Pradhanmantri Series, Chaudhary Charan Singh: भारत के प्रधानमंत्री के कार्याकल की सूची में चौधरी चरण सिंह का नाम बहुत ही कम समय के लिए दर्ज है, लेकिन राजनीति और देश सेवा में उनका योगदान सुनहरे अक्षरों में अपनी जगह रखता है. वो भारत के इकलौते ऐसे नेता रहे हैं जिन्हें किसान अपना सबसे बड़ा नेता मानते हैं. इमरजेंसी के बाद 1977 में हुए आम चुनाव में जनता गठबंधन की तरफ से चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे. दलित नेता जगजीवन राम की पीएम बनने की बढ़ती संभावना देखते हुए उन्होंने अपनी दावेदारी वापस ली और इस तरह मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बन गए. लेकिन इन तीनों दिग्गज नेताओं में मतभेद के चलते मोरारजी की सरकार जल्द ही गिर गई और फिर चरण सिंह कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बने. इसके लिए उनकी जमकर किरकिरी भी हुई. एक महीने में ही उन्हें इस्तीफा भी देना पड़ा. भारतीय राजनीति में चौधरी चरण सिंह के नाम ऐसे प्रधानमंत्री का रिकॉर्ड बना, जिन्हें पद पर रहते कभी संसद का सामना नहीं करना पड़ा. आज प्रधानमंत्री सीरिज में जानते हैं चौधरी चरण सिंह के पीएम बनने की कहानी.


मोरारजी देसाई की सरकार गिरी


1977 में इंदिरा सरकार को उखाड़ फेंकने के बाद गठबंधन की सरकार तो बन गई लेकिन कोई भी नंबर दो पर काम करने को तैयार नहीं था. मोरारजी की कैबिनेट में चरण सिंह और जगजीवन राम उप-प्रधानमंत्री बने. जगजीवन राम को रक्षा मंत्रालय मिला वहीं चरण सिंह को गृह मंत्रालय दिया गया. लेकिन इन तीनों नेताओं की आपस में बिल्कुल भी नहीं बनती थी. मोरारजी देसाई के बारे में चरण सिंह की राय थी कि वे Do-Nothing प्राइम मिनिस्टर हैं. उनकी शिकायत थी कि मोरारजी खुद फैसला लेते थे और किसी की सुनते नहीं थे.



चरण सिंह का कहना था कि गृह मंत्रालय अपने पास होते हुए भी वो उत्तर प्रदेश में किसानों, खासकर गन्ना किसानों के मूल्य को लेकर कुछ नहीं कर पा रहे थे. वहीं, इस मामले में मोरारजी को लगता था कि चरण सिंह अपनी पार्टी के लिए यूपी के किसानों से पैसे वसूलेंगे और वो अपने व्यक्तिगत हित के लिए किसानों का पक्ष ले रहे हैं.


दोनों नेताओं में इस कदर मतभेद थे कि दोनों का साथ काम करना मुश्किल हो गया था. 24 मार्च, 1978 को सीसीएस को दिए एक इंटरव्यू में चरण सिंह ने कहा था कि मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बनने की रेस में थे ही नहीं और ना ही उन्हें कोई सपोर्ट कर रहा था.


किसी ना किसी मुद्दे पर चरण सिंह और मोरारजी देसाई में तल्खी जारी रही. इमरजेंसी को लेकर इंदिरा गांधी को जेल भेजने के मुद्दे पर भी चरण सिंह और मोरारजी देसाई की राय अलग थी. मोरारजी चाहते थे कि इंदिरा गांधी को सजा देने के लिए वही कानूनी प्रावधान अपनाएं जाएं जो पहले से हैं. वहीं चरण सिंह किसी भी हाल में इंदिरा को जेल भेजना चाहते थे. चरण सिंह ने इंदिरा गांधी को जेल भेजकर ही दम लिया लेकिन बाद में इसका भी भारी नुकसान उन्हें ही उठाना पड़ा. जबकि जेल जाने की वजह से इंदिरा गांधी को लेकर लोगों के मन में सहानुभूति पैदा हुई.


इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब India After Gandhi में लिखा है, "इंदिरा गांधी को गिरफ्तार करने के पीछे जनता खेमे में आपसी प्रतिद्ंविता भी काम कर रही थी. गृहमंत्री चरण सिंह मोरारजी के कैबिनेट में नबंर दो की हैसियत से काम करने को तैयार नहीं थे. वो खुद इंदिरा गांधी को गिरफ्तार करके राजनीति का केंद्र बिंदु बनना चाहते थे. ''


रामचंद्र गुहा ने ये भी लिखा है, "सच्चाई तो ये है कि जो लोग सत्ता में थे वो खुद इमरजेंसी के दौरान ज्यादतियों को झेल चुके थे लेकिन अब बदला लेने को ऊतारू थे. ये लोग ढंग से सरकार चलाने की बजाए एक व्यक्ति विशेष के खिलाफ लगे हुए थे.’’


मतभेदों के बीच चरण सिंह ने मोरारजी देसाई के बेटे कांति देसाई पर भी गंभीर आरोप लगाए. इससे नाराज होकर 1978 में मोरारजी देसाई ने चरण सिंह को अपनी कैबिनेट से बाहर कर दिया. साथ ही राजनारायण को भी बर्खास्त कर दिया.


इसके बाद चरण सिंह ने दिसंबर, 1978 में रैली के जरिए अपनी ताकत दिखाई और फिर से फरवरी 1979 में वित्त मंत्री बने. लेकिन ये साथ ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाया.



इस टकराव के अलावा उस समय जनसंघ के सदस्यों अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी जैसे नेताओं की ‘दोहरी सदस्यता’ भी जनता पार्टी के लिए मुसीबत बनी. इसका मतलब ये था कि जनसंघ के सदस्य एक ही समय में जनता पार्टी के सदस्य भी थे और आरएसएस के साथ भी उन्होंने अपना रिश्ता खत्म नहीं किया था. जनता पार्टी ने अटल और आडवाणी सहित सभी ऐसे नेताओं से कहा कि वो जनता पार्टी और आरएसएस में से किसी एक के साथ रहें. इसके बाद भारतीय जनसंघ के सभी नेताओं ने पार्टी और अपने पद दोनों से इस्तीफा दे दिया.


इस वाकये का जिक्र लालू प्रसाद यादव ने अपनी बायोग्राफी 'गोपालगंज से रायसीना' में भी किया है. उन्होंने लिखा है, ‘’मैंने दोहरी सदस्यता का मुद्दा उठाना शुरु किया. जेपी ने सुझाव दिया था कि आरएसएस के साथ जुड़े जनसंघ के सदस्यों को अपनी जन्मदाता पार्टी से खुद को अलग कर लेना चाहिए और जनता पार्टी को उदार, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोगों से जुड़ाव रखने वाली पार्टी के तौर पर अपनाना चाहिए. लेकिन जनसंघ ब्लॉक ने आरएसएस के साथ अपना संबंध खत्म करने से इंकार कर दिया.’’ लालू ने ये भी लिखा है कि दोहरी सदस्यता के झगड़े ने मोरारजी देसाई के पतन में योगदान दिया.


इसके बाद सभी सोशलिस्टों ने सदन में अलग बैठन का फैसला लिया और जुलाई 1979 में मोरारजी देसाई की सरकार अल्पमत में आ गई और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा.



(मोरारजी देसाई)

मोरारजी देसाई की कैबिनेट में क़ानून मंत्री बने शाँति भूषण अपनी आत्मकथा 'कोर्टिंग डेस्टेनी' (Courting Destiny: A Memoir) में लिखा है कि 1978 में हर तरफ ये चर्चा थी कि चरण सिंह सरकार का तख़्ता पलटने वाले हैं. उन्होंने लिखा है कि उन दिनों चुनाव सुधार पर एक मंत्रिमंडलीय समिति का गठन किया गया था जिसके सदस्य थे चरण सिंह, लालकृष्ण आडवाणी, प्रताप चंद्र चुंद्र और वो खुद थे.


