Global Recession: बढ़ती महंगाई को देखते हुए दुनिया भर के केंद्रीय बैंक नीतिगत दरों में बढ़ोतरी कर रहे हैं. आम तौर पर बाजार से नकदी सोख कर महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए केंद्रीय बैंक यह कदम उठाते हैं. नीतिगत दरों में बढ़ोतरी के बाद बैंकों से कर्ज लेना भी महंगा हो जाता है. लोगों के खर्च करने पर इसका असर पड़ता है और बाजार में मांग घटती है, जिससे महंगाई में धीरे-धीरे नरमी आती है. अब बात करते हैं अमेरिकी फेडरल रिजर्व (US FED) की, जिसके फेडरल ओपन मार्केट कमिटी (FOMC) की बैठक 20 और 21 सितंबर को हो रही है और इसमें महंगाई को देखते हुए ब्याज दरों में बढ़ोतरी का निर्णय लिया जाना है. अगर ब्याज दरों में बढ़ोतरी का सिलसिला इसी प्रकार जारी रहता है तो मंदी की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है. विश्व बैंक (World Bank) ने भी अपनी रिपोर्ट में इस बात की आशंका जाहिर की है.
World Bank ने मंदी को लेकर क्यों चेताया?
15 सितंबर को जारी अपनी एक रिपोर्ट में विश्व बैंक ने आशंका जाहिर की है अगर केंद्रीय बैंकों द्वारा ब्याज दरों में बढ़ोतरी का यह सिलसिला जारी रहा तो 2023 में मंदी (Recession) की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता. विश्व बैंक ने कहा है कि महंगाई पर नियंत्रण के लिए पिछले पांच दशकों के दौरान केंद्रीय बैंकों ने इस तरह से दरों में बढ़ोतरी नहीं की.
विश्व बैंक ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि वैश्विक अर्थव्यस्था (Global Economy) काफी तेजी से सुस्ती की दिशा में बढ़ रही है. एक अध्ययन का हवाला देते हुए World Bank ने कहा है कि विश्व की 3 सबसे बड़ी अर्थव्यस्थाएं - अमेरिका, चीन और यूरोपीय देश सबसे तेज गति से आर्थिक सुस्ती की तरफ बढ़ रहे हैं.
डॉलर की मजबूती से अन्य देशों की मुद्राओं में गिरावट
वैश्विक अर्थव्यवस्था एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं. ज्यादातर अंतरराष्ट्रीय कारोबार डॉलर डिनॉमिनेशन में होते हैं. जब डॉलर मजबूत होता है तो दूसरी अर्थव्यवस्थाओं और बाजारों पर भी इसका खासा असर होता है. डॉलर के मुकाबले रुपये का हाल आपने देखा ही है, जिसने 80 का स्तर भी हाल ही में पार किया था. जापान की मुद्रा येन और विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन का युआन भी इससे अछूता नहीं है.
अगले साल 0.5 फीसदी रह सकती है वैश्विक ग्रोथ- वर्ल्ड बैंक
दुनिया भर के केंद्रीय बैंक महंगाई पर काबू पाने के लिए जिस हिसाब से दरों में बढ़ोतरी कर रहे हैं, उसे देखते हुए वर्ल्ड बैंक ने अनुमान लगाया है कि इसमें अतिरिक्त 2 फीसदी की बढ़ोतरी हो सकती है. ऐसी परिस्थिति में अगले साल वैश्विक जीडीपी ग्रोथ घटकर 0.5 प्रतिशत पर आ सकती है. प्रति व्यक्ति के हिसाब से इस गिरावट को देखें तो यह 0.4 फीसदी हो सकती है और तकनीकी तौर पर इसे वैश्विक मंदी का नाम दिया जा सकता है.
अगर मंदी ने दस्तक दी तो भारत को क्या होगा नफा-नुकसान
PwC ने अपनी हालिया रिपोर्ट में डराने वाली तस्वीर पेश की है. अमेरिका में कारोबारी जोखिम प्रबंधन को लेकर किए गए एक सर्वे में 50 फीसदी लोगों ने कहा कि वे कर्मचारियों की संख्या में कटौती करने पर विचार कर रहे हैं. भारत की बात करें तो जबसे कोरोना वायरस ने दस्तक दी है तब से 25,000 स्टार्टअप कर्मचारी अपनी नौकरी गंवा चुके हैं. सिर्फ इसी साल 12,000 से अधिक लोगों को नौकरी से निकाला गया है. ये तो सिक्के का एक पहलू है. दूसरा पहलू भी देखते हैं.
महिंद्रा ग्रुप के चीफ इकॉनोमिस्ट डॉ. सच्चिदानंद शुक्ला कहते हैं कि पिछले 2-3 बार हल्की मंदी (Mild Recession) का जो अनुभव रहा है वह कुछ तिमाहियों बाद भारत के लिए सकारात्मक था. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि वैश्विक मंदी की दशा में हमारे देश का एक्सपोर्ट और फाइनेंशियल सेक्टर प्रभावित नहीं होगा. हालांकि, शुक्ला कहते हैं कि मंदी की दशा में विदेश से जिन सामानों का हम आयात करते हैं, वह सस्ते हो जाते हैं. उदाहरण के तौर पर क्रूड ऑयल और अन्य कमोडिटीज. जहां दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाएं निगेटिव में होती हैं या उनकी ग्रोथ काफी कम होती है, वहीं भारत की ग्रोथ अगर 6 फीसदी भी रहती है तो हम वैश्विक पूंजी आकर्षित करने में सफल रहेंगे.
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