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मोदी लहर के बीच क्या केजरीवाल की लोकप्रियता बढ़ गई? पंजाब में AAP की जीत के क्या हैं मायने?

आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल एक ऐसे नेता हैं जिनकी चमक मोदी के विशाल अभामंडल के बीच भी अलग से दिख रही है. सिर्फ 10 साल के अंदर पार्टी खड़ी कर दो राज्यों में सरकार बना लेना अभूतपूर्व है.

देश के पांच में से चार राज्यों में फिर से बीजेपी की सरकार बनने से ये साबित हो गया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का खुमार अभी भी सिर चढ़कर बोल रहा है. ये कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि देश के एक बड़े वर्ग के लिए वो फादर फिगर यानी पिता तुल्य हैं. लोगों को उन पर अटूट विश्वास है. पीएम मोदी की इस आभा के बीच देश में किसी और नेता का चमकना आसान नहीं है. लेकिन आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल एक ऐसे नेता हैं जिनकी चमक मोदी के विशाल अभामंडल के बीच भी अलग से दिख रही है. पंजाब में उनकी आम आदमी पार्टी की एकतरफा जीत ने साबित कर दिया है कि अगर मोदी के बाद देश में जनता को किसी और नेता पर विश्वास है तो वो अरविंद केजरीवाल हैं. वो इसलिए क्योंकि केजरीवाल भी मोदी की तरह जो वादा करते हैं उसे पूरा कर के दिखाते हैं. यही वजह है कि दिल्ली के बाद पंजाब में भी उनकी पार्टी की सरकार बनी है. देश में बीजेपी और कांग्रेस के बाद अब सिर्फ उन्हीं की ऐसी पार्टी हैं जिनकी देश के दो राज्यों में सरकार है. भारतीय राजनीति में गलाकाट प्रतियोगिता के बीच ये उपलब्धि कोई छोटी-मोटी उपलब्धि नहीं है, बहुत बड़ी है. सिर्फ दस साल के अंदर एक पार्टी खड़ी कर देश के दो राज्यों में सरकार बना लेना किसी भी लिहाज से अभूतपूर्व है.

मोदी के बाद देश में सिर्फ केजरीवाल ही विकल्प?

2014 की मोदी लहर के बाद लगने लगा था कि किसी भी पार्टी के लिए बीजेपी को हराना नामुमकिन है. देश की राजधानी दिल्ली में भी बीजेपी सरकार बनाने की उम्मीद कर रही थी. आखिर इस घड़ी के लिए वो 1998 से इंतजार कर रहे थे. आपको याद होगा कि 1993 में दिल्ली को जब राज्य का दर्जा दिया गया था तब सबसे पहली सरकार बीजेपी की ही बनी थी. पांच साल में बीजेपी ने यहां तीन मुख्यमंत्री बनाए – मदनलाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा और सुषमा स्वराज. उनके इस प्रयोग को जनता ने स्वीकार नहीं किया और 1998 में वो चुनाव हार गए. तब से अब तक दिल्ली में वो इंतजार ही कर रहे हैं. पहले शीला दीक्षित और अब अरविंद केजरीवाल उनकी राह का रोड़ा बने हुए हैं. देश में मोदी लहर के बीच 2015 में अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी को एकतरफा जीत दिलाई. इसके बाद फिर से मोदी लहर के बीच केजरीवाल ने 2020 में भी दिल्ली में सरकार बनाई. इससे साबित हो गया कि उनमें भी मोदी की तरह एक खास आकर्षण है. दिल्ली के मतदाताओं की भी बुद्धिमता देखिए. वो लोकसभा चुनाव में मोदी को वोट देते हैं और विधानसभा में केजरीवाल को. उनके दिमाग में कोई कन्फ्यूजन नहीं है. वो दोनों की उपयोगिता समझते हैं और दोनों को चाहते हैं.

ईमानदार और विश्वसनीय छवि को पसंद करते हैं लोग!

केजरीवाल के लिए दिक्कत ये है कि लोग उन्हें जिन बातों के लिए पसंद करते हैं, उन्हीं बातों के लिए वो मोदी को भी पसंद करते हैं. लोग एक ऐसा नेता चाहते हैं जो ताकतवर हो, विश्वसनीय हो, सक्षम हो औऱ जिसकी ईमानदार छवि हो. केजरीवाल और मोदी – दोनों में लोगों को वो चेहरा दिखता है. ऐसे में जनता के लिए दोनों में एक को चुनना दुविधा का कारण है. लेकिन मोदी के पक्ष में जो बात जाती है वो है उनकी पार्टी का भारतीय राजनीति में सत्तर साल पुराना अनुभव. खास तौर से पिछले तीस साल में भारतीय जनता पार्टी ने देश के अलग-अलग राज्यों से लेकर केंद्र में सरकार चलाने जो अनुभव हासिल किया है, उसका तोड़ निकालना केजरीवाल के लिए आसान नहीं है. इसके लिए वक्त चाहिए. मोदी के पीएम बनने के बाद तो पार्टी और मजबूत हुई है. राज्यों में उनकी सरकारों का रिपीट होना इसका सबूत है. आम आदमी को अच्छी सरकारें चलाने का अनुभव दिखाने के लिए लंबा वक्त लगेगा. दूसरी बात ये है कि बीजेपी के पास एक बड़ा और प्रभावशाली काडर है जो आम आदमी पार्टी के पास नहीं है. उन्हें देश के हर कोने में काडरों की लंबी फौज तैयार करनी होगी तभी बीजेपी से मुकाबला कर पाएंगे.

