Mandal vs Kamandal Politics: इस साल नवंबर-दिसंबर में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं. इसके बाद अगले साल लोकसभा चुनाव और 6 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं. केंद्र में बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए गठबंधन की सरकार है. ये एनडीए का दूसरा कार्यकाल है. हाल में हुए कई सर्वे बता रहे हैं कि एनडीए तीसरी बार भी सत्ता में आ सकती है. हालांकि मोदी के विजयी रथ को रोकने के लिए विपक्षी दलों ने पूरी ताकत झोंक दी है.


कांग्रेस की अगुवाई में I.N.D.I.A  गठबंधन बना है, जिसमें 28 पार्टियां शामिल हैं. इनमें तमाम क्षेत्रीय दल हैं. गठबंधन के अलावा ये सभी वोटरों को लुभाने के लिए जाति कार्ड भी खेल रहे हैं. बिहार में जाति जनगणना, राहुल गांधी की ओर से ओबीसी कार्ड इसी का उदाहरण है. राजनीति का जो रूप हम आज देख रहे हैं, वह 1990 से पहले नहीं था. न तब इतने क्षेत्रीय क्षत्रप थे और न ही जाति वाली राजनीति. अब सवाल ये उठता है कि आखिर 1990 में ऐसा क्या हुआ कि भारत का राजनीतिक परिदृश्य ही बदल गया. यहां हम आपको विस्तार से बताएंगे सब कुछ. हम बात करेंगे कास्‍ट पॉलिटिक्‍स, मंडल और कमंडल की पूरी कहानी, जनता पार्टी के बनने और टूटने की कहानी पर, जनता दल से टूटकर कितनी पार्टी बनी और कैसे सबका जाति आधारित वोट बैंक बनता चला गया, कैसे मंडल बनाम कमंडल की राजनाति का उदय हुआ.


राजनीति के बदलाव की यहां से हुई शुरुआत


1990 में जिस मंडल आयोग की सिफारिशों ने भारत की पूरी राजनीति बदल दी, उसका आगाज 1980 के दशक में उभरे ऐसे राजनीतिक आंदोलन से हुआ जिसमें सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में सामाजिक एवं आर्थिक रूप से वंचित समुदायों (विशेष रूप से अन्य पिछड़ा वर्ग- ओबीसी) को शामिल करने पर जोर दिया गया था. इस आंदोलन का नाम मंडल आयोग के नाम पर रखा गया था. अब सवाल उठता है कि मंडल आयोग क्या है. मंडल आयोग का गठन 1979 में सामाजिक या शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लोगों की पहचान के लिये किया गया था. इसकी अध्यक्षता बी.पी. मंडल ने की थी. आयोग ने 1980 में अपनी रिपोर्ट सरकार को दी. 1990 में प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कर दिया. इस आयोग ने मुख्य रूप से OBC को सार्वजनिक क्षेत्र और सरकारी नौकरियों में 27% आरक्षण देने की सिफारिश की थी. इसके लागू होते ही देश में हंगामा खड़ा हो गया. जगह-जगह प्रदर्शन होने लगे. यहीं से राजनीति में बदलाव का दौर शुरू हुआ.


ऐसे सामने आए क्षेत्रीय क्षत्रप


मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने वाले वीपी सिंह कांग्रेस के नेता थे, लेकिन बाद में राजीव गांधी से अलग हो गए. 1989 के लोकसभा चुनाव में ये कांग्रेस से अलग हो गए और अलग-अलग दलों के समर्थन से केंद्र में सरकार बना ली. इन्होंने जिन दलों से समर्थन लिया था, उसमें भारतीय जनता पार्टी (BJP) भी शामिल थी. प्रधानमंत्री बनने के कुछ महीने बाद ही 1990 में इन्होंने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर दीं. वीपी सिंह के खिलाफ देशभर में प्रदर्शन हुए. आंदोलन की वजह से वीपी सिंह की सरकार गिर गई पर वीपी सिंह के इस फैसले ने अलग-अलग राज्यों में OBC और क्षेत्रीय नेताओं का उभार ला दिया. इसी का फायदा उठाते हुए उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव का उभार हुआ और वह मुख्यमंत्री भी बन गए. मुलायम सिंह यादव ने ही मुस्लिम-यादव फॉर्मूले की शुरुआत की. इसे बाद बिहार में भी जाति आधारित राजनीति नजर आने लगी. धीर-धीरे यह कई और राज्यों तक पहुंच गया और कई क्षेत्रीय दल बन गए.


