2019 के 19 मुद्दे: देश में कोई भी चुनाव बिना मुद्दों के नहीं लड़ा जा सकता. हर चुनाव में राजनीतिक दल कोई ना कोई मुद्दा जनता के सामने रखते हैं और उनसे वोट करने की अपील करते हैं. मतदाता भी वोट करते समय यह देखते हैं कि कौन सी पार्टी उनके संबंधित मुद्दे को अहमियत दे रही है. इस चुनाव में इस बार ‘जाति का मुद्दा’ भी काफी गर्म है. विपक्ष और पक्ष दोनों अपनी-अपनी जातियों का हवाला देकर मतदाताओं को अपने पक्ष में करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं.


एडीआर के सर्वे में मुद्दे


जाति के मुददे पर बात करें, उससे पहले जान लें कि चुनाव पर नजर रखने वाली संस्था एडीआर ने देश भर में सर्वे किया है. इस सर्वे में 51% वोटर बेहतर रोजगार को बड़ा मुद्दा मानते हैं. 40 फीसदी चाहते हैं अच्छी स्वास्थ्य सेवा पर नेता बात करें. देश में 35% वोटर साफ पानी और 34 प्रतिशत मतदाता अच्छी सड़क को प्रमुख मुद्दा मानते हैं. बावजूद इसके फिर भी नेता जाति और धर्म से आगे नहीं बढ़ पाते.


पीएम मोदी के जाति कार्ड से तेज हुई बहस


वैसे तो आजादी के बाद से जितने भी चुनाव हुए हैं, उनमें जाति और धर्म के नाम पर वोट करने की परंपरा दिखती है और आजादी के 70 साल बाद भी ये रिवायत कायम है. इस बार भी ये जाति-धर्म चुनावी मुद्दा बन गया है. इस बार के लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर इस मुद्दे को लेकर बहस तब शुरू हुई जब महाराष्ट्र की एक रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जाति कार्ड खेला. इस रैली में मोदी ने कहा, ‘’मैं पिछड़ी जाति से हूं इस कारण मुझे गाली पड़ती है. विपक्षी नेता न सिर्फ मुझे गाली देते हैं बल्कि पूरे पिछड़े समाज को गाली देते हैं.’’ यूपी के कन्नौज में भी एक रैली के दौरान पीएम मोदी ने खुद को अतिपिछड़ी जाति में पैदा हुआ बताया. इधर पीएम मोदी ने ये बयान दिया उधर पूरे देश में अगड़ी-पिछड़ी जाति को लेकर बहस शुरू हो गई.


पीएम मोदी के जाति वाले बयान पर विपक्ष भी हमलावर है. अब बसपा सुप्रीमो मायावती ने मोदी पर आरोप लगाया है और दावा किया है कि नरेंद्र मोदी पहले अगड़ी जाति में आते थे, लेकिन राजनीतिक लाभ के लिए और पिछड़ों का हक मारने के लिए उन्होंने अपनी अगड़ी जाति को पिछड़े वर्ग में शामिल करवा लिया. मायावती ने मोदी पर तो निशाना साधा ही, साथ-साथ जनता को यह भी याद दिला दिया कि समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव जन्म से पिछड़े वर्ग से हैं.


विपक्ष मोदी को बता रहा है 'नकली पिछड़ा'


इतना ही नहीं मायावती जाति-जाति करते-करते दलित कार्ड खेलने से भी नहीं चूंकी. मायावती ने कहा कि मोदी और उनकी बीजेपी अभी भी दलित समाज को नीच मानकर चलती है. मोदी और उनकी पार्टी कभी भी दलितों और अतिपिछड़ों के कभी सच्चे हितैषी साबित नहीं हुए. मायावती के साथ-साथ लालू के छोटे बेटे तेजस्वी यादव ने भी पीएम मोदी को नकली पिछड़ा बताते हुए आरोप लगाया कि वह खुद को ओबीसी, इबीसी और दलित बताते हैं, लेकिन सच्चाई ये है कि वह अगड़े जाति के हैं. जाति की राजनीति की ये लड़ाई महाराष्ट्र, यूपी-बिहार में ही नहीं बल्कि राजधानी दिल्ली तक पहुंच गई है.


दिल्ली से कांग्रेस के पूर्व विधायक आसिफ मोहम्मद ने दावा किया है कि पूर्वी दिल्ली लोकसभा सीट से आम आदमी पार्टी उम्मीदवार आतिशी यहूदी हैं और उन्हें वोट न करें. आसिफ मोहम्मद ने कहा है, ‘’हमारा मजहब कहता है- हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई आपस में हैं सब भाई-भाई. लेकिन यहूदी की हिंदुस्तान में कोई जगह नहीं है. ये बात आपको घर-घर पहुंचानी है.’’


दिल्ली की राजनीति में भी जाति कार्ड की एंट्री


कांग्रेस नेता आसिफ मोहम्मद के इस बयान पर दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया भी जाति की राजनीति में फंस गए. उन्होंने कहा, ‘’मुझे दुःख है कि बीजेपी और कांग्रेस मिलकर आतिशी के धर्म को लेकर झूठ फैला रहे है. बीजेपी और कांग्रेस वालो! जान लो- 'आतिशी सिंह' है उसका पूरा नाम. राजपूतानी है. पक्की क्षत्राणी...झांसी की रानी है.’’


नेताओं के इन बयानों से एक बात साफ है कि जाति धर्म के नाम पर वोट हासिल करने की कोशिशों के साथ-साथ तमाम ऐसे मुद्दे पीछे छूट जाते हैं, जिनका सीधा सरोकार जनता से होना चाहिए. जाति और धर्म की राजनीति से जनता लगातार प्रताड़ित होती रही है. सबसे बड़ी बात यह है कि जब ऐसे मुद्दों पर बहस छिड़ जाती है तो शिक्षा, सुरक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, किसान और महिलाओं जैसे देश के तमाम गंभीर मुद्दे पीछे छूट जाते हैं.


खास बात ये है कि इस देश में ऐसी कई राजनीतिक पार्टियां हैं जो जाति आधारित मानी जाती हैं. एक खास जाति में उन पार्टियों की तूती बोलती है. इसमें मायावती की पार्टी बीएसपी, अखिलेश की पार्टी एसपी और लालू यादव की पार्टी आरजेडी अहम पार्टियां हैं जिसे किसी खास जाति की पैरोकार पार्टी के तौर पर जाना जाता है. हालांकि, हिंदी पट्टी के अलावा दूसरे राज्यों में भी ऐसी पार्टियों हैं जो जाति के आधार पर अपना वोट बैंक आधार बनाती हैं.


अब देश का दुर्भाग्य है कि आजादी के इतने साल बाद भी जाति की राजनीति वोट निर्धारित करती है. अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी और CSDS-लोकनीति के सर्वे में 55 फीसदी लोगों ने अपनी जाति के नेता को वोट देने की बात कही. 35 फीसदी ने कहा कि वो सिर्फ जाति के आधार पर वोट नहीं देंगे. केवल 10 फीसदी मतदाताओं ने जाति से हटकर वोट देने का दावा किया है. एक्सपर्ट की मानें तो यही पैटर्न पूरे देश में दोहराया जाता है.


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