प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में फ्रांस से यूनिफाइड पेमेंट इंटरफेस (UPI) की शुरुआत की घोषणा की थी. अब यह बताया जा रहा है कि भारत, इंडोनेशिया में भी इसी तरह के सौदे पर मुहर लगाना चाहता है. रिपोर्ट्स के मुताबिक दोनों देश घरेलू मुद्रा में द्विपक्षीय व्यापार, रियल टाइम कार्ड रिकग्निशन और डिजिटल पेमेंट को मंजूरी देना चाह रहे हैं.
सिंगापुर और UAE के बीच यूपीआई की सुविधा पहले ही शुरू हो चुकी है. अब इंडोनेशिया ऐसा तीसरा देश बनने जा रहा है, जहां यूपीआई डिजिटल पेमेंट सुविधा मिलेगी.
इसी सिलसिले में इंडोनेशियाई विदेश मंत्री ने कहा कि दोनों देश डिजिटल प्रौद्योगिकी, केंद्रीय बैंकों के तहत भुगतान प्रणाली और ज्यादा स्थानीय मुद्रा का इस्तेमाल करने में सहयोग की संभावना पर चर्चा करेंगे.
टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक एक भारतीय अधिकारी ने कहा 'मुद्रा व्यवस्था यूएई की तरह होगी. पाम तेल का निर्यात करने वाले भारतीय रुपये में कमाई कर सकते हैं. इंडोनेशिया आसियान क्षेत्र में भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है और एशिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है.'
अधिकारी ने आगे बताया, 'पिछले साल लगभग 39 बिलियन डॉलर के द्विपक्षीय व्यापार के साथ इंडोनेशिया भारत का छठा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार था. दोनों देशों के बीच पाम तेल और पेट्रोलियम के बड़े पैमाने पर शिपमेंट से 19 बिलियन डॉलर का व्यापार हुआ'.
भूटान, नेपाल पहले ही यूपीआई को अपना चुके हैं. अब फ्रांस और यूएई के साथ इंडोनेशिया भी यूपीआई को मान्यता दे रहे हैं. 2022 में यूपीआई के डेवलपर, नेशनल पेमेंट्स कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (एनपीसीआई) ने फ्रांस की सुरक्षित ऑनलाइन भुगतान प्रणाली, लाइरा के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए.
यूरोप, पश्चिम एशिया और संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) में यूपीआई का विस्तार करने के लिए भी बातचीत चल रही है. इस सप्ताह की शुरुआत में भारत और यूएई ने राष्ट्रीय मुद्राओं में व्यापार निपटान समझौतों पर हस्ताक्षर किए.
वहीं यूएई से यूपीआई डील के बाद एक आधिकारिक बयान में दावा किया गया है कि ऐसा करने से दोनों देशों के बीच लेनदेन की लागत कम होगी और समय भी कम लगेगा. उम्मीद की जा रही है कि इस व्यवस्था की बदौलत भारत यूएई से कच्चा तेल और अन्य उत्पाद रुपये में खरीद पाएगा. अभी यह लेनदेन अमेरिकी डॉलर में होता है.
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की संयुक्त अरब अमीरात की यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच रुपये और दिरहम में व्यापार करने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किये थे.
इसके तहत दोनों देशों के बीच एक लोकल करेंसी सेटलमेंट सिस्टम बनाया जाएगा. इसकी मदद से दोनों देशों के निर्यातक और आयातक व्यापार के लिए अपने-अपने देशों की मुद्रा में भुगतान कर सकेंगे.
कैसे काम करती है ये व्यवस्था
इस सुविधा के तहत साझेदार देश के बैंकों को भारतीय बैंकों में विशेष खाते खोलने होते हैं. आयातक भुगतान के लिए इन विशेष खातों में रुपये जमा करते हैं. इन खातों रखे हुए बैंक बैलेंस का इस्तेमाल भारतीय निर्यातकों को भुगतान के लिए किया जाएगा.
