखना है, तथा इसे 1.5°C तक सीमित रखने का प्रयास है . वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5°C तक सीमित रखने के लिए ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 2025 से पहले चरम पर पहुंचना होगा तथा 2030 तक इसमें 43% की कमी करनी ही होगी.
पेरिस समझौता हो रहा बेअसर
पेरिस समझौते के आठ साल बाद भी वैश्विक उत्सर्जन लगातार बढ़ ही रहा है और साल 2023 में पिछले साल की तुलना में धरती को गर्म करने वाले गैसों का उत्सर्जन 1.3% बढ़कर 57.1 गीगाटन जा पहुंचा. इस दौरान भारत और चीन का उत्सर्जन क्रमशः 6.1% और 5.2% तक बढ़ा. जहां इस साल ब्रिटेन ने अपने आखिरी कोयला उर्जा संयत्र को बंद करने की घोषणा की, जहां यूरोप और अमेरिका में उत्सर्जन घट रहा है वहीं भारत और चीन में अब भी कोयले की खपत बढ़ ही रही है. मौजूदा साल 2024 के लिए अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) को कि जीवाश्म ईंधन की वैश्विक मांग रिकॉर्ड 8.77 बिलियन टन तक पहुंचने की उम्मीद है जो अगले तीन वर्षों तक उस स्तर के आसपास ही बनी रहगी. इसके साथ ही, वैश्विक कोयला उत्पादन भी इस साल अब तक के सबसे उंचले स्तर पर होगा.
इतनी जागरूकता, जद्दोजहद के बाद भी विकसित देशों में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वैश्विक औसत से लगभग तीन गुना अधिक है जबकि भारत, अफ्रीकी संघ और सबसे कम विकसित देश इससे नीचे हैं. पेरिस समझौते के 1.5°C लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए 2035 तक प्रत्येक वर्ष कम से कम 7.5% की कटौती आवश्यक है. जलवायु लक्ष्य और वैश्विक प्रयास में बढ़ रहे अंतर को पाटने के लिए प्रतिवर्ष 900 बिलियन से 2.1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर या वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 1% धन की आवश्यकता होगी. एक स्वतंत्र अध्ययन ने साल 2035 तक ‘जलवायु कोष’ में कम से कम सालाना 1.3 ट्रिलियन डॉलर की जरूरत बताई पर इस साल भी वैश्विक प्रयास “बहुत देर से और बहुत थोड़ा” ही साबित हुआ, जो इस साल हुए ‘कॉप-29’ के ‘जलवायु कोष’ के मद में मात्र 300 बिलियन डॉलर आवंटित करने की मज़बूरी में भी दिखा.
बीते साल रहा रिकॉर्ड उत्सर्जन
साल 2024 में वायुमंडल में CO2 यानी कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर एक नयी ऊंचाई तक जा पहुंचा. साल के आखिरी सप्ताह में 28 दिसम्बर को इसकी सांद्रता 425.5 पीपीएम तक जा पहुची जो पूर्व-औद्योगिक स्तर 280 पीपीएम से 145 पीपीएम ज्यादा है, जो विगत सवा सौ साल की मानवीय गतिविधियों का नतीजा है. अमेरिकी अनुसन्धान संस्था एनओएए प्रशांत महासागर के मौनालुआ में प्रतिदिन के हिसाब से वायुमंडल में मौजूद CO2 का रिकॉर्ड ‘कीलिंग कर्व’ के रूप में रखती है, जिससे वायुमंडल में बढ़ रही ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा का आकलन होता है. एनओएए के अनुसार पृथ्वी के संतुलित तापमान के लिए CO2 की सांद्रता 350 पीपीएम के नीचे होनी चाहिए, जो साल 1990 में ही पार हो गया था. वहीं केवल पिछले दस साल में CO2 26.6 पीपीएम बढ़ चुका है.
प्राकृतिक आपदाओं और नुकसान का साल
साल 2024 जलवायु जनित प्राकृतिक आपदा और उससे हुए नुकसान में आई बढ़ोतरी का रहा, जो स्पष्ट रूप से दुनिया के सभी कोनों में अविश्वसनीय पीड़ा का कारण बना. क्रिश्चियन एड के मुताबिक मौजूदा साल 2024 में दुनिया की 10 सबसे महंगी जलवायु आपदाओं से कम से कम 229 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ है जिसमें 2,000 लोग मारे गए हैं, जिसमें तीन-चौथाई आर्थिक नुकसान केवल विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था संयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ है, जहां जलवायु परिवर्तन को नकारने वाले डोनाल्ड ट्रम्प अगले महीने राष्ट्रपति बनने वाले हैं. इस साल की आपदाओ में चक्रवाती तूफान, जंगल की आग, तेज बारिश से आई बाढ़ और भू-स्खलन, बड़े क्षेत्र में प्रभावी सूखा और हीट वेव प्रमुख है जो अमेरिका से लेकर फिलीपीन्स तक को एक-एक करके दहलाते रहे, जो अल नीनो जैसी प्राकृतिक वैश्विक परिस्थिति के कारण और उग्र हो चले. इस सब के अलावा मार्च में औसत वैश्विक समुद्री सतह का तापमान 21.07 डिग्री सेल्सियस के मासिक उच्च स्तर पर पहुंच गया, जो ऑस्ट्रेलिया के ग्रेट बैरियर रीफ में चौथे सबसे बड़े पैमाने पर कोरल ब्लीचिंग का कारण बना.
