CIPLA Blackstone Deal: ‘अमीरों’ के हाथों बिक रही ‘गरीबों की दवा कंपनी’, गांधी और सुभाष भी रह चुके हैं जिसके फैन!
India's oldest pharma company: भारत को अभी के समय में दुनिया का ड्रग कैपिटल यानी दवाओं वाली राजधानी कहा जाता है. देश को यह श्रेय दिलाने वाली कंपनी अब बिकने वाली है...
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बात सस्ती दवाओं की हो तो दुनिया में भारत की एक अलग ही छवि बनकर सामने आती है. एक ऐसा देश, जो दवाओं में मुनाफा कमाने के बजाए इस बात पर जोर देता है कि उसकी कीमत कम से कम हो, ताकि दुनिया की सबसे गरीब आबादी को भी वे उपलब्ध हो सकें. अभी कोविड महामारी के दौरान भी भारत ने अपनी इस भूमिका का निर्वहन किया था, जिसके लिए तमाम फोरम से देश को तारीफें मिली थीं. भारतीय दवा उद्योग में मुनाफे के बजाय किफायत का दर्शन पिरोने वाली कंपनी का नाम जानते हैं आप? अभी उस कंपनी के बारे में एक खबर सामने आ रही है कि वह बिकने जा रही है.
आजादी से पहले शुरू हुई सिप्ला
यह भारत की सबसे पुरानी दवा कंपनी की बात है, जिसका नाम है सिप्ला. निश्चित ही आप इस नाम से अच्छे से अवगत होंगे. इसकी कहानी बड़ी दिलचस्प है. इसे साल 1935 में The Chemical, Industrial & Pharmaceutical Laboratories के नाम से शुरू किया गया था. इसे शुरू किया था ख्वाजा अब्दुल हमीद ने, जो एक केमिस्ट व उद्यमी थे.
गांधी, नेहरू, सुभाष... सब थे फैन
वह भारत की गुलामी का दौर था. ख्वाजा हमीद जर्मनी में केमिस्ट के तौर पर काम कर रहे थे. पश्चिम के लिए भारत समेत तमाम उपनिवेश देश तीसरी दुनिया की हैसियत रखते थे. स्वाभाविक है कि पश्चिम की दवा कंपनियां भारत और भारत जैसे देश में रहने वाले लोगों के लिए खास ख्याल नहीं रखती थी. बड़ी आबादी को दवाएं उपलब्ध नहीं हो पाती थीं. ख्वाजा हमीद ने उसी समय जर्मनी से आकर भारत में स्वदेशी दवा कंपनी बनाई. उनके योगदान को इस बात से समझ सकते हैं कि खुद महात्मा गांधी से लेकर पंडित नेहरू और नेताजी सुभाष तक सिप्ला के मुरीद हो गए थे. ख्वाजा हमीद ने दवाओं के मामले में विदेशी कंपनियों के दबदबे को चुनौती देते हुए स्वदेशी और सस्ते की अलख जगाई थी.
इस टक्कर से बदला देश का कानून
सिप्ला के हिस्से में और भी कई शानदार बातें हैं. भारत को आज दुनिया का ड्रग कैपिटल यानी दवाओं की राजधानी कहा जाता है. जानते हैं क्यों... क्योंकि भारत की दवा कंपनियां आम लोगों के लिए दवाएं बनाने पर ध्यान देती हैं. भारतीय कंपनियां जेनेरिक दवाएं बनाती हैं, जिसे दुनिया की गरीब आबादी भी खरीद पाती है, और यह जेनेरिक क्रांति भी शुरू हुई थी सिप्ला से ही. ख्वाजा अब्दुल हमीद के बाद सिप्ला का कामकाज संभाला युसूफ ख्वाजा हमीद ने. साल था 1972 का. सिप्ला ने हृदय रोगों के इलाज की दवा Propranolol का जेनेरिक वर्जन तैयार किया. दवा का अविष्कार करने वाली ब्रिटिश कंपनी इम्पीरियल केमिकल इंडस्ट्रीज ने सिप्ला पर केस ठोक दिया.
उस समय इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थी. युसूफ हमीद उस मामले को लेकर प्रधानमंत्री से मिले और उन्होंने बस इतना पूछा कि क्या लाखों भारतीयों को सिर्फ इस कारण जान बचाने वाली यह दवा नहीं मिलनी चाहिए क्योंकि इसका अविष्कार करने वालों को हमारी चमड़ी का रंग नहीं पसंद? बस फिर क्या था, भारत ने पेटेंट का कानून बदल दिया. यहीं से जेनेरिक यानी सस्ती दवाओं का रास्ता खुल गया.
बहुराष्ट्रीय कंपनियों को कई बार दी मात
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ सिप्ला की आमने-सामने की यह टक्कर इतनी ही नहीं है. साल 2000 के आस-पास सिप्ला ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों को एक और बार जबरदस्त मात दी. अफ्रीका में एड्स का कहर बरप रहा था. एड्स की दवाएं विदेशी कंपनियां बना रही थीं, जो बहुत महंगी थीं. सिप्ला ने एंट्री ली और एड्स की भी जेनेरिक दवा बना दी. जो दवाएं बड़ी कंपनियां 12 हजार डॉलर में बेच रही थीं, सिप्ला ने उसे 300 डॉलर में उपलब्ध करा दिया. इन कारणों से चिढ़कर ही नामी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने सिप्ला को कॉपीकैट का टैग दे दिया था.
विदेशी हो जाएगी स्वदेशी वाली कंपनी
बहरहाल, ये तो हो गईं इतिहास की बातें. वर्तमान पर बात करते हैं, जो कुछ ठीक नहीं है... खासकर भावनात्म्क लिहाज से. खबर है कि सिप्ला के प्रवर्तक अपनी पूरी हिस्सेदारी विदेशी निवेश फर्म ब्लैकस्टोन को बेचने जा रहे हैं. अभी सिप्ला का कारोबार यूसुफ हमीद की भतीजी समीना संभाल रही हैं. परिवार के पास सिप्ला की 33.47 फीसदी हिस्सेदारी है, जिसे बेचने की तैयारी है. खबरों के अनुसार, दुनिया की सबसे बड़ी प्राइवेट इक्विटी फर्म ब्लैकस्टोन सिप्ला की 33.47 फीसदी हिस्सेदारी के लिए सबसे बड़ी बोली लगा सकती है. अगर ऐसा होता है तो स्वदेशी की अलख जगाने वाली कंपनी खुद विदेशी हो जाएगी.
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