2019 के 19 मुद्दे | सीरीज- 8: पांच साल में दर्जनों बार सड़कों पर उतरे दलित लोकसभा चुनाव में किस तरफ खड़े हैं?
2019 के 19 मुद्दे | सीरीज- 8: रोहित वेमुला की आत्महत्या से लेकर एससी-एसटी एक्ट को लेकर हुए आंदोलन तक विपक्ष ने मोदी सरकार को दलित विरोधी बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी.
नई दिल्ली: राष्ट्रवाद, विकास से होते हुए चुनावी फ़िजा में जाति का रंग घुल चुका है. तीन चरणों की वोटिंग के बाद पिछड़ा-अति पिछड़ा, दबे-कुचले वर्ग का बताने की होड़ सी लगी है. नजर उनके बड़े वोट बैंक पर है. देशभर में करीब 16 प्रतिशत दलित आबादी है, जो किसी की हार और किसी की जीत तय करती है. तो मौजूदा लोकसभा चुनाव में दलितों का रुख किस पार्टी की तरफ है?
दरअसल, 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले तक उत्तर प्रदेश को छोड़ दें तो दलित कांग्रेस के परंपरागत वोटर रहे हैं. लेकिन 2014 में बाजी पलट गई, दलितों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भरोसा जताया और बीजेपी ने पूर्ण बहुमत से सरकार बनाई. सालों साल तक दलित राजनीति के केंद्र में रहीं मायावती की पार्टी बीएसपी खाता तक नहीं खोल पाई. लेकिन क्या इस चुनाव में भी दलित बीजेपी या कहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भरोसा जताएंगे?
यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि पिछले पांच सालों में बीजेपी शासित राज्यों में ऊना, भीमा कोरेगांव जैसी घटना हुई. आरक्षण को कमजोर करने के आरोप लगे. दलितों की रक्षा करने वाला कानून कमजोर हुआ. शादी में घोड़ी चढ़ने के लिए कोर्ट से लेकर स्थानीय प्रशासन तक महीनों चक्कर लगाने पड़े. रोहित वेमुला को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ा. लेकिन यहां यह ध्यान रखना जरूरी है कि इस तरह की घटना पहली की सरकारों में भी खूब हुई है.
दरअसल, जनवरी 2016 में हैदराबाद यूनिवर्सिटी के छात्र रोहित वेमुला ने खुदकुशी कर ली. वेमुला की मौत ने पूरे देश को हिला दिया और यहीं से केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ दलित संगठन एकजुट होने लगे. संसद में विपक्षी पार्टियों ने रोहित वेमुला को दलित बताते हुए तब की शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी और केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय को घेरा.
यह मामला ठंडा भी नहीं पड़ा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृहराज्य गुजरात के ऊना में कम से कम चार दलित युवकों को उच्च जाति के लोगों ने बदन से कपड़े उतारकर और गाड़ी से बांधकर पिटाई कर दी. इन युवकों का गुनाह सिर्फ इतना था कि ये मरी हुई गाय का खाल निकाल रहे थे. इसी दौरान कथित गौ रक्षकों ने उन्हें पकड़ लिया. परंपरागत तौर पर दलितों का एक वर्ग चमड़े का काम करता रहा है.
पिटाई का वीडियो वायरल होते हुए हंगामा खड़ा हो गया. विपक्षी पार्टियों को बड़ा मुद्दा मिल गया. संसद कई दिन बाधित रहा. विपक्ष ने बीजेपी की सरकार पर दलित विरोधी होने के आरोप लगाए. ऊना के बाद दलितों ने गुजरात में आंदोलन किया जिसका नेतृत्व जिग्नेश मेवाणी कर रहे थे. जिग्नेश ने जमकर कन्हैया कुमार का प्रचार-प्रसार किया और कई दिन तक बेगूसराय में डटे रहे. जिग्नेश गुजरात से निर्दलीय विधायक हैं.
उना के बाद भी कई बार कथित गो रक्षकों ने दलितों को निशाना बनाया. इंडिया स्पेंड वेबसाइट की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2012 से 2018 तक लिंचिंग के शिकारों में करीब 10 प्रतिशत दलित वर्ग से रहे हैं.
