Success Story Of IAS Anupama Singh: कई बार लोग अपनी पूरी जिंदगी में महज एक सफलता के लिए तरस जाते हैं और कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो कड़ी मेहनत और डेटरमिनेशन के बल पर एक नहीं बार-बार सफल होते हैं. ऐसी ही हैं हमारी आज की कैंडिडेट अनुपमा सिंह जिन्हें डॉ. अनुपमा सिंह कहना ठीक होगा. पटना की अनुपमा ने भी जीवन में एक के बाद एक कीर्तिमान स्थापित किए. सबसे बड़ा कमाल तो उन्होंने यूपीएससी परीक्षा में किया जब अपने ढ़ाई साल के बच्चे से दूर होकर और परिवार से अलग रहकर वे इस परीक्षा की तैयारी के लिए मैदान में कूदीं और पहले ही अटेम्पट में सफल भी हो गईं. सलाम है ऐसी महिला को जो शादी, परिवार, बच्चा और पुराना सैटल्ड कैरियर छोड़कर इतना बड़ा रिस्क उठाने की हिम्मत करती है और सफल भी होती है. दिल्ली नॉलेज ट्रैक को दिए इंटरव्यू में अनुपमा ने शेयर किए अपने विचार. जानते हैं विस्तार से.


अनुपमा का एजुकेशनल बैकग्राउंड –


अनुपमा मूलतः पटना की रहने वाली हैं और उनकी शुरुआती पढ़ाई-लिखाई भी यहीं हुई है. अनुपमा के पिताजी रिटायर्ड एमआर हैं और माता जी आंगनवाड़ी कार्यकर्ता. बचपन से ही पढ़ाई में अच्छी अनुपमा ने बारहवीं के बाद एमबीबीएस की प्रवेश परीक्षा दी और चयनित हो गईं. उन्होंने पटना मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस किया और यहीं नहीं रुकी बल्कि एमएस की अत्यधिक कठिन मानी जाने वाली प्रवेश परीक्षा पास करके बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से मास्टर ऑफ सर्जरी की डिग्री भी ली और सरकारी अस्पताल में एसआरशिप करने लगीं. इस दौरान उनका विवाह भी हो गया और कुछ समय बाद उन्होंने एक प्यारे से बेटे अनय को जन्म दिया. हालांकि इस दौरान उनका मेडिकल कैरियर भी अपनी मद्धम रफ्तार से चलता रहा.


देखें डॉ. अनुपमा द्वारा दिल्ली नॉलेज ट्रैक को दिया गया इंटरव्यू




सरकारी अस्पतालों की बदहाली देख किया यूपीएससी का रुख –

अनुपमा ने यूपीएससी का रुख तब करने का विचार किया जब सरकारी अस्पतालों में ग्राउंड लेवल पर बहुत सारी समस्याएं देखी और यह पाया कि कैसे भी उनका समाधान नहीं हो पा रहा है. वे एक डॉक्टर के तौर पर मरीजों का इलाज तो कर रही थी पर सिस्टम में मौजूद बहुत सी कमियों पर काम नहीं कर पा रही थी. उन्हें लगता था कि जब तक यह समस्याएं दूर नहीं होंगी तब तक खाली इलाज से मरीजों का भला नहीं हो सकता. इस विचार के साथ अनुपमा ने यूपीएससी परीक्षा देने की सोची और बच्चे को छोड़ तैयारी के लिए दूसरे शहर जाने का कड़ा निर्णय लिया.


बच्चे से दूर जाने के लिए किया दिल्ली का रुख –


अनुपमा कहती हैं कि इतने छोटे बच्चे के साथ पढ़ाई नहीं हो सकती. ऐसे में वे एक साल का समय लेकर दिल्ली मूव कर गईं और वहां उन्होंने कोचिंग ज्वॉइन कर ली. इस एक साल के पीरियड में वे अपनी जान लगा देना चाहती थी क्योंकि जिस स्थिति में वे थी उनके पास ज्यादा अटेम्प्ट्स देने का टाइम नहीं था. अनुपमा के लिए बच्चे को छोड़ने के अलावा एक और बड़ा निर्णय ये लेना था कि वे अपने जमे-जमाए कैरियर और सेट नौकरी को छोड़ रही थी, वो भी एक ऐसे क्षेत्र के लिए जहां सफलता की कोई गारंटी नहीं. इस स्टेज पर अनुपमा बहुत कुछ दांव पर लगा रही थी और पाने के नाम पर उनके हाथ खाली थे. कुछ हाथ लगेगा भी की नहीं यह भी नहीं जानती थी.


