​​परख से परे है
ये शख्सियत मेरी
मैं उन्हीं के लिए हूं
जो समझे कदर मेरी
लोग कहते हैं रात में, ओस गिरती है
हमने तो फूलों को, अकेले में रोते देखा है.



ऐसे गहरे एहसासों और जिंदगी के हर रंग को शब्दों में पिरो देने वाले जादूगर गुलजार (Gulzar). बेहतरीन नज्मों, गजलों और शायरी के अलावा लीक से हटकर फिल्मों को बनाने वाले गुलजार. आज गुलजार साहब का जन्मदिन है. गुलजार साहब की कलम का जादू कभी गोरे रंग की परतें पलटता है, तो कभी दिल को बच्चा बना देता है. आरजुओं को कमीना कह देने का अंदाज भी जोरदार सरीखा गीतकार ही पेश कर सकता है. एक ऐसा गीतकार जिसकी कलम से तुझसे नाराज नहीं जिंदगी, हैरान हूं मैं जैसा कि निकलता है तो नमक इसका लिखने का हुनर भी इन्हीं की कलम का कमाल है.

हिंदुस्तान और आज के पाकिस्तान में एक जगह है झेलम (Jhelum) इसी जिले के एक गांव दीना में 18 अगस्त 1934 में पिता माखन सिंह कालरा और मां सुजान सिंह कालरा के घर जन्मे संपूर्ण सिंह कालरा (Sampooran Singh Kalra). यही नाम है गुलजार का गुलजार बनने से पहले वे संपूर्ण सिंह कालरा के नाम से ही जाने जाते थे. लेकिन गुलजार साहब ने कितनी क्लास तक पढ़ाई की है, इसकी सही जानकारी उपलब्ध नहीं है.

पड़ोसी के यहां करते थे प्रैक्टिस
संगीत के प्रति उनकी ललक शुरू से ही थी. लेकिन उनके पिता और भाई को गुलजार साहब का लिखना पसंद नहीं था. उन्हें ऐसा लगता था कि वह ऐसा करके समय की बर्बाद कर रहे हैं. ऐसा करने के कारण उन्हें डांट भी पड़ा करती थी, लेकिन वह अपने पड़ोसी के घर जाकर लिखने की प्रैक्टिस किया करते थे.


कभी न भुला पाने वाला समय आया
बचपन में ही मां को खो देने के बाद वो पल उनकी जिंदगी में आया. जो गुलजार कभी नहीं भूल पाए वह था 1947 में बंटवारे का पल. इस बंटवारे के जख्म ने उनकी जिंदगी पर सबसे ज्यादा असर डाला. बंटवारे के बाद अमृतसर और दिल्ली (Amritsar And Delhi) में कुछ समय गुजारा. इसके बाद मुंबई का रुख गुलजार ने किया. मुंबई (Mumbai) में कई पार्ट-टाइम नौकरियां की. दो वक्त की रोटी के लिए एक गैरेज में मैकेनिक का काम कर रहे गुलजार पर शायरी, गीतों, नज़्मों का रंग तारी रहा. गैराज में काम करने के दौरान गुलजार की दोस्ती प्रोग्रेसिव राइटर एसोसिएशन के लेखकों से होने लगी. इनमें उस वक्त के सारे बड़े नाम शामिल थे. फिर चाहे कृष्ण चंदर हो, राजिंदर सिंह बेदी हो या फिर शैलेंद्र. शैलेंद्र उस वक्त जाने माने गीतकार में शामिल थे.


हिंदी सिनेमा के दरवाजे खुले
इस दौरान गुलजार भी अपने लेखन में जान डालने का काम करते रहे. नाम संपूर्ण सिंह कालरा से बदल कर रख लिया. शैलेंद्र के साथ दोस्ती ने ही उन्हें उनका पहला गीत भी दिलवाया. हुआ यूं कि शैलेंद्र और एसडी बर्मन के बीच किसी बात पर झगड़ा हो गया. शैलेन्द्र चाहते थे कि विमल राय की फिल्म बंदिनी के गीत गुलजार लिखें. कमाल की बात ये है कि गुलजार नहीं गीत लिखने से मना कर दिया. लेकिन शैलेंद्र के कहने पर उन्होंने इस फिल्म का एक गीत लिखा मोरा गोरा रंग लाई ले. गाना हिट रहा और इस गीत के साथ ही गुलजार के लिए हिंदी सिनेमा के दरवाजे खुल गए. 29 बरस के गुलजार के इस गीत ने विमल राय उनका मुरीद बना दिया. विमल रॉय ने उन्हें अपने साथ सहायक बनने को कहा यहीं से फिल्म निर्देशन की यात्रा भी शुरू हो गई. विमल दा और ऋषिकेश मुखर्जी के साथ गुलजार निर्देशन के सबक सीखें. साथ ही मशहूर निर्माता-निर्देशकों की फिल्मों के गीत लिखे.


बच्चों के लिए रचा साहित्य
बेहतरीन नज्म और उम्दा शायरी से जिंदगी की हकीकत को बताने वाले गुलजार ने बच्चों के लिए भी कमाल का साहित्य रचा. आज लगभग हर हिंदी स्कूल में कराई जाने वाली प्रार्थना हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करे, गुलजार का गुड्डी फिल्म के लिए लिखा गीत है. उनकी रचनाओं ने नन्हें -नन्हें  दिलो में जगह बनाई है. जंगल बुक का शीर्षक जंगल -जंगल बात चली है पता चला है, टिप-टिप टोपी टोपी, आया झुन्नू वाला बाबा, ऐ पापड़ वाले पंगा न ले. स्लम डॉग मिले नियर के लिए लिखा गीत जय हो कोई कैसे भूल सकता है. इसके लिए गुलजार को ऑस्कर और ग्रैमी अवॉर्ड भी मिले. 1973 में अभिनेत्री राखी से शादी और बेटी मेघना के जन्म के 1 साल बाद दोनों का अलग होना. रिश्तो की यह उथल -पुथल उनकी लेखनी में भी नजर आती है. पद भूषण गुलजार की कलम से निकली कृतियाँ पुखराज,  एक बूंद चांद, चौरस रात, रविवार के अलावा तमाम नज्मों, गजलों और शायरी के लिए उन्हें याद किया जाता है. सफलता का यह सफर अभी थमा नहीं है.


पिता डांटते तो पड़ोसी के घर पर करते थे लिखने की प्रैक्टिस, स्ट्रगल के दौर में मैकेनिक थे Gulzar!


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