उनके मुताबिक, ‘’इस समिति की बैठक में एक दिन चरण सिंह देर से पहुंचे और फिर वो बताने लगे कि उन्हें देर क्यों हुई. दरअसल, जब वो कार में बैठ रहे थे तो एक पत्रकार ने सवाल पूछ लिया कि क्या आप प्रधानमंत्री बनने के लिए बहुत तत्पर हैं? इस पर चरण सिंह को ग़ुस्सा आ गया और वो बोले कि प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा रखने में क्या बुराई है. उन्होंने उस पत्रकार से ही सवाल कर डाला कि क्या तुम एक अच्छे अख़बार के संपादक बनना नहीं पसंद करोगे? और अगर तुम ऐसा नहीं सोचते तो तुम्हारा जीवन निरर्थक है.’’



आगे उन्होंने ये भी कहा, ''मैं एक दिन इस देश के प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा ज़रूर रखता हूँ. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि मैं मोरारजी देसाई को उनके पद से हटाने की साजिश रच रहा हूं.’’ चरण सिंह इतने पर नहीं रुके बल्कि उन्होंने ये भी कह दिया कि एक दिन मोरारजी देसाई मरेंगे और तब मैं प्रधानमंत्री बन जाऊं तो इसमें बुराई क्या है.’’


प्रधानमंत्री बनने के बाद झेलनी पड़ी आलोचना


मोरारजी की सरकार गिरने के बाद चरण सिंह ने वो कदम उठाया जिसकी वजह से उनकी काफी आलोचना हुई. जिस इंदिरा गांधी के खिलाफ नारा देकर उन्होंने चुनाव लड़ा था उन्हीं की पार्टी से समर्थन लेकर चरण सिंह ने सदन में बहुमत साबित किया. 28 जुलाई, 1979 को चौधरी चरण सिंह समाजवादी पार्टियों और कांग्रेस (यू) के समर्थन से भारत के पांचवें प्रधानमंत्री बने.


इसके साथ ही जनता पार्टी टूट गई. लालू ने अपनी बायोग्राफी में लिखा है, ''इसके साथ ही पहला जनता प्रयोग विफल हो गया और जेपी के सपने को झटका लगा. जिस व्यक्ति का हमने दिल और आत्मा से विरोध किया था, इंदिर गांधी और उनकी पार्टी, कांग्रेस ने दिल्ली में सत्ता में नाटकीय वापसी की.''


इसी बीच, अक्टूबर 1979 में जेपी का निधन भी हो गया.


एक महीने में गिरी चरण सिंह की सरकार


चरण सिंह के पीएम बनने के वक्त हिम्मत मैगजीन ने ये खबर छापी कि इस हालात में इंदिरा गांधी ही एकमात्र नेता हैं जो मध्यावधि चुनाव चाह रही हैं. इस चुनाव से उन्हें ज्यादा फायदा मिलेगा. उनके  हित में यही है कि चरण सिंह प्रधानमंत्री बनें लेकिन वे उस पद पर दो-तीन महीनों से ज्यादा ना रहें. ठीक ऐसा ही हुआ. शपथ लेने के ठीक एक महीने बाद कांग्रेस (I) ने अपना समर्थन वापस ले लिया.


इसके बाद चरण सिंह को इस्तीफा देना पड़ा. उन्होंने बाद में कहा कि वो इंदिरा गांधी से ब्लैकमेल नहीं होना चाहते थे इसलिए इस्तीफा दे दिया. इसके बाद राष्ट्रपति के पास मध्यावधि चुनाव ही विकल्प दिका. कुछ ही दिनों में फिर 6ठीं लोकसभा भंग हो गई और मध्यावधि चुनाव का ऐलान हो गया. चुनाव आयोग को चुनाव की तैयारियों के लिए समय चाहिए था, इसलिए करीब 6 महीनों तक चरण सिंह ही प्रधानमंत्री बने रहे.