जब हुआ इमोशनल ब्रेकडाउन –


बच्चे को छोड़कर दूसरे शहर आने का फैसला तो अनुपमा ने ले लिया था पर अपने अंदर की मां को नहीं समझा पा रही थी. नतीजा यह हुआ कि दिल्ली शिफ्ट होने के कुछ समय बाद ही पहली गाज उन पर इमोशनल ब्रेकडाउन के रूप में गिरी. वे दिन-रात बस रोती रहती थी और बच्चे के लिए तड़पती थी. जैसे-तैसे पति और ननद के सपोर्ट से उन्होंने खुद को संभाला और तैयारी में लग गईं. इस बीच कई बार उन्हें यह ख्याल आता था कि सब छोड़कर वापस बच्चे के पास चली जाएं पर तब वे खुद को समझाती थी कि इतना कुछ दांव पर लगाकर यहां आयी हैं कि अब वापसी मुमकिन नहीं.


इन चुनौतियों का किया सामना –


अनुपमा कहती हैं कि इस दौरान उन्हें बहुत सी परेशानियां हुईं. जैसे उन्हें पढ़ाई छोड़े एक अरसा हो चुका था, अब दोबारा स्टूडेंट बनना बड़ा कठिन था. दूसरा ये कि वे हमेशा से साइंस स्टूडेंट रही थी आर्ट्स के विषय उन्हें समझ ही नहीं आते थे और यूपीएससी के लिए तो जमकर ह्यूमैनिटीज पढ़नी होती है. मदद के लिए उन्होंने कोचिंग की हेल्प ली पर अंत में यह पाया कि कोचिंग आपको गाइड कर सकती है, राह बता सकती है पर उस राह पर चलना आपको खुद ही है. सेल्फ स्टडी के बिना नैय्या पार नहीं होती इसलिए दिन के एंड में आपको अपना 100 प्रतिशत देना ही है. इसमें नोट्स बनाना, न्यूज पेपर पढ़ना वगैरह सब शामिल है.


ऐसे रखा खुद को मोटिवेट –


अनुपमा खुद को मोटिवेटेड रखने और अनुशासन में बांधने के लिए कुछ ऐसे नियम बनाती थी कि आज इतना कोर्स खत्म करने के बाद ही बेटे से वीडियो कॉल पर बात करेंगी. जब इतना हिस्सा तैयार हो जाएगा तब ही घर जाएंगी. ऐसे कर-करके अनुपमा अपने टारगेट पूरे करती थी. वे हर ढ़ाई महीने में घर जाती थी, बेटे से मिलती थी जो उनके लिए मेंटल टॉनिक का काम करता था और रोज एक तय समय पर वीडियो कॉल से उससे बात करती थी. वे अपने पति और परिवार के सहयोग को भी नहीं भूलती जिनके बिना वे इतना बड़ा फैसला नहीं ले पाती. अनुपमा यह भी तय करके आयी थी कि बस एक ही अटेम्पट देना है इसलिए उन्होंने खुद को झोंक दिया. अंततः उनकी मेहनत रंग लायी और पहले ही प्रयास में उनका सेलेक्शन हो गया. इस प्रकार एक औरत ने, एक मां ने सामाजिक ढ़ांचे के विपरीत जाकर सफलता हासिल की.


वे कहती हैं कि अपने सपनों को कभी मत छोड़ो और यह याद रखो की अगर ईश्वर आपको सपने देखने की हिम्मत देता है तो उन्हें पूरा करने की शक्ति भी देगा. बस खुद पर विश्वास रखो नामुमकिन कुछ भी नहीं.


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