याचिकाकर्ता के पक्ष
इस मामले की सुनवाई न्यायमूर्ति अशोक भूषण की अध्यक्षता वाली पीठ कर रही है. इसके पहले 14 अगस्त को पीठ ने इस मामले की सुनवाई के लिए 18 अगस्त की तारीख तय की थी. 14 अगस्त को सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं का पक्ष रखते हुए सीनियर एडवोकेट श्याम दीवान ने शीर्ष अदालत से कहा है कि फाइनल ईयर के स्टूडेंट्स का स्वास्थ्य भी उतना जरूरी है जितना अन्य बैच के स्टूडेंट्स का.
सीनियर वकील श्याम दीवान ने कहा कि इस समय स्टूडेंट्स को ट्रांसपोर्टेशन व कम्युनिकेशन से जुड़ी दिक्कतें आ रही हैं तथा महाराष्ट्र के कई कॉलेज तो क्वारंटाइन सेंटर बनाये गए हैं.
एक अन्य याचिकाकर्ता का पक्ष रखते हुए सीनियर एडवोकेट अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि देश के सभी कॉलेजों में एक जैसी सुविधा नहीं हो सकती है. कई कॉलेजों में तो कक्षाएं भी नहीं चली हैं. दिल्ली और महाराष्ट्र के सरकारों ने परीक्षा रद्द करने से पहले अपने विश्वविद्यालयों के वीसी से सलाह मशविरा किया था जिन्होनें कहा था कि कई स्टूडेंट्स तो डिजिटली एग्जाम देने में भी समर्थ नहीं हैं.
सिंघवी ने कहा कि यूजीसी के 15 अप्रैल, 1 मई व 29 जून के दिशा-निर्देशों में कोविड-19 की महामारी की गंभीरता को समझा गया और विश्वविद्यालयों को परीक्षा कराने या न कराने की छूट दी गई थी. लेकिन अब जब कोरोना वायरस कोविड-19 से संक्रमित मामले बहुत ज्यादा हैं तो यूजीसी आखिर कैसे परीक्षा कराना अनिवार्य कर सकता है, वो भी तब जब कॉलेजों में पढ़ाई हुई ही न हो.
यूजीसी ने रखा यह पक्ष:
इससे पहले यूजीसी ने अपने हलफनामे में कहा था कि स्टूडेंट्स के करियर में अंतिम वर्ष की परीक्षा का अत्यंत महत्त्वपूर्ण रोल होता है और राज्य सरकारें यह नहीं कह सकती है कि कोविड -19 की महामारी के मद्देनजर 30 सितंबर के अंत तक विश्विद्यालयों और महाविद्यालयों से कहने वाले उसके 6 जुलाई के गाइडलाइन्स बाध्यकारी नहीं हैं. यूजीसी ने कहा कि 6 जुलाई को जारी उसके दिशा निर्देश विशेषज्ञों के सिफारिश पर आधारित हैं और काफी विचार विमर्श करके यह फैसला किया गया है. यूजीसी ने कहा कि यह दावा गलत है कि 6 जुलाई को जारी गाइडलाइन्स के अनुसार परीक्षा करवाना संभव नहीं है.
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