नई दिल्लीः विवादित FRDI यानी THE FINANCIAL RESOLUTION AND DEPOSIT INSURANCE BILL पर सरकार फिलहाल पीछे कदम खींचते दिख रही है. इस बिल के दो अहम प्रावधानों, एक लाख रुपये तक की बीमा सुरक्षा को खत्म करना और बेल इन को लेकर काफी आलोचना हुई है. हालांकि सरकार लगातार कहती रही है कि जमाकर्ताओं का पैसा नहीं डूबेगा और उन्हें डरने की जरुरत नहीं.
सूत्रों की मानें तो कोशिश यही है कि 2019 के आम चुनाव तक इस बिल को संसद में पारित कराने के लिए नहीं लाया जाए. सत्तारुढ़ पार्टी के बीच ही ये भय है कि बिल के प्रावधानों से बुरा संदेश जाएगा. खास तौर पर बीमा सुरक्षा से जुड़े प्रावधान का राजनीतिक तौर पर नुकसान हो सकता है. सूत्रों के मुताबिक, बेल इन से जुड़े प्रावधान का मतलब ये निकाला जा रहा है कि अगर बैंक या वित्तीय संस्था डूबी तो ऐसी सूरत में जमाकर्ताओं के पैसे से ही दूसरी देनदारी चुकाने की कोशिश होगी. यही वजह है कि खुद सत्तारुढ़ पार्टी के कई सांसद बिल को सरकार के इस कार्यकाल में पारित नहीं कराए जाने के पक्ष में है.
इस समय ये बिल संयुक्त संसदीय समिति के पास विचाराधीन है. समिति के मुखिया भाजपा सदस्य भूपेंद्र यादव हैं. बिल के ठंडे बस्ते में जाने के संकेत उस समय भी मिले जब समिति ने रिपोर्ट पेश करने के लिए संसद से अतिरिक्त समय मांगा. अब समिति ने बजट सत्र के आखिरी दिन रिपोर्ट देने का प्रस्ताव किया है. अब यदि उक्त दिन तक रिपोर्ट आ भी जाए तो मानसून सत्र के पहले बिल पर संसद में विचार होने की उम्मीद नहीं. सूत्रों का कहना है कि अगर सत्तारुढ पार्टी के भीतर से दवाब बना रहा तो ऐसे में बिल और लटकेगा.
क्या है बिल
11 अगस्त को लोकसभा में पेश किए गए बिल के उद्देश्यों के मुताबिक, इस समय वित्तीय सेवा मुहैया कराने वाले जैसे बैंक या बीमा कंपनी के डूब जाने की सूरत मे एक स्पष्ट प्रक्रिया का अभाव है और प्रस्तावित कानून इस कमी को पूरा कर सकेगा.. हालांकि बैंकिंग कानून 1949, रिजर्व बैंक कानून 1934, बीमा कानून 1938, जीवन बीमा निगम कानून 1956 और भारतीय स्टेट बैंक कनून 1955 जैसे कानूनो के कुछ प्रावधान जरुर मदद करते हैं कि अगर वित्तीय सेवा मुहैया कराने वाली संस्था डूब जाए तो उसके बाद क्या कुछ किया जा सकता है. यहां क्या कुछ का मतलब है कि लेनदारों औऱ जमाकर्ताओं के हितों की किस तरह से रक्षा हो सकती है.
बिल के उद्देश्य
- एक Resolution Corporation का गठन करना. नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल के फैसले के तहत डूबने वाली वित्तीय कंपनी की संपत्ति वगैरह एक मजबूत संस्था को ट्रांसफर करने का अधिकार इस कॉरपोरेशन को होगा.
- कुछ वित्तीय संस्थाओं को Systemically Important Financial Institutions का दर्जा देना. ये वो संस्थाएं होंगी जिनके डूबने की सूरत में पूरी वित्तीय व्यवस्था पर काफी बुरा असर पड़ेगा.
- विशेष फंड का गठन करना जिसकी बदौलत जमा पर बीमा सुरक्षा मुहैया करायी जाएगी. फंड के जरिए बाकी दूसरे खर्चों से भी निबटा जाएगा.
