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2019 के 19 मुद्दे | सीरीज-9: चुनावी मौसम में भी महिलाओं के मुद्दे नदारद, 23 साल से अटका है महिला आरक्षण बिल
देश की दोनों मुख्य पार्टियों के घोषणापत्रों में महिलाओं को सशक्त करने के लिए तमाम घोषणाएं की गई हैं. बावजूद इन मुद्दों को लेकर ना तो टीवी स्टूडियो और ना ही चुनावी सभा में कोई बहस देखने को मिलती है.
2019 के 19 मुद्दे: देश में लोकसभा चुनाव जारी है. राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों को छोड़ दें तो महिलाओं के मुद्दे चुनावी चर्चाओं से गायब हैं. चुनावी रैलियों, भाषणों और इंटरव्यू में पक्ष भी और विपक्ष भी महिलाओं के मुद्दों पर खामोश है. मानों देश में इस वक्त सिर्फ मंदिर-मस्जिद और देशभक्त-देशद्रोह ही अहम मुद्दे हो. ये हाल तब है जब लोकसभा चुनाव में देश की आधी आबादी यानी महिलाएं अहम भूमिका में हैं.
इस चुनाव में महिला आरक्षण, महिला सुरक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार समेत ऐसे तमाम मुद्दें हैं, जिनपर ध्यान देना बहुत जरूरी है. केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने पांच सालों के कार्यकाल में टॉयलेट निर्माण, एलपीजी गैस की सुविधा और बलात्कार के मामलों पर सख्ती जैसे कदम उठाए हैं. लेकिन सवाल वही है क्या इससे महिला सशक्त हुई हैं? क्या अब महिलाएं खुश हैं और क्या उनकी सभी जरूरतें पूरी हो चुकी हैं? क्या उनकी सभी समस्याओं का हल हो चुका है? लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि के तौर पर उनकी हिस्सेदारी अपनी आबादी के हिसाब से सम्मानजनक स्तर तक पहुंच चुकी है? अगर इन सवालों के जवाब ढूंढे जाएंगे तो यकीनन मायूसी ही हाथ आएगी.
बीजेपी ने महिलाओं को लेकर क्या वादे किए हैं?
महिलाओं के मुद्दों पर आगे बात करें उससे पहले आपको बताते हैं कि बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में महिलाओं के लिए क्या-क्या एलान किए हैं. बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में वादा किया है कि हम तीन तलाक, निकाह हलाला जैसी प्रथाओं को बैन और खत्म करने के लिए कानून बनाएंगे. इसके अलावा सभी आंगनबाड़ी और आशा कार्यकर्ता को आयुष्मान भारत योजना के तहत लाया जाएगा. सबसे बड़ी बात ये है कि बीजेपी ने अपने घोषणापत्र कहा है कि हम संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए प्रतिबद्ध हैं.
कांग्रेस ने महिलाओं को लेकर क्या वादे किए हैं?
कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में कहा है कि पार्टी राज्यसभा में संविधान संशोधन विधेयक पास कराकर, लोकसभा और राज्य विधान सभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान करेगी. इतना ही नहीं केन्द्र सरकार के सेवा नियमों में संशोधन करके केन्द्रीय नौकरियों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान करेंगे. वहीं कांग्रेस ने न्याय स्कीम का पैसा परिवार की महिलाओं के अकॉउंट में ट्रांसफर करने की भी बात कही है.
देश की दोनों मुख्य पार्टियों के घोषणापत्रों में महिलाओं को सशक्त करने के लिए तमाम घोषणाएं की गई हैं. बावजूद इन मुद्दों को लेकर ना तो टीवी स्टूडियो और ना ही चुनावी सभाओं में कोई बहस देखने को मिलती है. रही बात वादों की तो चुनावी मौसम में महिलाओं के लिए तमाम योजनाओं की घोषणा की गई, लेकिन जमीन पर कुछ ही योजनाओं को लागू किया गया. बाकि ठंडे बस्ते में डाल दी गईं.
महिला आरक्षण बिल की हकीकत
आपको याद दिला दें कि बीते 23 बरसों से महिला आरक्षण बिल बिल लोकसभा और राज्यसभा के बीच झूल रहा है. पहली बार 1996 में पेश होने के बाद 1998, 1999 और 2002 में ये संसद में पेश हुआ. साल 2010 में ये राज्यसभा में पास भी हो गया. लेकिन 9 साल बीत जाने के बाद भी इसे कानून की शक्ल नहीं मिल पाई. ये हाल तब है जब कांग्रेस और दूसरी बड़ी सियासी पार्टियां अपने चुनावी घोषणापत्र में हर बार महिला आरक्षण को लेकर बड़े-बड़े वादे करती हैं.
स्वास्थ्य को लेकर भी महिलाओं की जिंदगी से खिलवाड़
ये तो थी महिला आरक्षण बिल की बात. स्वास्थ्य को लेकर भी महिलाओं की जिंदगी से खिलवाड़ होता रहा है. हाल ही में नन्ही कली नाम के एक प्रॉजेक्ट में कहा गया कि देश में 50 फीसदी टीनएज लड़कियां अंडरवेट हैं, 52 परसेंट में खून की कमी है, 39 प्रतिशत खुले में शौच को मजबूर हैं और लगभग 46 परसेंट सैनिटरी पेड, टैम्पन या मैन्स्ट्रुएल कप्स का इस्तेमाल नहीं करतीं. स्वास्थ्य मंत्रालय के अपने आंकड़े कहते हैं कि देश में हर साल सर्वाइकल कैंसर के 60,000 मामले सामने आते हैं जिनमें से दो तिहाई का कारण मैन्स्ट्रुएल हाइजीन की कमी है.
अभी भी सुरक्षित नहीं हैं महिलाएं
महिलाओं को सुरक्षा देने का दावा ठोकने वाली सरकार इस मामले में भी नकारा साबित हुई हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, 2016 में पूरे देश में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के तीन लाख से भी ज्यादा मामले दर्ज किए गए. महिलाओं के खिलाफ सबसे अधिक अपराध उत्तर प्रदेश और फिर पश्चिम बंगाल में दर्ज किए गए. इतना ही नहीं नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के 2016 तक के आंकड़ों के मुताबिक, पुलिस के पास बलात्कार के मामले दर्ज कराने की संख्या साल 2008 के मुकाबले 2016 में दोगुनी हुई है.
महिलाओं को रोजगार के मुद्दे पर ऑक्सफेम इंडिया का कहना है कि देश में चार में से तीन औरतें घर से बाहर निकलकर काम नहीं करती और काम करने वाली औरतों को पुरुषों के मुकाबले 34 परसेंट कम मेहनताना मिलता है. आजादी के 70 साल बाद भी महिलाओं को बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है.
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