प्रोफेसर पॉल आर. ब्रास ने अपनी किताब An Indian Political Life: Charan Singh and Congress Politics, 1967-1987 में लिखा है कि उस वक्त राष्ट्रपति ने चरण सिंह को मोरारजी देसाई के साथ समर्थन लेकर एक स्थायी सरकार बनाने की भी सलाह दी थी, लेकिन इसे चरण सिंह ने नहीं माना. चरण सिंह चाहते थे कि चुनाव हो. ब्रास ने लिखा है, ''चरण सिंह ने तब राष्ट्रपति से ये भी कहा था कि उनके पास सदन में 295 सांसदों का समर्थन प्राप्त है जिसमें से 97 जनता(एस) से थे.''


1980 के आम चुनाव में सबसे बड़ा झटका खुद चरण सिंह को लगा. जनता पार्टी और जनता पार्टी सेक्युलर 41 और 31 सीटों पर ही सिमट गईं. वहीं, इमरजेंसी के महज तीन सालों में ही कांग्रेस को जनता ने 351 सीटों के साथ बंपर जीत दी. इस चुनाव में इंदिरा गांधी ने लोगों  से इस आधार पर वोट मांगा कि सिर्फ वही स्थाई सरकार दे सकती हैं. वहीं, जनता पार्टी के आपसी मतभेद की वजह से उन्हें भारी नुकसान हुआ. उस वक्त ऐसी खबरें छपीं कि इंदिरा गांधी की तो एक आरोपित छवि है लेकिन जनता पार्टी के नेताओं की तो कोई छवि ही नहीं है.


इसके बाद 1980 में एक बार फिर इंदिर गांधी प्रधानमंत्री बन गईं.


चरण सिंह के बारे में-


आज भी जब किसानों की बदहाली और उनकी दिक्कतों के सवाल अनसुने किए जाते हैं तो बर्बस ही चौधरी चरण सिंह की कमी जुबां पर आ जाती है. दिलचस्प बात ये है कि चौधरी चरण सिंह न सिर्फ किसान के हितों की बात करते थे, बल्कि वो देश में सामाजाकि परिवर्तन की वकालत करने वालों में अग्रणी थे. एक वक्त में उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू से कहा कि लोकसेवा में उन अधिकारियों को उन्नति दी जाए जो सामाजिक परंपराओं को तोड़कर शादी-ब्याह करते हैं.



चौधरी चरण सिंह का जन्म 23 दिसंबर 1902 को ब्रिटिश भारत के नूरपूर (अब यूपी, जिला गाजियाबाद) में एक जाट परिवार में हुआ था. चरण सिंह ने आगरा विश्विद्यालय से कानून की पढ़ाई की.


1929 में चरण सिंह ने राजनीति में कदम रखा. उन्होंने 1929 में ही गाजियाबाद में कांग्रेस कमेटी का गठन किया. महात्मा गाँधी द्वारा सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भी उनकी अहम भूमिका रही. उन्हें इस मामले में 6 महीने जेल की सजा भी हुई.


जेल से बाहर आने के बाद चरण सिंह पूरी तरह स्वतंत्रता आंदोलन में जुट गए.



चरण सिंह 3 अप्रैल 1967 से 25 फरवरी 1968 तक यूपी के मुख्यमंत्री रहे.  इसके बाद वो 18 फरवरी 1970 से एक अक्टूबर 1970 तक फिर यूपी मुख्यमंत्री बने. 24 मार्च 1977 से एक जुलाई 1978 तक गृहमंत्री रहे. 24 मार्च 1977 से 28 जुलाई 1979 तक उप-प्रधानमंत्री रहे. 24 जनवरी 1979 से 28 1979 तक वित्त मंत्री भी रहे.


28 जुलाई 1979 से 14 जनवरी 1980 तक प्रधानमंत्री रहे.


उन्होंने कई किताबें भी लिखीं. 'अबॉलिशन ऑफ जमींदारी', 'लिजेंड प्रोपराइटरशिप' और 'इंडियाज पोवर्टी एंड इट्स सोल्यूशंस' उनकी लिखी मुख्य किताबें हैं.



परिवार के साथ चौधरी चरण सिंह

चरण सिंह की शादी गायत्री देवी से हुई थी. उनके 6 बच्चे थे. उनके बेटे अजित सिंह राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष हैं. अजित सिंह के बेटे जयंत चौधरी भी राजनीति में है.


 28 मई 1987 को चरण सिंह का निधन हो गया.


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