पंजाब में केजरीवाल को मिली ऐतिहासिक जीत

पंजाब में पिछले दो चुनावों से जनता का आम आदमी पार्टी के प्रति झुकाव दिख रहा था लेकिन उन्हें खुले दिल से सत्ता में आने का ग्रीन सिग्नल नहीं दे रहे थे. लेकिन इस बार उन्होंने केजरीवाल को मौका देने की ठान ली थी. कांग्रेस, अकाली दल और बीजेपी गठबंधन को नकारते हुए उन्होंने आम आदमी पार्टी को एकतरफा जीत दिलाई है. केजरीवाल की पार्टी अब मुख्य विपक्षी दल नहीं बल्कि सत्तारूढ़ पार्टी होगी. अब देखना होगा कि सीएम भगवंत मान के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी पंजाब में कैसा काम करती है. मुख्यमंत्री भले ही भगवंत मान हों लेकिन दाव पर तो केजरीवाल की साख है. वो अब मोदी की तरह राष्ट्रीय स्तर का नेता बनने की राह पर हैं. उन्हें यहां पर भी भ्रष्टाचार मुक्त और गुड गवर्नेंस के मॉडल को आगे बढ़ाना होगा. कांग्रेस और अकाली दल के भ्रष्टाचार के खिलाफ उन्होंने जो कैंपेन चलाया था उसे अब मूर्त रूप देने का वक्त है. अगर वो पंजाब की पॉलिटिक्स को बदलते हैं तो उत्तर भारत के दूसरे राज्यों में भी उसका असर देखने को मिलेगा. इस बार उनकी पार्टी ने गोवा और उत्तराखंड में भी चुनाव लड़ा था लेकिन वहां अभी जनता को उनपर विश्वास नहीं है. या ऐसा कहना ठीक होगा कि जनता को उनपर मोदी जितना विश्वास नहीं है. वैसे अच्छी बात ये है कि गोवा में उनकी पार्टी ने शुरुआत कर दी है. वहां पर इस बार वो दो सीट जीतने में कामयाब रहे हैं.

क्या केजरीवाल के लिए संभावनाओं का द्वार खुल पड़ा?

ये बात तय है कि देश की जनता का किसी न किसी दिन बीजेपी से मोह भंग होगा. चाहे वो दस साल बाद हो या बीस साल बाद. उस दिन उन्हें विकल्प के तौर पर एक ऐसी विश्वसनीय पार्टी चाहिए होगी जिसे वो राष्ट्रीय स्तर पर भी चुन सकें. अरविंद केजरीवाल के लिए अच्छी बात ये है कि जिस तरह से देश में कांग्रेस का लगातार पतन हो रहा है, उनके लिए संभावनाओं का द्वार खुला पड़ा है. कांग्रेस का विकल्प बनने के लिए समय-समय पर ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, मायावती और वापपंथी पार्टियां अपना दावा ठोकती हैं लेकिन वो अभी तक क्षेत्रीय पार्टियों की लीग से आगे नहीं बढ़ पाए हैं. केजरीवाल को अगर कोई टक्कर दे रहा तो तो कुछ हद तक वो ममता बनर्जी हैं लेकिन उनकी भी सीमाएं हैं. उनपर भी परिवारवाद का आरोप लग रहा है. ऐसे में बीजेपी के बाद आम आदमी पार्टी ही ऐसी पार्टी नजर आ रही जो परिवारवाद, जातिवाद के बंधनों से थोड़ी मुक्त है. इसलिए केजरीवाल के पास मौका है. लेकिन दिक्कत यही है कि मोदी और केजरीवाल एक ही स्पेस में लड़ रहे हैं. फिलहाल इस स्पेस में मोदी बादशाह है, उनका मुकाबला करना किसी के लिए भी आसान नहीं है. ऐसे में केजरीवाल को लंबी पारी खेलने का जुझारूपन दिखाना होगा. अगर वो ऐसा कर पाए तो ये काफी हद तक संभव है कि उन्हें एक दिन बड़े स्तर पर खेलने का मौका मिल सकता है.

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