प्रधानमंत्री पद का ख्वाब लिए इस बार बाज़ी पलटने को तैयार हैं मायावती, कांग्रेस-बीजेपी दोनों की बढ़ेगी मुसीबत
Election 2019: गठबंधन की राजनीति के दौर में जब अचानक महागठबंधन की बात की जाने लगे तो इसके साफ संकेत हैं कि क्षेत्रीय दलों के अच्छे दिन आने वाले हैं. दरअसल देश के चुनावी समीकरण में बदलाव आ चुका है. राष्ट्रीय पार्टियां राज्यों में सहारा खोज रहीं हैं.
नई दिल्ली: अगले कुछ महीनों में देश को नई सरकार मिलने वाली है. साल 2014 में चलने वाली मोदी लहर इस बार क्या गुल खिलाती है, इसको देखने के लिए अभी इंतज़ार करना होगा. चुनाव के करीब आने की वजह से इस वक्त राजनीतिक सरगरमियां अपने चरम पर हैं. लेकिन साल 2019 का चुनाव कई मायनों में अलग साबित होने वाला है. पहली बात तो ये कि इस बार का चुनाव दो ध्रुवो - कांग्रेस और बीजेपी के इर्द गिर्द नहीं घूमेगा, बल्कि इस चुनाव में एक तीसरा ध्रुव भी है, जिसके सबसे अहम साबित होने के कयास लगाए जा रहे हैं. इस तीसरे ध्रुव के कई खिलाड़ी हैं. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, बिहार में तेजस्वी यादव, आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू, ओडिशा में नवीन पटनायक, दिल्ली में अरविंद केजरीवाल, महाराष्ट्र में शरद पवार और यूपी में अखिलेश यादव-मायावती जैसे नेता. इनमें कई प्रमुख भी हैं, मगर जिस नेता को इस तीसरे ध्रुव का सबसे बड़ा खिलाड़ी माना जा रहा है वो हैं बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष कुमारी मायावती.
‘2019 की 19 महिलाएं’ सीरीज़ में आज हम बात करे रहे हैं भारतीय दलित राजनीति की सबसे बड़ी नेता मायावती के बारे में.
गठबंधन की राजनीति के दौर में जब अचानक महागठबंधन की बात की जाने लगे तो इसके साफ संकेत हैं कि क्षेत्रीय दलों के अच्छे दिन आने वाले हैं. दरअसल देश के चुनावी समीकरण में बदलाव आ चुका है. राष्ट्रीय पार्टियां राज्यों में सहारा खोज रहीं हैं. ऐसे में बीएसपी की मुखिया मायावती जो देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में बेहद मज़बूती के साथ चुनाव लड़ती आईं हैं, उनका दिल्ली की तरफ नज़रें घुमाना लाज़िमी है. इस बार मायावती सारे गिले शिकवे भुलाकर समाजवादी पार्टी के साथ यूपी में लोकसभा के रण में उतर रही हैं. अखिलेश यादव से उनका ये गठबंधन उनके प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को और मज़बूत करता है. 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में मायावती 38 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी.
मायावती के भारत की प्रधानमंत्री बनने की संभावना पर दलित मामलों पर गहरी नजर रखने वाले जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अनवर पाशा कहते हैं, “भारत की ये विडंबना है कि आज़ादी के इतने सालों के बाद भी हमारा लोकतंत्र इतना परिपक्व नहीं हो पाया है कि कोई दलित राष्ट्र का प्रधानमंत्री बन सके.”
प्रोफेसर पाशा का कहना है कि हम बाबा साहेब आंबेडकर की उस सोच तक अभी नहीं पहुंच पाए हैं, जो सोच हमारे संविधान का आधार है, यानि समानता पर आधारित. उन्होंने कहा, “हम आज भी जीवन के हर क्षेत्र में सवर्णों का ही वर्चस्व देखते हैं. क्या मायावती में प्रधानमंत्री बनने की क्षमता नहीं है? मेरे विचार में हमारे देश में सही मायनों में लोकतंत्र तभी परिपक्व होगा, जब एक दलित समाज से आने वाला और बाबा साहेब के विचारों में दृढ़ विश्वास रखने वाला व्यक्ति प्रधानमंत्री बनेगा, चाहे महिला हो या पुरुष.”