- Deposit insurance and Credit Guarantee Corporation Act, 1961 को खत्म करना. (यही वो प्रावधान है जिसकी वजह से ये आशंका बनी कि बैंक डूब जाने की सूरत में 1 लाख रुपये तक की बीमा सुरक्षा नहीं मिलेगी)
क्यों जरुरत पड़ी इस बिल को लाने की
एक आम कंपनी और एक वित्तीय संस्था के डूबने में काफी अंतर है. जब कोई आम कंपनी डूबती है तो इसका असर मुख्य रुप से उसके लेनदारों पर पड़ता है, लेकिन यदि एक वित्तीय संस्था डूब जाए तो उसका असर काफी व्यापक होता है, क्योंकि मुमकिन है कि ऐसी वित्तीय संस्था में काफी लोगों का पैसा जमा हो. अब यदि ऐसी किसी वित्तीय संस्था के दिवालिया घोषित करने के आम तरीके को अपनाया जाए तो समय काफी लग सकता है और उसकी वजह से आम लोगों को तो नुकसान होगा ही, वित्तीय व्यवस्था पर भी काफी बुरा असर पड़ सकता है.
ध्यान देने की बात ये है कि नया दिवालिया कानून 2016 के के दायरे में खुद-बखुद वित्तीय सेवा मुहैया कराने वाली कंपनियां नहीं आती. इसी सब को ध्यान में रखते हुए एफआरडीआई बिल लाया गया है. सरकार को उम्मीद है कि दिवालिया कानून के साथ मिलकर प्रस्तावित कानून पूरे अर्थव्यवस्था को एक विस्तृत समाधान व्यवस्था मुहैया करा सकेगी जिसके तहत लोक निधि यानी पब्लिक फंड और विशेष सेवा मुहैया कराने वालों के ग्राहकों के हितों की रक्षा हो सकेगी.
‘बेल इन’ प्रावधान
विवादों में एक प्रावधान 'बेल इन' से जुड़ा है. कहा जा रहा है कि इस प्रावधान के लागू होने पर डूबे हुए बैंक में जमा रकम का इस्तेमाल दूसरे काम के लिए हो सकता है और वो भी जमाकर्ताओं की मंजूरी के बगैर. दूसरे शब्दों में ये धारणा बनायी जा रही है कि बैंक डूबने की सूरत में आपका पैसा तो मिलेगा नहीं, उलटे उसका इस्तेमाल दूसरी देनदारियों को पूरा करने में हो सकता है. लेकिन सरकार का दावा है कि ये पूरी तरह से गलत है. उसका ये भी कहना है कि बिल में दिए गए प्रावधान से मौजूदा बीमा सुरक्षा पर तो कोई असर नहीं ही पड़ेगा, साथ ही एक पारदर्शी व्यवस्था के जरिए अतिरिक्त सुरक्षा मिलेगी.
जमा को लेकर डर
सरकार का दावा है कि इस तरह की आशंका का कोई आधार नहीं है. वित्त मत्रालय की मानें तो प्रस्तावित व्यवस्था से ग्राहको को मिल रही मौजूदा बीमा सुरक्षा पर तो कोई असर नहीं ही पड़ेगा, साथ ही ज्यादा पारदर्शी व्यवस्था के जरिए जमाकर्ताओं को अतिरिक्त सुरक्षा मिल सकेगी. मौजूदा व्यवस्था के तहत Deposit Insurance and Credit Guarantee Corporation (DICGC) के जरिए जमाकर्तांओं के सिर्फ 1 लाख रुपये तक की जमा को बीमा सुरक्षा मिलती है. 1 लाख से ज्यादा की जमा पर कोई बीमा सुरक्षा नहीं. अब यदि कोई बैंक या वित्तीय संस्था डूब जाए तो 1 लाख रुपये से ज्यादा की जमा को लेकर दावा तो किया जा सकता है लेकिन वो बेजमानती लेनदार यानी unsecured creditors के दावों के समान माना जाएगा. दूसरे शब्दों में यदि कोई बैंक या वित्तीय संस्था डूब जाए तो तमाम तरह की देनदारी चुकता करने के बाद अगर पैसा बचा तभी 1 लाख रुपये से ऊपर की जमा रकम वापस मिल सकेगी.
अब सरकार का दावा है कि नए बिल के कानून बनने के बाद ऐसा नहीं होगा. प्रस्तावित कानून के तहत 1 लाख रुपये तक की जमा पर तो सुरक्षा मिलेगी ही, उसके ऊपर की रकम के लिए जमाकर्ताओं को बेजमानती लेनदार और सरकारी बकाया के ऊपर रखा जाएगा. मतलब डूबी हुई वित्तीय संस्था या बैंक की संपत्ति बेचकर पैसे के भुगतान में जमाकर्ताओं के दावे को तवज्जो दी जाएगी. दूसरे शब्दो में कहें तो जमा डूबने का खतरा नहीं होगा.