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भव्य दीक्षा महोत्सव में आठ दीक्षार्थियों ने स्वीकारा संयम जीवन

आचार्य प्रवर ने आर्ष वाणी का उच्चारण करते हुए सभी दीक्षार्थियों को सर्व सावद्य कार्यों का त्याग कराते हुए जैन मुनि दीक्षा प्रदान की.

सूरत (गुजरात): संसार के भोग विलास को त्याग कर संयम के पथ पर बढ़ना, त्याग के पथ पर बढ़ना कोई सरल कार्य नहीं है. कोई विरले ही होते है जो आज के युग में भी भौतिक आकांक्षाओं का त्याग कर आत्मा के उद्धार का मार्ग स्वीकार कर लेते है. कुछ ऐसा ही विरला दृश्य आज सूरत के चातुर्मासिक स्थल संयम विहार में देखने को मिला जब आठ भाई–बहनों ने संयम जीवन को स्वीकार कर अपना जीवन आत्मा के उद्धार एवं परोपकार के लिए समर्पित कर दिया. युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमण जी के पावन सान्निध्य में आज भव्य जैन भागवती दीक्षा समारोह का आयोजन हुआ. जिसमें दो समणी जी का श्रेणी आरोहण एवं दो मुमुक्षु भाई व मुमुक्षु बहनों ने जैन मुनि दीक्षा ग्रहण की. आचार्य भिक्षु के बोधि दिवस के साथ ही दीक्षा समारोह से श्रद्धालुओं का उत्साह द्विगुणित हो गया. हजारों की संख्या में विशाल जन समुदाय आज के इस भव्य दीक्षा समारोह का साक्षी बनने उपस्थित था.

प्रातः 09 बजे समारोह के प्रारंभ के साथ ही महावीर समवसरण का विशाल पंडाल श्रद्धालुओं से खचाखच भराहुआ था. हर कोई दीक्षा के दुर्लभ क्षणों का साक्षी बनने के लिए समुत्सुक था. सर्व प्रथम समणी मंजू प्रज्ञा जी ने एवं मुमुक्षु रुचिका, मुमुक्षु साधना ने दीक्षार्थियों का परिचय प्रस्तुत किया. जिसके पश्चात पारमार्थिक शिक्षण संस्था के अध्यक्ष श्री बजरंग जैन ने दीक्षा स्वीकार करने वालो के आज्ञा पत्र का वाचन किया. दीक्षार्थियों ने माता–पिता के वह पत्र गुरु चरणों में समर्पित कर दीक्षा देने हेतू लिखित एवं मौखिक आज्ञा प्रदान की. 

मंगल धर्म देशना में गुरुदेव ने कहा – तीर्थंकर प्रभु महावीर लोकोत्तम पुरुष थे. अरिहंत प्रभु को लोक में उत्तम कहा गया है, सिद्ध भगवान को उत्तम माना गया है और केवली प्रज्ञप्त धर्म को लोक में उत्तम माना गया है. साधु बनने का भी अर्थ है लोकोत्तमता की स्थिति को प्राप्त करना. आज आचार्य भिक्षु का जन्म 299 वां जन्म दिवस बोधि दिवस है. जिन्होंने तेरापंथ धर्म संघ नींव रखी. इस अनंत काल की यात्रा में साधु बनना व साधुत्व की प्राप्ति होना बहुत मुश्किल है. हमारे में भी बोधि प्राप्त हो व बोधि का विकास हो. वीतरागता प्राप्त करने की दिशा में हमारा प्रस्थान हो. साधुता व साधुत्व सबसे बड़ी चीज है. गृहस्थ भी त्याग व संयम की दिशा में आगे बढ़ते रहें.

दीक्षा संस्कार के साथ ही मत्थेण वंदामी से गूंजी धर्म सभा 
आचार्य प्रवर ने आर्ष वाणी का उच्चारण करते हुए सभी दीक्षार्थियों को सर्व सावद्य कार्यों का त्याग कराते हुए जैन मुनि दीक्षा प्रदान की. इसके साथ ही अतीत के कृत कार्यों की आलोचना करवाते हुए आचार्यश्री ने आगम पाठ करवाया. जैसे ही दीक्षा संस्कार पूर्ण कर आचार्यश्री ने फरमाया की यह सभी अब हमारे परिवार के हो गए है समुची जनमेदनी ने मत्थेण वंदामी के घोष से नव दीक्षितों की अभिवंदना की.

केशलोंचन विधि : चोटी गुरु के हाथ में
केश लुंचन एक ओर जहां साधु चर्या का महत्वपूर्ण अंग है वहीं शिष्य की चोटी हमेशा गुरु के हाथ में रहती है इसका प्रतीक है. इस परंपरा का निर्वहन करते हुए आचार्यश्री ने नव दीक्षित दोनों मुनियों के चोटी के बालों का हाथों से लूंचन किया वहीं गुरुदेव की आज्ञा से साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा जी ने नवदीक्षित साध्वियों का लोंचन यह विधि पूर्ण की. 

नए जीवन का नया नामकरण : प्रदान किया अहिंसा का ध्वज 
दीक्षा अध्यात्म का नया जन्म है. इसके तहत आचार्य श्री ने नवदीक्षितों का नामकरण किया. जिसके तहत मुमुक्षु विकास बाफना - मुनि श्री वीतराग कुमार, मुमुक्षु सुरेंद्र कोचर - मुनि श्री संयम कुमार, समणी अक्षयप्रज्ञाजी - साध्वी श्री अक्षयविभा, समणी प्रणवप्रज्ञाजी - साध्वी श्री प्रीतिप्रभा, मुमुक्षु मीनाक्षी सामसुखा - साध्वी श्री परागप्रभा, मुमुक्षु मीनल परीख - साध्वी श्री मेधावीप्रभा, मुमुक्षु दीक्षिता संघवी - साध्वी श्री दीक्षितप्रभा, मुमुक्षु नूपुर बरड़िया - साध्वी श्री निश्चयप्रभा के रूप में आध्यात्मिक नाम प्रदान किया. गुरुदेव ने साथ ही साधु चर्या का अभिन्न अंग राजोहरण जिसे अहिंसा का ध्वज भी कहा जाता है आगम वाणी के साथ नव दीक्षितों को प्रदान किया.

इस अवसर पर साध्वीप्रमुखा श्री विश्रुतविभा जी ने सारगर्भित उद्बोधन प्रदान किया. नवदीक्षितों ने अपने भावोद्गार रखे. कार्यक्रम में कई युवक युवतियों ने मुमुक्षु हेतु पारमार्थिक शिक्षण संस्था में प्रवेश भी किया. कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया.

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