बांग्लादेश के साथ इस व्यवस्था के लिए आरबीआई ने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया और आईसीआईसीआई बैंक के साथ-साथ बांग्लादेश बैंक ने सोनाली बैंक और ईस्टर्न बैंक को एक दूसरे के साथ विशेष खाते खोलने की अनुमति दे दी है.
अमेरिकी डॉलर को लगेगा झटका?
ग्लोबल इकोनॉमी में हमेशा से डॉलर की स्थिति मजबूत रही है. 70 के दशक में दुनियाभर के केंद्रीय बैंको के विदेशी मुद्रा भंडार में 80 फीसदी डॉलर था हालांकि वर्तमान में ये घट चुका है. लेकिन आज भी दुनियाभर के केंद्रीय बैंको में ये 60 फीसदी से ज्यादा है.
डॉलर की मजबूती की वजह से बाकी करेंसी कमजोर हो जाती है . वहीं डॉलर के मजबूत होने से जिन देशों को अपने कर्ज़ डॉलर में चुकाने हैं, उनके लिए ये भुगतान महंगा हो जाता है और परिणामस्वरूप इन देशों पर वित्तीय दबाव बढ़ता है और इनकी खर्च करने की क्षमता घटती है.
रूस और चीन अमेरिकी डॉलर के वर्चस्व का मुकाबला करने की कोशिश कर रहे हैं. यूक्रेन से युद्ध के बाद रूस लगातार पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों का निशाना बन रहा है. इसका जवाब देने के लिए रूस ने अपनी अर्थव्यवस्था को 'डॉलर से डी-डॉलर' करने का संकल्प लिया है.
फर्स्ट पोस्ट में छपी खबर के मुताबिक डी-डॉलराइजेशन के समर्थकों का कहना है कि इस प्रक्रिया से अमेरिकी डॉलर और अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर अन्य देशों की निर्भरता कम हो जाएगी.
अब जिस तरह से भारत की करेंसी को दुनिया के कुछ देशों ने अपनाया है उसे देखकर क्या ये कहना सही है कि अमेरिकी डॉलर के प्रभुत्व के खिलाफ भारत का रुपया रूस के रूबेल और चीन की करेंसी युआन को पीछे छोड़ रहा है.
चीन-रूस ने अमेरिकी डॉलर को पीछे छोड़ने के लिए अब तक क्या कोशिशें की हैं, पहले ये समझते हैं.
चीन
संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के बीच सालों से व्यापार संघर्ष चल रहा है. यही वजह है कि अमेरिका चीन का सबसे बड़े व्यापारिक दुश्मन बन गया है, और कई भागीदारों के खिलाफ प्रतिबंधों भी लगा दिए हैं. इस सबको देखते हुए चीन ने भी अर्थव्यवस्था में डॉलर निर्भरता पर कम करने की दिशा में कदम उठाने के लिए मजबूर हुआ है.चीन की सरकार ने अभी तक इस मुद्दे पर कोई जोरदार घोषणा नहीं की है.
इसके अलावा चीन अपनी मुद्रा युआन का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने की कोशिश कर रहा है, जिसे अमेरिकी डॉलर, जापानी येन, यूरो और ब्रिटिश पाउंड के साथ आईएमएफ बास्केट में शामिल किया गया था.
बीजिंग ने हाल ही में युआन को मजबूत करने की दिशा में कई कदम उठाए हैं. इसमें अंतरराष्ट्रीय भागीदारों के साथ युआन को व्यापार में उपयोग करना शामिल है.
अपनी महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड पहल से चीन युआन के इस्तेमाल को बढ़ावा देने की कोशिश कर रहा है. इसके अलावा चीन सक्रिय रूप से क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी) नामक एक मुक्त-व्यापार समझौते के लिए जोर दे रहा है, जिसमें दक्षिण पूर्व एशिया के देश शामिल होंगे.
रूस
रूसी वित्त मंत्री एंटोन सिलुआनोव ने इस साल की शुरुआत में कहा था 'देश को रूबल, यूरो और कीमती धातुओं जैसी कई संपत्तियों को अमेरिकी डॉलर की वजह से डंप करना पड़ा'.