ऐसे हुई कमंडल की राजनीति की शुरुआत


मंडल राजनीति के बाद देश के सामने कमंडल की राजनीति भी आई. 1989-90 में जब समाजवादी नेता अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) की राजनीति कर रहे थे, तब अपना जनाधार बढ़ाने के लिए भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने जाति से अलग धर्म की राजनीति शुरू की और अयोध्या में राम मंदिर के लिए आंदोलन शुरू किया. इसी को कमंडल की राजनीति कहा जाता है. इस राजनीति को 1990 में असली आधार मिला. तब बीजेपी के नेता, कार्यकर्ता और कारसेवक अयोध्या में जा रहे थे. तभी तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने सुरक्षा बलों को कारसेवकों पर गोली चलाने के आदेश दे दिए.


इस फैसले ने राजनीति को दो हिस्सों में बांट दिया. मुलायम सिंह यादव ये आदेश देकर जहां ओबीसी वर्ग खासकर यादव की पहली पसंद हो गए तो मुस्लिम समुदाय ने भी उन्हें अपना नेता माना. इससे अलग बीजेपी को हिंदू समुदाय ने अपनी पार्टी के रूप में लिया और उसका वोट बैंक सवर्ण हिंदू बना. पर सिर्फ इनके सहारे चुनाव जीतना मुश्किल लगा तो बीजेपी ने मंडल और कमंडल का मिश्रण कर दिया. उसने यूपी में मंदिर आंदोलन का प्रमुख चेहरा कल्याण सिंह को बनाया. कल्याण सिंह अन्य पिछड़े वर्ग (OBC) की ‘लोध’ जाति से आते थे. इससे बीजेपी ने जहां एक तरफ अपर कास्ट को साधा, तो दूसरी तरफ ओबीसी भी उससे जुड़ गया. कल्याण सिंह के नेतृत्व में 1991 में बीजेपी की सरकार बनी. 1992 में अयोध्या का विवादित ढांचा गिरा दिया गया. इसके बाद कल्याण सिंह की सरकार गिर गई. पर देश मंडल और कमंडल की राजनीति को देख चुका था.


ऐसे अस्तित्व में आया जनता दल


ये बात है 1988-89 की. राजीव गांधी भारत के प्रधानमंत्री थे. अचानक कांग्रेस सरकार बोफोर्स और एचडीडब्ल्यू पनडुब्बी रक्षा सौदों के दलाली को लेकर विवादों में आ गई. राजीव गांधी के मंत्री मंडल में शामिल वीपी सिंह ने इस विवाद के बाद कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया. इसके बाद से ही जनता दल के गठन का चैप्टर शुरू हुआ. 11 अक्टूबर 1988 को वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल की बुनियाद पड़ी. तब जनता पार्टी, जनमोर्चा और लोकदल का जनता दल में विलय हुआ. 1989 में चुनाव हुए और कांग्रेस हार गई. वीपी सिंह कुछ और दलों के समर्थन से प्रधानमंत्री बन गए. पर जनता दल कुछ ही समय में बिखरने लगा.


इस तरह शुरू हुआ जनता दल का टूटना


जनता दल बनाने के बाद वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने, लेकिन वह इस पद पर 11 महीने ही रहे. इसके बाद जनता दल में टूट का सिलसिला शुरू हुआ. पहली बार जनता दल चंद्रशेखर की अगुवाई में टूटा. चंद्रशेखर ने अलग होकर जनता दल समाजवादी नाम से अपनी पार्टी बनाई. अब कांग्रेस के समर्थन से वग प्रधानमंत्री बन गए. हालांकि चंद्रशेखर चार महीने ही सरकार चला पाए. बाद में जनता दल समाजवादी का नाम बदलकर समाजवादी जनता पार्टी रखा गया.



