Rules for Symbol Allotment: बात लोकसभा चुनाव की हो या फिर विधानसभा चुनाव की, सभी में चुनाव चिह्न की भूमिका काफी अहम होती है. चुनाव चिह्न के आगे बटन दबाकर ही हम किसी भी प्रत्याशी को वोट देते हैं. राष्ट्रीय पार्टियां हों या छोटी पार्टियां या फिर निर्दलीय प्रत्याशी, सभी को एक चुनाव चिह्न दिया जाता है.
रजिस्टर्ड पार्टियों को जहां पहले से सिंबल मिला होता है तो वहीं निर्दलीय उम्मीदवारों को नॉमिनेशन प्रोसेस और चुनाव से कुछ दिन पहले यह चुनाव चिह्न मिल जाता है, लेकिन इसे लेने के लिए भी काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है. यहां हम आपको बता रहे हैं कि आखिर कैसे पार्टियों और उम्मीदवारों को चुनाव चिह्न मिलता है.
इस अधिकार के तहत चुनाव आयोग देता है सिंबल
भारत में चुनाव कराने से लेकर पार्टियों को मान्यता और उन्हें चुनाव चिह्न देने का काम चुनाव आयोग ही करता है. चुनाव आयोग को संविधान के आर्टिकल 324, रेप्रजेंटेशन ऑफ द पीपुल ऐक्ट 1951 और कंडक्ट ऑफ इलेक्शंस रूल्स 1961 के माध्यम से यह पावर मिलती है. निर्वाचन आयोग The Election Symbols (Reservation and Allotment) Order, 1968 के मुताबिक क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों को चुनाव चिन्ह आवंटित करने की पावर मिलती है.
इस प्रक्रिया के तहत चुनाव चिह्न का किया जाता है आवंटन
चुनाव आयोग के पास इस तरह के सिंबल की भरमार होती है. वह चुनाव चिह्नों के लिए दो लिस्ट बनाकर रखता है. पहली लिस्ट में वे सिंबल होते हैं, जिनका आवंटन पिछले कुछ साल में हुआ है, जबकि दूसरी लिस्ट में ऐसे सिंबल हैं जिनका आवंटन किसी को नहीं हुआ है. चुनाव आयोग अपने पास रिजर्व में कम से कम ऐसे 100 निशान हमेशा रखता है, जो अब तक किसी को नहीं दिए गए हैं. इनमें से ही किसी भी नए दल या फिर आजाद उम्मीदवार को चुनाव चिह्न दिया जाता है. हालांकि कोई दल अगर अपना चुनाव चिह्न खुद चुनाव आयोग को बताता है और वह सिंबल किसी के पास पहले से नहीं है तो आयोग उस पार्टी को उसे अलॉट कर देता है. वहीं राष्ट्रीय दलों को रिजर्व चुनाव चिह्न मिल जाता है.
राष्ट्रीय पार्टियों के रिजर्व चुनाव चिह्न नहीं होते दूसरे को अलॉट
राष्ट्रीय दलों जैसे कांग्रेस, बीजेपी, टीएमसी, आप को जो चुनाव चिह्न मिले हैं वो रिजर्व कैटेगरी में आते हैं. इन चिह्नों को किसी और को नहीं दिया जाता है. क्षेत्रीय दलों को भी अपने राज्य या इलाके के लिए फिक्स चुनाव चिह्न मिलता है, लेकिन जब वह किसी और राज्य में चुनाव लड़ने जाते हैं तो वह बदल भी सकता है. यह पहले से उसकी उपलब्धता पर निर्भर करता है. जैसे महाराष्ट्र में शिवसेना का चुनाव चिह्न भी तीर-कमान था, जबकि झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा का सिंबल भी यही है.
पशु और पक्षी से जुड़े चुनाव चिह्न भी नहीं किए जाते हैं आंटित
चुनाव आयोग तरह-तरह के सिंबल प्रत्याशियों को अलॉट करता है, लेकिन अब पशु-पक्षी से जुड़े सिंबल कैंडिडेट्स को नहीं दिए जाते. ऐसा एनिमल राइट्स एक्टिविस्ट्स के विरोध के बाद से हुआ है. पहले जब ऐसा सिंबल मिलता था, तो उक्त प्रत्याशी उस तरह के पशु या पक्षी को लेकर परेड कराने लगते थे. इसे क्रूरता माना गया था.
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