कई मुद्दों पर 2014 के बाद से शुरू किए गए प्रतिबंधों के लगातार बढ़ते बोझ की वजह से रूस ने पहले ही अर्थव्यवस्था को डी-डॉलरिंग करने की दिशा में कई कदम उठाए हैं.
रूस ने स्विफ्ट, वीजा और मास्टरकार्ड के विकल्प के रूप में एक राष्ट्रीय भुगतान प्रणाली विकसित की है. अमेरिका ने रूस की वित्तीय प्रणाली को टारगेट करने के लिए प्रतिबंधों की धमकी दी है.
रूस ने हाल ही में यूरोपीय संघ के साथ व्यापार में अमेरिकी डॉलर के बजाय यूरो का उपयोग करने का प्रस्ताव दिया है.
आर्थिक मामलों के जानकार आलोक पुराणिक एबीपी न्यूज को बताया कि किसी भी देश की करेंसी की अन्तरराष्ट्रीय बाजार में स्वीकृति उस देश की बाजार में हैसियत पर निर्भर करती है.
अमेरिका का डॉलर पूरी दुनिया के देशों में स्वीकार्य है, क्योंकि सभी देशों को अमेरिका के सामान की जरूरत है. रूस और चीन दो बहुत बड़े देश हैं. लगभग सभी देशों को उनके सामान की जरूरत है. इसलिए दोनों ही देशों की करेंसी की स्थिति मजबूत है. इसलिए वो डी-डॉलर पर जोर देते रहते हैं.
आलोक पुराणिक ने ये बताया कि रूस के मंत्री ने कुछ समय पहले एक बयान दिया था कि हमारे बैंक में बहुत सारे रुपये हो गए हैं. हमें समझ नहीं आ रहा है कि हम ये पैसे कहां पर इस्तेमाल करें. पुराणिक ने कहा कि अगर भारत के पास रूबेल जमा हो जाता तो भारत को दिक्कत नहीं होती क्योंकि भारत रूस से बड़े पैमाने पर हथियार खरीदता है, दूसरे देशों में भी रूबेल स्वीकार्य है यानी रूसी करेंसी मजबूत है.
पुराणिक ने आगे बताया कि यूएई, फ्रांस, और अब इंडोनेशिया के साथ यूपीआई में व्यापार होना इस बात की तरफ जरूर इशारा है कि भारतीय पैसों की अहमियत दूसरे देशों में बढ़ना शुरू हो गयी है.
यूपीआई का कंसेप्ट डी- डॉलर से जोड़ कर देखा जा सकता है, क्योंकि इसका मतलब डॉलर की जगह किसी भी दूसरी करेंसी को मजबूत बनाने से है. अगर यूएई या कोई भी देश अपनी करेंसी में बिजनेस करेगा तो जाहिर है उस बिजनेस में डॉलर गायब हो गया.
लेकिन डी-डॉलर का व्यापक रूप से मतलब ये है कि डॉलर पूरी तरह से खत्म कर दिया जाए, डॉलर की ताकत अभी भी बहुत ज्यादा है जिसे खत्म करने में वक्त लगेगा. आने वाले पांच या सात सालों में डॉलर की ताकत कम तो जरूर हो सकती है लेकिन पूरे विश्व के बाजार से उसे मिटाना आसान नहीं है.
तो क्या रूस या चीन की करेंसी से ज्यादा ताकतवर हो रहा भारतीय पैसा
इस सवाल पर पुराणिक ने कहा कि पहले के मुकाबले भारत के रुपये की स्वीकार्यता बढ़ी है, लेकिन रूस और चीन के स्तर तक पहुंचने के लिए भारत को रूस और चीन के स्तर का माल पूरी दुनिया को देना होगा. इसके लिए भारत अभी तैयार नहीं है. 5- 6 सालों के मुकाबले भारत ने इस क्षेत्र में तरक्की जरूर की है लेकिन अभी भारत रूस या चीन का मुकाबला करने को तैयार नहीं हो पाया है. लेकिन ये जरूर कहा जा सकता है कि यूएस के डॉलर की अहमियत कम जरूर होना शुरू हो गयी है.