तब दलितों के खिलाफ बढ़े अत्याचार पर खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बयान दिया. उन्होंने कहा, "यदि हमला करना है तो मुझ पर करो, दलितों पर नहीं, यदि गोली मारनी है तो मुझे मारें." यही नहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उसके बाद कई मौकों पर संविधान निर्माता डॉ भीमराव अंबेडकर का जोर-शोर से जिक्र किया. अंबेडकर को दलित विशेषतौर पर आइडियल मानते हैं.
इन सब के बीच उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में दलित और राजपूत समुदाय के बीच डीजे बजाने को लेकर विवाद शुरू हुआ, हिंसा हुई और कई दिनों तक तनाव की स्थिति बनी रही. इस मामले में उत्तर प्रदेश ने दलित कार्यकर्ता और भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आजाद को गिरफ्तार किया. उन्होंने आरोप लगाया कि पुलिस एकतरफा कार्रवाई कर रही है.
जिग्नेश मेवाणीदलितों में ऊबाल बढ़ता गया. 31 दिसंबर 2017 और 1 जनवरी 2018 की रात को महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में दलित और मराठा का एक वर्ग आमने-सामने आ गया. एक की मौत भी हुई. इसपर महीनों विवाद चलता रहा. बाद में महाराष्ट्र पुलिस ने मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज समेत कई लोगों को गिरफ्तार किया. दलित संगठनों ने आरोप लगाया कि संभाजी भिंडे को गिरफ्तार करने की बजाय पुलिस दलितों के लिए काम करने वालों को गिरफ्तार कर रही है.
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भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में भीमराव अंबेडकर के पोते प्रकाश अंबेडकर की भूमिका की भी जांच हो रही है. महाराष्ट्र में प्रकाश अंबेडकर की पार्टी वंचित बहुजन अघाड़ी बनाकर चुनाव लड़ रही है. अंबेडकर की दलितों में पकड़ मानी जाती है.
इन सब के बीच सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश में एससी/एसटी एक्ट के दुरुपयोग का जिक्र करते हुए तुरंत गिरफ्तारी के प्रावधान को हटा दिया. फिर क्या था विपक्ष को चुनाव से ठीक एक साल पहले बड़ा मुद्दा मिल गया. कांग्रेस, बीएसपी समेत तमाम पार्टियों और दलित संगठनों ने मोदी सरकार पर एससी-एसटी एक्ट को कमजोर करने के आरोप लगाए. यही नहीं तब बीजेपी की सांसद रहीं सावित्री फूले, उदित राज ने खुलकर एससी-एसटी एक्ट के पक्ष में वकालत की. आज दोनों ही नेता कांग्रेस में हैं. एनडीए के सहयोगी दलों रामविलास पासवान की एलजेपी और रामदास अठावले की आरपीआई ने सार्वजनिक मंचों से एससी-एसटी एक्ट को बहाल करने की मांग की.
2 अप्रैल 2018 को दलित सड़कों पर उतर आए. इस दौरान दूसरे वर्ग के लोगों से झड़पें हुई. सबसे अधिक तनाव की स्थिति मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र में थी. हिंसा में कम से कम 13 लोगों की मौत हो गई. अंतत: मोदी सरकार को एससी-एसटी एक्ट के पुराने रूप को बहाल करना पड़ा.
विपक्षी पार्टियों ने 13 प्वाइंट रोस्टर का मुद्दा भी उठाया और इसकी जगह यूनिवर्सिटी में पुराने 200 प्वाइंट रोस्टर लागू करने की मांग की. सरकार को मजबूरन विपक्षी पार्टियों की मांगें माननी पड़ी.
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इन सब के बीच मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ राजस्थान, तेलंगाना समेत कई राज्यों में चुनाव हुए. इन चुनावों में दलित समुदाय का मुद्दा महत्वपूर्ण साबित हुआ. विपक्षी पार्टियों ने इन चुनावों में मोदी सरकार को दलित विरोधी बताने की कोशिश की. वहीं बीजेपी ने भी अपनी तरफ से उठाए गए कदमों का जिक्र किया.
अब एक बार फिर देशभर में चुनाव हो रहे हैं. अब 23 मई को परिणाम के बाद देखना दिलचस्प होगा कि दलितों के वोटिंग पैटर्न पर कोई असर पड़ा है या नहीं?