पूर्ण गुरु की पहचान कैसे हो सकती है? करौली बाबा ने दिया पूर्ण गुरु का विवरण
कानपुर स्थित करौली सरकार पूर्वज मुक्ति धाम में हर शनिवार संकल्प को हुए भक्तों के साथ कार्यक्रम में श्री करौली शंकर गुरुजी ने प्रवचन में उपयोगी बातें बताईं.
भारत, जनवरी 23: कानपुर स्थित करौली सरकार पूर्वज मुक्ति धाम में हर शनिवार संकल्प को हुए भक्तों के साथ कार्यक्रम में श्री करौली शंकर गुरुजी ने कुछ ऐसा कहा जिससे भक्तों के अंदर पूर्ण गुरु के प्रति श्रद्धा और बढ़ गयी. पूर्ण गुरु की पहचान कैसे हो सकती है ? गुरुजी ने कहा कि आजकल के लोगो की मानसिकता यह है की कोई संत सद्गुरू अगर धरती पर है तो जब तक उसके कपड़े फटे ना हो और पैर में छाले ना हो तो वो संत नहीं होता यदि कोई संत गाड़ी, बंगले में ऐशों आराम से अपना जीवन व्यतीत करता है तो वह संत नहीं हो सकता,
जब तक वह जंगलों और पहाड़ो में ना चला जाये तब तक वह संत नहीं हो सकता, क्या यह मानसिकता ठीक है ? क्या हाथ में कटोरा लिए मांगने वाला हमे कुछ दे सकता है ? हम लोगो को किसने यह धारणा दी है कि संत ऐसा होता है ? वास्तविक में संत कौन है, गुरु कौन होना चाहिए कैसा होना चाहिए? एक बार की बात है जब ग़ुरू नानक साहब बग़दाद गए तो उनसे एक बादशाह ने पूछा की संत सद्गुरू कैसे होते है और उनकी पहचान क्या है? आजकल तो हर कोई अपने आप को पूर्ण गुरु बताया करता है इसपर गुरु साहब ने फ़रमाया-
गुर पीर सदाये मंगन जाये . ताके मूल ना लगीए पाये ॥
घाल खाये किछ हत्थों दे . नानक राहपछाने से ॥
यानी की जो गुरु हो कर के लोगो से मांग कर खाया करते है उनके तो पैर भी नहीं छूना, और जो पूर्ण गुरु होंगे वह अपनी कमाई ख़ुद कर के खाते हैं, चाहे वह नौकरी करें, व्यापार करें, या कमाई कोई और ज़रिया बनाये, पर अपनी मेहनत का कमा कर खाते हैं, और अपनी कमाई का कुछ हिस्सा अपनी संगत, अपने शिष्यों पर लगाते हैं, संत रविदास जूते बना कर अपना जीवन निर्वाह करते थे, परंतु कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाते थे, इसी बात का अनुसरण श्री करौली शंकर महादेव धाम पर भी होता है, गुरु जी ने शुरू से अपने इस आश्रम को, जिसे हम श्री करौली शंकर महादेव, पूर्वज मुक्ति धाम के नाम से आज जानते है,
यहां की एक-एक ईंट, एक-एक पत्थर उनके खून पसीने की कमाई का है, आजतक उन्होंने कभी किसी से चंदा नहीं लिया, बल्कि ख़ुद की जेब से गरीब असहायों की मदत की है, जो लोग अपनी ज़मीन जायदाद बेच कर आते थे उन्हें उनके दोगुने पैसे लौटा कर उनकी चिकित्सा निःशुल्क किया करते है, इसका प्रमाण उसी करौली ग्राम के लोग है जिनकी उन्होंने उनके विरोध करने पर भी हमेशा सहायता ही की है यही होता है एक सच्चा संत, लोग कहते है की यहां हवन के नाम ‘व्यापार’ होता है, पैसे लिए जाते है, पर किस लिए ?
क्या उससे वह अपना निजी जीवन यापन करते हैं? जी नहीं, हवन करने में लाखों रुपए का खर्च होता है, कई सारे ब्राह्मण सुबह से लेकर शाम तक आपको अनुष्ठान कराते हैं, हवन, रुद्राभिषेक, आदि वैदिक प्रक्रिया का पालन होता है, पर उसके बाद भी जिनको यह धन आँखो में चुभता है तो उन्हें यह जानना चाहिए गुरु नानक ने कहा है-
‘इस जर कारण घणी विगुति, इन जर घणी खुवाई .
