सरकार की वित्तीय स्थिति में राजकोषीय घाटे की अहम भूमिका होती है. राजकोषीय घाटा सरकार की आय और व्यय का अंतर है. यानी अगर सरकार की कमाई से खर्च ज्यादा होता है कि राजकोषीय घाटे की स्थिति पैदा होती है. दुनिया भर की सरकारें इसे काबू में रखने की कोशिश करती हैं. हालांकि राजकोषीय घाटे को ज्यादा नियंत्रित करने की कोशिश भी अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए ठीक नहीं है. राजकोषीय घाटे का कम रहने का मतलब यह है कि सरकार खर्च नहीं बढ़ा रही. इससे आर्थिक गतिविधियों कमजोर पड़ने की आशंका रहती है. मौजूदा दौर यानी कोरोना संक्रमण के वक्त सरकार से राजकोषीय घाटे की चिंता न कर खर्च बढ़ाने को कहा जा रहा है ताकि आर्थिक गतिविधियों में इजाफा हो और रोजगार बढ़े.


इस बार लक्ष्य को पार कर सकता है राजकोषीय घाटा


हर सरकार राजकोषीय घाटे का एक लक्ष्य निर्धारित करती है. 2018 में जब वित्त मंत्री अरुण जेटली थे तो राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 3.2 फीसदी तक निर्धारित किया गया था. चालू वित्त वर्ष के दौरान राजकोषीय घाटे का लक्ष्य 3.3 फीसदी रखा गया है. हालांकि विश्लेषकों के मुताबिक यह बढ़ कर छह से सात फीसदी तक जा सकता है. क्योंकि सरकार को इकोनॉमी में रफ्तार के लिए ज्यादा खर्च करना पड़ सकता है.


राजकोषीय घाटे की क्या है स्थिति


दिसंबर (2020) के आखिर में देश का कुल राजकोषीय घाटा 11,58,469 करोड़ रुपये था. फरवरी ( 2020) में जब बजट पेश किया गया था तो राजकोषीय घाटे का लक्ष्य 7.96 लाख करोड़ रुपये रखा गया था जो जीडीपी का 3.5 फीसदी था. आर्थिक सर्वे में कहा गया है कि सरकार के रवेन्यू में कमी आ सकती है. क्योंकि टैक्स और दूसरे स्त्रोतों से सरकार की कमाई कम हुई है और उस पर खर्च करने का दबाव है . सरकार की कमाई घटने की एक वजह कम टैक्स कलेक्शन है. अब सरकार के पास क्या रास्ता है? अमीरों पर टैक्स बढ़ाने के अलावा सरकार के पास फंड जुटाने  का एक रास्ता और वह है विनिवेश का. सरकार अपनी कंपनियों में हिस्सेदारी बेचकर फंड जुटा सकती है.


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