बढ़ते फंसे कर्ज के बीच छह महीने में 53 हजार करोड़ बट्टे खाते में
वित्त मंत्रालय के मुताबिक, 2016-17 में 81 हजार करोड़ रुपये से भी ज्यादा की रकम बट्टे खाते में डाली गयी गयी थी जबकि 31 मार्च 2018 को खत्म होने वाले कारोबारी साल में ये रकम 53 हजार करोड़ रुपये के भी पार कर गयी है.
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नई दिल्लीः सरकारी बैंकों ने चालू कारोबारी साल यानी 2017-18 के पहले छह महीने के दौरान 53 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा की रकम बट्टे खाते में डाले.
किसी भी कर्ज में जब लगातार तीन महीने तक किश्त नहीं चुकायी जाती है तो वो फंसा कर्ज यानी एनपीए में तब्दील हो जाता है. जब एनपीए की वसूली की कोई उम्मीद नहीं होती है तो वो डूबा कर्ज बन जाता है, वो रकम बट्टे खाते में डाल दी जाती है. तकनीकी भाषा में इसे ‘राइट ऑफ’ कहा जाता है.
राज्यसभा में वित्त मंत्रालय की ओर से दी गयी जानकारी के मुताबिक, 2016-17 में 81 हजार करोड़ रुपये से भी ज्यादा की रकम बट्टे खाते में डाली गयी गयी थी जबकि 31 मार्च 2018 को खत्म होने वाले कारोबारी साल में ये रकम 53 हजार करोड़ रुपये के भी पार कर गयी है. ध्यान रहे कि रिजर्व बैंक के दिशानिर्देशों और विभिन्न बैंकों को निदेशक बोर्ड की ओर से मंजूरी नीतियों के मुताबिक, बट्टे खाते में डाली जानी वाली रकम में उन कर्ज को भी शामिल किया जाता है जिनके लिए पूरा-पूरा प्रावधान किया जा सकता है या फिर जिस कर्ज को बैंक के बैलेंस शीट से हटा दिया गया है.
दूसरी ओर वित्त मंत्रालय ने फंसे कर्ज को लेकर स्थिति साफ की. मंत्रालय के मुताबिक, 2008 से 2014 के बीच बैंकों का कुल कर्ज 34 लाख करोड़ रुपये बढ़ा. दूसरी ओर 2015 में रिजर्व बैंक के विशेष अभियान (असेट क्वालिटी रिव्यू) के जरिए 2015 में पता चला कि फंसा कर्ज काफी ज्यादा है. फंसे कर्ज पहचानने के नए मानकों से पता चला कि सरकारी बैंकों का एनपीए मार्च 2014 के 2.16 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर सितंबर 2017 के अंत में 7.33 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गया. दूसरे शब्दों में कहे तो साढ़े चार लाख करोड़ रुपये का फंसा कर्ज छिपाया जा रहा था, जो एक्यूआर की बदौलत ही सामने आ पया.
नतीजतन बैंकों को ज्यादा रकम का प्रावधान करना पड़ा, ताकि उनका बैलैंश शीट दुरुस्त हो सके. फंसे कर्ज से होने वाले संभावित घाटे के मद्देनजर 2013-14 से लेकर चालू वित्त वर्ष 2017-18 की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) के बीच कुल 3 लाख 79 हजार 80 करोड़ रुपये का प्रावधान करना पड़ा जबकि उसके पहले बीते दस वर्षें में महज करीब दो लाख करोड़ रुपये का प्रावधान करना पड़ा था.
आम तौर पर कहा जाता है कि फंसे कर्ज में बढ़ोतरी, अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति का आइना है. लेकिन ये भी मुमकिन है कि जब बिना किसी गहरी पड़ताल के कर्ज बांटे जाए या फिर कर्ज बांटने में किसी भी तरह की अनियिमतता हो तो फंसे कर्ज बढ़ने की आशंका ज्यादा होती है. मोदी सरकार का मानना है कि फंसे कर्ज में बढ़ोतरी की एक बड़ी वजह कर्ज बांटने में बरती गयी अनियमितता है.
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