  • जनता दल से अलग हुए चंद्रशेखर को भी पार्टी टूटने का दर्द झेलना पड़ा. जनता दल से उनके साथ आए मुलायम सिंह यादव ने 1992 में समाजवादी जनता पार्टी से अलग होकर समाजवादी पार्टी बना ली.

  • इसी साल जनता दल ने एक और टूट का सामना किया 1992 में चौधरी अजीत सिंह ने भी जनता दल से अलग होकर राष्ट्रीय लोकदल नाम से नई पार्टी बनाई.

  • जनता दल में तीसरी टूट 1994 में हुई. तब जॉर्ज फर्नांडीज और नीतीश कुमार ने जनता दल से अलग होकर समता पार्टी का गठन किया.

  • समता पार्टी बनने के दो साल बाद ही जनता दल को चौथी टूट का सामना करना पड़ा. 1996 में कर्नाटक के नेता रामकृष्ण हेगड़े ने जनता दल से इस्तीफा दे दिया. उन्होंने लोकशक्ति नाम से अपनी पार्टी बना ली.

  • जनता दल को पांचवी टूट का सामना एक साल बाद ही करना पड़ा. इस बार लालू प्रसाद यादव ने 1997 में जनता दल से अलग होकर राष्ट्रीय जनता दल की स्थापना की.

  • फिर एक साल बाद ही जनता दल ने एक और टूट का सामना किया. इस बार ओडिशा में नवीन पटनायक ने 1998 में जनता दल से अलग होकर बीजू जनता दल की स्थापना की.

  • सांतवी टूट 1999 में हुई, जिसने जनता दल का अस्तित्व ही खत्म कर दिया. इस बार जनता दल के दो हिस्से हो गए. कर्नाटक के नेता एचडी देवेगौड़ा के नेतृत्व में जनता दल सेक्युलर रहा, जबकि शरद यादव की अगुवाई में जनता दल यूनाइटेड सामने आया.


जनता दल से अलग हुए कुछ और दल



  • जनता दल से अलग होकर चिमनभाई पटेल और छबीलदास मेहता ने जनता दल (गुजरात) की स्थापना की थी. इस पार्टी ने 1990 में कांग्रेस की मदद से सत्ता भी हासिल की. हालांकि बाद में इस पार्टी ने कांग्रेस में विलय कर लिया.

  • अक्टूबर 2003 में जॉर्ज फर्नांडीस की समता पार्टी और रामकृष्ण हेगड़े की लोकशक्ति पार्टी ने जेडीयू में विलय कर लिया.

  • हरियाणा लोक दल (राष्ट्रीय) जिसे अब इंडियन नेशनल लोक दल के नाम से जाना जाता है, जनता दल से ही निकली थी. इनेलो की स्थापना अक्टूबर 1996 में चौधरी देवी लाल ने की थी.

  • लोक जनशक्ति पार्टी में भी कहीं न कहीं जनता दल का अंश है. इसके संस्थापक राम विलास पासवान थे, जिन्होंने वर्ष 2000 में इसकी स्थापना की. राम विलास पासवान पहले जनता पार्टी में थे, वहां से वह जनता दल में आए और उसके बाद जनता दूल यूनाइटेड के सदस्य रहे. पर जेडीयू में कुछ समय तक रहने के बाद उन्होंने लोक जनशक्ति पार्टी की स्थापना की. हालांकि लोक जनशक्ति पार्टी भी अब दो हिस्सों में बंट चुकी है. एक हिस्सा राम विलास पासवान के बेटे चिराग पासवान के पास है, जबकि दूसरे गुट को उनके भाई पशुपति पारस चला रहे हैं.

  • राष्ट्रीय लोक समता पार्टी की स्थापना उपेंद्र कुशवाहा ने जेडीयू से अलग होकर मार्च 2013 में की थी. हालांकि 9 साल बाद मार्च 2021 में उन्हें फिर से अपनी पार्टी का विलय जेडीयू में कर दिया.


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