पापा बाझों हौवे नाहीं, मोया साथ ना जाई ॥
जिस धन को मनुष्य दिन भर झूट, फ़रेब, धोखाधड़ी कर के कमाता है और फिर यही धन उसका लोक और परलोक नष्ट करता है, और जिस धन के लिए वह इतनी मेहनत करता है, मर के वह धन साथ भी नहीं जाता, तो फिर उस धन का क्या लाभ, कम से कम संत महात्मा उससे कुछ दान करवा कर उसके उस धन को सदुपयोग में लगा देते हैं ताकि दुःखी और गरीब का भी भला हो और पाप कमाने वाले का भी कुछ भला हो इसलिए कबीर साहब जो स्वयं अपना जीवन यापन एक धानक के रूप में करते रहे है कहते है : मर जाऊँ मांगु नहीं, अपने तन के काज . परमार्थ के कारने, मोहे ना आवे लाज ॥
कहते है मैं अपने और अपने परिवार के लिए किसी से चंदा या चढ़ावा मांगने से बेहतर मर जाना पसंद करूगा परंतु यदि परमार्थ के लिए दूसरो की भलाई के लिए कोई धन दान में देता है उसे लेने में मुझे कोई हर्ज़ नहीं है, तो जो लोग यह सोचते है की करौली शंकर महादेव ने इतने रुपयों से आश्रम बना लिया इतनी बड़ी इमारतें खड़ी कर ली तो किस के लिए कर ली ? सोते तो आज भी वह उसी एक कमरे में हैं, तो यह सब किसके लिए?
जो लाखों भक्त वहां आते है उन्हीं के लिए, इतने बड़े आलीशान हॉल किसके लिए? गुरु की संगत के लिए, गुरु अपने और अपने शिष्यों में भेद नहीं करते, गुरु एक पिता की तरह अपने शिष्यों का पालन पोषण करता हैं ना की शोषण, जो ख़ुद महलों में सोते है और उनके भक्त सड़क पर, वह गुरु कहलाने योग्य नहीं होते. गुरु गोबिंद सिंह भी एक गुरु थे स्वयं राजा की तरह रहते है और अपने शिष्यों को भी वैसे ही रखते थे, क्या वह गुरु नहीं थे? या गुरु तेग़ बहादुर वह भी महलों में रहते थे क्या वह गुरु नहि थे?
श्री कृष्ण और श्री राम सोने से लदे रहते थे क्या वह परम् तत्त्व से दूर थे ? या राजा जनक जिन्हें एक ऋषि की उपाधि जी गई थी ? क्या उन्होंने अपनी जीवन यापन करने के लिए महलों में रहना छोड़ दिया था? क्या महलों में और सुख साधनों में रहने वाला गुरु नहीं हो सकता ? गुरु साहिब कहते है-
जोग ना भगवे कपड़, जोग ना मैला भेस .
घर बैठे पाइए, सतगुर का उपदेस ॥
भगवा वस्त्र धारण कर के जंगलों पहाड़ो में चले जाने से, या
अपने तन पर शमशान की भस्म लगा लें से कोई योगी नहीं बन जाता, योगी तो आप अपने घर में भी रह कर बन सकते हो, एक पूर्ण गुरु के उपदेश पर चल कर इसलिए वाणी में कहा:
ना सुख विच् ग्रहस्त दे, ना सुख छड गया .
सुख है विच् विचार दे, संता शरण पिया ॥
घर गृहस्थी में रह कर या छोड़ कर जंगलों पहाड़ो में चले जाने से सुख यानी परमात्मा नहीं मिलता, संतों की शरण में जा कर उनसे उपदेश विधि ले कर, जहां भी रहो अपने भीतर विचार करने से मिलता है, इसलिए यह धारणा बहुत ही ग़लत है की संत की वेशभूषा और उसकी रहनी सहनी से हम उनका आकलन कर सकते है, केवल और केवल संत की करनी से ही उनका आकलन किया जा सकता है, हरि हरि.
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