Budget 2022: एक फरवरी 2022 को पेश किया जाने वाला आम बजट कई मामलों में संभावित दिशाओं को तय करने वाला होगा. कई मामलों में सरकार का रचनात्मक पक्ष, कूटनीतिक बोध दांव पर लगा रहेगा. हर बजट की तरह इस बार के बजट में भी आंकड़ों की बाजीगरी तो होगी ही, जिसके व्याख्यान अपनी-अपनी सोच-समझ के हिसाब से पेश किये जाएंगे. कुछ मामले बिल्कुल स्पष्ट हैं कि इस बजट में कोरोना महामारी और कृषि को विकास दर की धारणाओं के साथ-साथ अहम स्थान मिलेगा. इसमें कोई शक नहीं कि इस बजट में कृषि को राजनीतिक-अर्थव्यवस्था के हिसाब से भी सबसे अहम समझा जाएगा. भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि का आकार के हिसाब से स्थान सेवाओं और उद्योग के बाद आता है पर पिछले सालों का किसान आंदोलन और राज्यों में होने वाले विधानसभाओं चुनावों के साथ-साथ 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव का असर कृषि क्षेत्र के बजट में ज़्यादा नज़र आएगा.
पिछले साल के किसान आंदोलन ने कृषि और कृषि क्षेत्र से जुड़ी नीतियों को चर्चा के केंद्र में लाने का काम किया है. यह चर्चा नए कृषि क़ानूनों (अब रद्द किए जा चुके) के वादों और उनके साथ जुड़ी हुई आशंकाओं तक ही सीमित रही है क्योंकि इन क़ानूनों के पहले से चर्चा का विषय रहा कृषि संकट इस आंदोलन की चर्चा में अलग-थलग पड़ चुका है. इस लिहाज से भारत में गहरा रहे कृषि संकट को समझने या उस पर चर्चा करने के लिए कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ हुआ किसान आंदोलन सिर्फ एक बिंदु मात्र है. कृषि क़ानून बनाने की दलील गहरा रहे कृषि संकट को दूर करने की थी और किसान आंदोलन की आशंकाएं इस बात पर टिकी थी कि नए क़ानून गहरा रहे कृषि संकट को ओर गहरा करेंगे. इस तरह यह देखना दिलचस्प रहेगा कि बजट में कृषि संकट के बारे में चर्चा किस तरह की जाएगी और उसके साथ किस तरह के प्रावधान पेश किए जाएंगे. विश्लेषकों के लिए यह भी दिलचस्पी का मुद्दा रहेगा कि किसान आंदोलन का प्रभाव बजट पर किस तरह से पड़ा है.
कृषि संकट के लिए जो अहम मुद्दे हैं वो है किसानों की लगातार कम हो रही आमदनी, किसानों के ऊपर बढ़ रहा असहनीय कर्ज का बोझ और मौजूदा कृषि पद्धति के जुड़ा वातावरण संकट है. जिसका नतीजा ये है कि एक तरफ़ ज़मीन के नीचे के पानी का स्तर लगातार घटता जा रहा है. वहीं कृषि की बद से बदतर हो रहे हालात के कारण किसानों और खेत-मज़दूरों की आत्महत्या लगातार कई राज्यों में दर्ज की जा रही है.
किसान आंदोलन की हवाले से यह चर्चा लगातार हो रही है कि भारत की कृषि नीति का कृषि से जुड़े अंतरराष्ट्रीय अदारों और समझौतों से गहरा रिश्ता है. विश्लेषकों ने यह बात लगातार चर्चा में बनाए रखी है कि किसानों की कृषि के न्यूनतम समर्थन मूल्य को क़ानूनी मान्यता देने की मांग और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को लागू करने की मांगों का अंतरराष्ट्रीय समझौतों के साथ समन्वय नहीं बैठता है. कृषि क्षेत्र के साथ जुड़े इन तमाम मुद्दों का असर और पेचीदगी आगामी बजट के अहम सवाल रहने वाले हैं.
केंद्र सरकार की दो बातों की परछाई इस बजट के कृषि क्षेत्र पर देखी जा सकती है. केंद्र सरकार की समझ है कि कृषि क़ानूनों के मामले में वह किसानों को ‘सही बात समझाने में नाकामयाब रही’ है. दूसरी बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह कहना है कि पिछले 75 सालों में अधिकारों की मांगों और उनके लिए हुए संघर्षो के कारण ‘भारत कमज़ोर’ हुआ है. सवाल यह है कि इन्हीं 75 सालों में किसान की छवि देश की (खाद्य) सुरक्षा और (अन्नदाता) नागरिक के तौर पर पेश हुई है जिसकी समझ पूरे देश के तमाम तबकों तक फैली हुई है। इसी समझ की पूंजी किसान आंदोलन के पक्ष में गई है और माना जा रहा है कि इसी पूंजी के राजनीतिक महत्व को समझते हुए कृषि क़ानून रद्द किए गए हैं.
केंद्र सरकार की समझ और देश (भाजपा समर्थकों समेत) के अंदर किसानों की छवि को लेकर तनाव स्पष्ट है. कृषि संकट और भारत सरकार के अंतरराष्ट्रीय समझौतों में भी तनाव स्पष्ट है. यह तनाव भाजपा की अर्थशास्त्रीय समझ और राजनैतिक मजबूरियों में भी स्पष्ट है. आगामी बजट में देखने वाली सबसे दिलचस्प बात यही होगी के यह तनाव आंकड़ों, वादों और नीतियों में किस तरह पेश होते हैं और किसानों की आशंकाओं को कैसे संबोधित किया जाता है. दूरगामी नीतियों और तात्कालिक राजनीति फायदे के बीच सामंजस्य कैसे स्थापित किया जाता है.
( दलजीत अमी, लेखक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. और पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला में बतौर डायरेक्टर एजुकेशनल मल्टीमीडिया रिसर्च सेंटर कार्यरत हैं.)