प्रोफेसर पाशा का कहना है कि मायावती ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के तौर पर ये साबित किया है कि उनसे ज़्यादा कुशल मुख्यमंत्री यूपी को कभी नहीं मिल सका. निश्चित रूप से वो एक कुशल प्रधानमंत्री साबित होंगी. उन्होंने ये भी कहा कि अगर कांग्रेस की समर्थन वाली सरकार बनती है, तो इस स्थिति में सबसे ज्यादा अगर किसी के प्रधानमंत्री बनने की संभावना है, तो वो मायावती ही हैं.
केंद्र में दलित नेतृत्व की ज़रूरत पर ज़ोर देते हुए अनवर पाशा कहते हैं, “सवर्ण जिनकी संख्या 15-20 प्रतिशत से अधिक नहीं है वो 80 प्रतिशत बहुजनों पर हुकूमत करने में कामयाब है. इस परिस्थिति को बदलने के लिए केंद्र में मज़बूत दलित नेतृत्व की ज़रूरत है.”
राजनीति में कितना ऊंचा है मायावती का कद ? कभी आईएएस बन कर अपने समुदाय की बेहतरी के लिए काम करने का ख्वाब देखने वाली मायावती की ज़िंदगी बेहद दिलचस्प रही है. दिल्ली में 15 जनवरी 1956 को पैदा हुईं और पली बढ़ी मायावती पढ़ने लिखने में काफी तेज़ थीं. मायावती बचपन से ही संविधान निर्माता डॉ भीमराव आंबेडकर को अपना आदर्श मानती थीं. यही वजह थी कि वो पढ़ लिखकर अपने समुदाय के लिए काम करना चाहती थीं. लेकिन दलित नेता कांशीराम के कहने पर वो राजनीति में उतरीं और अपने कड़े संघर्ष और कुछ करने की ज़िद की बदौलत वो दलितों की सबसे बड़ी नेता बन गईं.
मायावती का अखिलेश यादव के साथ गठबंधन करना वजूद बचाने की मजबूरी है या फिर कुछ और ? इस सवाल पर प्रोफेसर अनवर पाशा कहते हैं, “इस वक्त देश की जो स्थिति है, उसमें अपने राजनीतिक वजूद से ज्यादा देश के वजूद को बचाने की चुनौती है. जिस तरह भय, नफरत और अराजकता कि स्थिति बनी हुई है, वो हमारे संविधान और प्रजातंत्र दोनों के लिए खतरा है. खासतौर से समाज का कमज़ोर तबका खुद को असुरक्षित और असहाय महसूस कर रहा है. मायावती और अखिलेश यादव दोनों के सामने देश को इस दशा से बाहर निकालने कि चिंता ज्यादा है. इन दोनों पार्टियों के साथ आने से मौजूदा राजनीतिक माहौल पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है.”
अनवर पाशा का मानना है कि इस बार के लोकसभा चुनाव में बीएसपी और एसपी का गठबंधन निश्चित रूप से चमत्कार कर के दिखाएगा.
बीएसपी सुप्रीमो मायावती चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रही हैं:-
- चर्चित गेस्ट हाउस कांड के एक दिन बाद 3 जून 1995 को मायावती पहली बार बीजेपी के समर्थन से देश के सबसे बड़े राज्य यूपी की मुख्यमंत्री बनीं. ये एक ऐतिहासिक घटना थी क्योंकि देश में पहली बार कोई दलित महिला नेता किसी राज्य के मुख्यमंत्री पद पर आसीन हुई थीं. हालांकि वो लगभग चार महीने तक ही सरकार चला पाईं.
- मार्च 1997 में दोबारा बीजेपी के समर्थन से सीएम बनीं. (इस बार 6 महीने तक मुख्यमंत्री रहीं)
- मई 2002 में तीसरी बार भी बीजेपी की ही मदद से सीएम बनीं. लेकिन 26 अगस्त 2003 में एनडीए से विवादों के बाद खुद ही सरकार गिरा दी.