एक तरफ अमेरिका से लेकर फिलीपीन्स तक चक्रवाती तूफानों (हेलेन, मिल्टन, बोरीस, बेरिल, यागी, क्रिस्टीन) का कहर रहा, वहीx ग्रीस से लेकर ब्राज़ील और चिली में लगी जंगल की आग ने वातावरण और पर्यटन को प्रभावित किया. इस साल के सालाना हज में हीट वेव का कहर ऐसा बरपा कि मक्का का तापमान 52°C तक चला गया, जिसके कारण कम से कम 1300 हाजी मारे गए, जो जलवायु संकट के सबसे विद्रूप चेहरों में से एक साबित हुआ. वर्ल्ड वेदर एट्रिब्यूशन और क्लाइमेट सेंट्रल के इस साल की 29 चरम मौसम की घटनाओं के अध्ययन के अनुसार मानव-जनित जलवायु परिवर्तन के कारण इस वर्ष दुनिया भर के लोगों को औसतन 41 दिन अतिरिक्त खतरनाक गर्मी का सामना करना पड़ा. कही-कहीं तो 150 दिन या उससे अधिक समय तक अत्यधिक गर्मी रही. अलग-अलग महीनों में दक्षिणी चीन, स्पेन के बवेरिया, वेलेंसिया, नेपाल और ब्राजील के रियो ग्रांडे डू सुल में आई बाढ़ व्यापक रूप से विनाशकारी साबित हुई. पश्चिमी अफ्रीका में बाढ़ , फिलीपींस में भूस्खलन , दक्षिणी अफ्रीका में सूखा और बांग्लादेश, पश्चिमी एशिया और पूर्वी अंटार्कटिका में भयंकर गर्मी के आर्थिक नुकसान अपेक्षाकृत भले कम प्रतीत हो रहे हों, पर इसका असर वैश्विक रूप से महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी प्रणालियों के विनाश, खाद्य-आपूर्ति, सामाजिक स्थिरता या समुद्र के स्तर को दीर्घकालिक नुकसान के मामले में इसकी लागत बहुत अधिक होगी.
आपदाएं प्राकृतिक हैं या मनुष्य-निर्मित...
व्यापक हो रहे इन प्राकृतिक आपदाओं की बढ़ती गंभीरता और आवृत्ति में कुछ भी प्राकृतिक नहीं रहा. अब यह स्पष्ट हो चुका है कि जब तक हम वायुमंडल में ऊष्मा को रोक कर पृथ्वी को गर्म करने वाली गैसों की मात्रा कम नहीं कर लेते, तब तक चरम मौसम की घटनाएं साल दर साल, तीव्र, विनाशकारी, महंगी और घातक होती रहेंगी. पर इस साल भी हमने इसमें लगाम लगाने के बदले पिछले साल की तुलना में ज्यादा ग्रीन हाउस गैसों को वायुमंडल में छोड़ा गया. एक तरह से हम बढ़ते तापमान के और उससे उपजी घातक परिस्थितयों के आदी बनते जा रहे हैं, जबकि ये साल युद्ध स्तर पर काम करने का होना चाहिए था. एक तरह से मानव सभ्यता ‘बॉईलिंग फ्रॉग सिंड्रोम’ का शिकार हो गयी है और हम धीरे-धीरे अपने ही कार्यकलाप के कारण जानबूझ कर विनाश की ओर बढ़ रहे है.
20वीं सदी के इतिहासकार अर्नोल्ड टॉयनबी ने अलग-अलग कभी समृद्ध रहे सभ्यताओं के अध्ययन के आधार पर ठीक ही कहा था कि ‘सभ्यताएं आत्महत्या से मरती हैं, हत्या से नहीं.’ पिछली तमाम समृद्ध मानव सभ्यताओं का विस्तार और पतन स्थानीय या क्षेत्रीय स्तर का था पर अब हमारा सामना वैश्विक स्तर के पर्यावरणीय क्षय से है, जो उत्तरोतर व्यापक होता जा रहा है. ….. और मौजूदा साल 2024 जलवायु दौड़ में कछुए की चाल वाला ही गुजरा.
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