अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और इस कारण अमेरिकी आर्थिक गतिविधियों का असर पूरी दुनिया में महसूस किया जाता है. ताजे बउलाव बॉन्ड बाजार से जुड़े हुए हैं, जिनके ऊपर दुनिया भर के निवेशकों की निगाहें अटकी हुई हैं. अभी अमेरिका में बॉन्ड यील्ड कई सालों में सबसे ज्यादा हो चुका है. इसका असर दुनिया भर के बाजारों और अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ने वाला है. आइए जानते हैं कि बॉन्ड यील्ड क्या है? इसे कैसे कैलकुलेट करते हैं? अमेरिका बॉन्ड यील्ड बढ़ने से क्या असर हो सकते हैं और भारतीय बॉन्ड की क्या स्थिति है?


यूएस बॉन्ड यील्ड में कितनी तेजी?


सबसे पहले तो ये जान लीजिए कि अमेरिकी बॉन्ड की ताजी स्थिति क्या है? इस सप्ताह की शुरुआत में अमेरिकी बॉन्ड ने नया रिकॉर्ड बना दिया. सोमवार 23 अक्टूबर को अमेरिका के 10 साल वाले सरकारी बॉन्ड की यील्ड 5 फीसदी के पार निकल गई. 10 साल वाले अमेरिकी बॉन्ड को बेंचमार्क की तरह इस्तेमाल किया जाता है. सोमवार को इस बॉन्ड की यील्ड 5.02 फीसदी तक पहुंची, जो जुलाई 2007 के बाद का उच्च स्तर है. इसका मतलब हुआ कि अमेरिकी बॉन्ड की यील्ड ने 16 साल से भी ज्यादा समय के उच्चतम स्तर को छू दिया. बाद में कुछ नरमी आई और सोमवार को अंतत: अमेरिकी बॉन्ड यील्ड 4.85 फीसदी पर सेटल हुई.


क्या होती है बॉन्ड की यील्ड?


अब आगे बढ़ने से पहले ये समझना जरूरी है कि दरअसल बॉन्ड यील्ड क्या है? बॉन्ड इन्वेस्टमेंट का एक डेट इंस्ट्रूमेंट है. कोई भी सरकार अपनी विभिन्न जरूरतों को पूरा करने के लिए बॉन्ड जारी करती है. निवेशक बॉन्ड खरीदकर एक तरह से सरकार को कर्ज देते हैं. चूंकि कर्ज है तो उसका ब्याज भी होगा. बॉन्ड पर भी ब्याज मिलता है. किसी भी बॉन्ड पर जिस दर से ब्याज का भुगतान किया जाता है यानी बॉन्ड में निवेश कर कर्ज देने वाले निवेशकों को जिस रेट से रिटर्न मिलता है, उसे ही संबंधित बॉन्ड की यील्ड कहा जाता है. सीधे शब्दों में कहें तो आप बॉन्ड खरीदकर सरकार को कर्ज देते हैं और उस कर्ज से आपको जो कमाई होती है, वही बॉन्ड यील्ड है.


कैसे कैलकेलुट करते हैं बॉन्ड की यील्ड?


बॉन्ड यील्ड को कैलकेलुट करने का तय फॉर्मूला है. इसे कूपन अमाउंट को प्राइस से डिवाइड कर कैलकुलेट किया जाता है. जब एक इन्वेस्टर बॉन्ड खरीदता है तो उसे बॉन्ड इश्यू करने वाला ब्याज के रूप में एक तय रकम का भुगतान करता है. इसके अलावा जब बॉन्ड मैच्योर होता है, उस समय भी इन्वेस्टर को भुगतान मिलता है. मैच्योरिटी के समय इश्यू करने वाला इन्वेस्टर को बॉन्ड की फेस वैल्यू के बराबर भुगतान करता है. इस तरह देखें तो मूल धन पूरी अवधि में वही रहता है. चूंकि बॉन्ड की ओपन मार्केट में ट्रेडिंग होती है, उसकी यील्ड में बदलाव होते रहता है. इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि जिस तरह से आप किसी कंपनी का शेयर खरीदते हैं और उसकी ट्रेडिंग होती है, ठीक वैसे ही बॉन्ड के साथ भी होता है.


भारतीय बॉन्ड पर क्या होता है असर?


जब-जब अमेरिका में सरकारी बॉन्ड की यील्ड बढ़ती है, भारत समेत अन्य देशों में भी बॉन्ड की यील्ड बढ़ने लग जाती है. इसी तरह अमेरिकी बॉन्ड की यील्ड कम होने से अन्य देशों के सरकारी बॉन्ड की यील्ड भी कम होने लगती है. हालांकि यील्ड में बदलाव की रफ्तार अलग-अलग हो सकती है, क्योंकि इसके ऊपर कई घरेलू फैक्टर्स का भी असर होता है.


भारतीय बॉन्ड की क्या है स्थिति?


भारतीय बॉन्ड की बात करें तो अभी 10 साल के सरकारी बॉन्ड की यील्ड 7.38 फीसदी पर है. पिछले एक महीने में इसमें 24 बेसिस पॉइंट यानी 0.24 फीसदी की तेजी आई है. करीब 3 साल में भारतीय बॉन्ड की यील्ड 1.50 फीसदी से ज्यादा बढ़ी है. आंकड़े बताते हैं कि जुलाई 2020 की शुरुआत में भारत के 10 साल के सरकारी बॉन्ड की यील्ड 5.76 फीसदी पर थी, जो अभी 7.38 फीसदी पर है. यानी आलोच्य अवधि के दौरान भारतीय बॉन्ड की यील्ड में 1.62 फीसदी की तेजी आई है. वहीं इस दौरान अमेरिकी बॉन्ड यील्ड में 4 फीसदी की भारी-भरकम तेजी आई है.


बॉन्ड यील्ड बढ़ने का क्या होता है असर?


बॉन्ड यील्ड बढ़ने के असर के बारे में बात करें तो जैसा कि ऊपर बताया गया, अमेरिकी बॉन्ड की यील्ड बढ़ने से भारतीय बॉन्ड की यील्ड भी बढ़ जाती है. मतलब सबसे पहला असर ये हो सकता है कि भारत सरकार के 10 साल के बॉन्ड की यील्ड अभी और बढ़ सकती है. बॉन्ड यील्ड बढ़ने से इन्वेस्टर्स को फायदा होता है, क्योंकि उन्हें पहले से ज्यादा रिटर्न मिलता है. ऐसे में इन्वेस्टर्स अन्य विकल्पों से पैसे निकालकर बॉन्ड में डालने लग जाते हैं. इससे शेयर बाजारों में आउटफ्लो देखी जाती है. यानी इन्वेस्टर्स शेयर बाजारों से पैसे निकालने लग जाते हैं, जिससे शेयर बाजारों में गिरवट आती है. दूसरी ओर सरकार के ऊपर प्रेशर बढ़ जाता है. यील्ड बढ़ने से सरकार के लिए कर्ज महंगा हो जाता है. यानी अब सरकार को बॉन्ड से पैसे जुटाने के लिए ज्यादा खर्च करना पड़ता है. इससे सरकारों का घाटा बढ़ता है और अंतत: उन्हें इंफ्रास्ट्रक्चर से लेकर लोगों के कल्याण की योजनाओं तक पर खर्च में कटौती करने पर बाध्य होना पड़ता है.


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