- तीन बार गठबंधन की सरकार में थोड़े थोड़े वक्त तक मुख्यमंत्री बनने के बाद आखिरकार पहली बार साल 2007 में अपने दम पर बहुमत (206 सीटे) हासिल करके मायावती ने सूबे में सरकार बनाई और चौथी दफा यूपी की मुख्यमंत्री बनीं.
कांग्रेस को गठबंधन से बाहर रखने के सवाल पर प्रोफेसर पाशा कहते हैं, “निश्चित रूप से अगर कांग्रेस साथ होती तो एक आदर्श स्थिति होती. लेकिन मायावती और अखिलेश दोनों दूरदर्शी हैं. दोनों ही ये बेहतर तरीके से समझते हैं कि इस गठबंधन में कांग्रेस के शामिल होने से क्या फायदा हो सकता है और क्या नुकसान. हालांकि ये भी सही है कि देशव्यापी स्तर पर कांग्रेस सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है और बीजेपी को चुनौती देने की स्थिति में है. मगर ये भी एक सच्चाई है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का पार्टी तंत्र बेहद कमज़ोर है. 2014 और 2017 के नतीजे इस बात के सुबूत हैं कि यूपी में कांग्रेस का कोई जनाधार नहीं बचा है.”
प्रोफेसर अनवर पाशा का कहना है कि यूपी में कांग्रेस और बीजेपी का मज़बूत होना एसपी और बीएसपी के जनाधार को कमज़ोर करेगा. उन्होंने कहा कि शायद ये भी एक बड़ी वजह है कि वो इन पार्टियों को साथ नहीं रखना चाहते. हालांकि अनवर पाशा केंद्र में सरकार बनाने के लिए कांग्रेस के रोल को भी अहम मानते हैं.
लोकसभा और राज्यसभा भी पहुंचीं हैं मायावती
- राजनीति में एंट्री लेने के पांच साल बाद ही 1989 में मायावती बिजनौर लोकसभा सीट से भारी मतों से सांसद चुनी गईं.
- 1994 में मायावती पहली बार राज्यसभा सांसद बनीं.
- 1998 में मायावती दूसरी बार लोकसभा पहुंची. इस बार उन्होंने अकबरपुर सीट से चुनाव जीता.
- एक साल बाद 1999 में मायावती एक बार फिर लोकसभा का चुनाव जीतीं.
- बीएसपी की राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के एक साल बाद 2004 के लोकसभा चुनाव में मायावती ने चौथी बार जीत का परचम लहराया.
- हालांकि कुछ महीने बाद ही मायावती ने लोकसभा की सदस्यता छोड़ दी और दूसरी बार राज्यसभा सांसद बनीं.
- 2012 में यूपी की सत्ता गंवाने के बाद फिर से राज्यसभा का रुख किया, लेकिन कार्यकाल खत्म होने से करीब 9 महीने पहले ही बीजेपी के विरोध में 18 जुलाई 2017 को इस्तीफा दे दिया.
अखिलेश के साथ गठबंधन में जाकर मायावती ने बीजेपी के लिए यूपी में क्या वाकई बड़ी मुश्किलें खड़ी कर दी हैं ? इस पर प्रोफेसर पाशा दो टूक कहते हैं कि इस गठबंधन से सबसे ज्यादा चिंता अगर किसी को है तो वो बीजेपी को है. उन्होंने बताया, “2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव, दोनों में बीजेपी अपने चरम पर थी. जबकि दोनों चुनावों में बीएसपी और एसपी के वोटों को अगर मिला दें तो उनका वोट प्रतिशत बीजेपी से ज्यादा हो जाता है.”
अनवर पाशा ने कहा कि इस बार केंद्र और राज्य दोनों जगह लोगों ने बीजेपी की सरकार को देख लिया है. इस बार निश्चित तौर पर बीजेपी को एंटी इनकंबेंसी (सत्ता विरोधी लहर) का सामना करना होगा.