आम चुनाव के सूत्रधार: विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक पर्व आम चुनाव, देश की आजादी के पांचवें साल में संपन्न हुआ. भारतीय संविधान के प्रावधानों के तहत आयोजित यह आम चुनाव अधिकतर राज्यों के विधानसभा के साथ हुए. यह चुनाव लोकतंत्र के ऊपर विश्वास करनेवाली जनता की पहली अग्निपरीक्षा थी, क्योंकि इसी चुवान के बहाने भारत के लोकतंत्र के भविष्य का भी अंकुरण होना था. पश्चिमी देशों के मतदाताओं के विपरीत भारत पहली बार सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार (सभी को वोट देने के अधिकार) का प्रयोग कर रहा था, जिसमें जाति, वर्ग, लिंग और धर्म का कोई भेद नहीं था.


भारत में होने वाले आम चुनाव एक ऐसे महाकुम्भ की तरह है जिसे संपन्न कराने की जिम्मेदारी अपने आप में बहुत कठिन है. मगर चुनाव-दर-चुनाव चुनाव आयोग की जिम्मेदारी काबिल-ए-तारीफ है. हम इस सीरीज में अब तक हुए  महत्वपूर्ण आम चुनावों में चुनाव आयोग की निष्ठा और उसकी जिम्मेदारियों का एक खाका तैयार कर रहे हैं. आज ज़िक्र होगा 1952 में हुए पहले आम चुनाव का. 


आजादी के दो साल बाद संविधान के प्रावधान (अनुच्छेद 324) के मुताबिक, 1950 में भारत के निर्वाचन आयोग की स्थापना की गई. इस आयोग के पहले मुख्य आयुक्त सुकुमार सेन को बनाया गया था. इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी किताब 'इंडिया आफ्टर गांधी' में जिक्र करते हैं कि 1899 में जन्मे सुकुमार सेन कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज के अलावा लंदन विश्वविद्यालय से स्नातक थे जहां वो गणित में गोल्ड मेडलिस्ट रहे. वे 1921 में भारतीय सिविल सेवा (ICS) में शामिल हुए. सेन पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव नियुक्त होने से पहले कई जिलों में न्यायाधीश (कलेक्टर) के रूप में कार्य किया. अपनी इस करियर के दौरान सुकुमार सेन ने मुख्य चुनाव आयुक्त के पद तक का सफर तय किया.



मैथेमेटिशियन सुकुमार सेन के लिए पहला चुनाव संपन्न कराना कोई आसान काम नहीं रहा. गोल्ड मेडलिस्ट के लिए यह गणना गणित के किसी मुश्किल सवाल से कम नहीं थी, क्योंकि पहले आम चुनाव के लिए उन्हें 17 करोड़ 60 लाख मतदाताओं को लोकतंत्र के पर्व का हिस्सेदार बनाना था. जिनकी उम्र 21 या उससे अधिक थी. सबसे विकट बात थी कि इन मतदाताओं में करीब 85 प्रतिशत अनपढ़ थे और हर एक की पहचान नाम और रजिस्ट्रेशन से की जानी थी.



1950 के दशक में करीब 17 करोड़ मतदाताओं का रजिस्ट्रेशन इस मुश्किल में पहली कड़ी थी. चुनाव आयोग के लिए इससे भी बड़ी बात मतदाताओं की तरफ से चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों के लिए वोट जुटाना था. जिसके लिए चुनाव चिन्ह, बैलेट पेपर और बैलेट बॉक्स डिज़ाइन किए गए. फिर मतदान केंद्रों के लिए स्थलों की पहचान की गई. चुनाव के साथ एक मुश्किल कड़ी और थी कि उसी दौरान राज्य में अलग-अलग विधानसभाओं के लिए चुनाव निर्धारित थे. किसी तरह का घाल-मेल न हो इसके लिए ईमानदार और कुशल मतदान अधिकारियों की भर्ती की गई. इस संबंध में सुकुमार सेन के साथ काम करने के लिए विभिन्न प्रांतों के चुनाव आयुक्तों, आमतौर पर आईसीएस के अधिकारियों की नियुक्ति की गई थी.


इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी किताब में बताते हैं कि पहले आम चुनाव के लिए 2 लाख 24 हज़ार पोलिंग बूथ स्थापित किए गए, जिनमें 20 लाख स्टील के बैलेट बॉक्स बनाए गए. इन बैलेट बॉक्स के निर्माण में 8,200 टन स्टील की खपत हुई थी. 16,500 क्लर्कों को छह महीने के कॉन्ट्रैक्ट पर निर्वाचन क्षेत्र द्वारा निर्वाचक नामावली में मतदाताओं के नाम जोड़ने के लिए नियुक्त किया गया. नाम के छापने के लिए रोल में 3 लाख 80 हज़ार टन पेपर का उपयोग किया गया था. 56,000 पीठासीन अधिकारियों को मतदान की निगरानी के लिए नियुक्त किया गया था, जिन्हें 2 लाख 80 हज़ार सहायकों की तरफ से मदद मिली. हिंसा से बचने और कानून व्यवस्था को कायम रखने के लिए 2 लाख 24 हज़ार पुलिसकर्मियों को ड्यूटी पर लगाया गया.



निर्वाचन क्षेत्र और मतदाता एक लाख वर्ग मील से अधिक क्षेत्र में फैले थे. इन इलाकों में भारी विविधता थी. दूरदराज के पहाड़ी गांवों से लेकर भारत के सुदूर द्वीपों तक निर्वाचन क्षेत्र में मतदान का आयोजन किया गया. हिंद महासागर में छोटे द्वीपों के बूथ तक पहुंचने में नौसैनिक जहाजों का इस्तेमाल किया गया था. इन भौगोलिक समस्या से भी बड़ी समस्या  सामाजिक समस्या थी, क्योंकि उत्तर भारत में कई महिलाओं को अपना नाम देने में झिझक होती थी. वे महिलाएं अपना नाम देने के बजाए, वे खुद को 'उनकी' मां या 'इनकी' पत्नी के रूप में रजिस्टर करना चाहती थीं.



मतदाता किस प्रकार अपनी मनपसंद पार्टी को वोट दे पाएं यह एक बड़ा सिरदर्द था. उस दौरान ज्यादातर पश्चिमी देशों में मतदाता पार्टी के नाम पर ही अपना वोट डालते थे. मगर भारत के लिए यह समस्या विकट थी. रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब में इस बात का जिक्र किया है कि इस काम को चुनाव आयोग ने चिह्नों के माध्यम से निपटाने का काम किया. ये चुनाव निशान भारतीय मतदाता की रोजमर्रा में इस्तेमाल किए जाने वाले रूपक थे जिनके साथ वे सहज थे जैसे- दो बैलों की जोड़ी, झोपड़ी, हाथी और दीपक और बाती.



दूसरा इनोवेशन भारतीय वैज्ञानिकों की तरफ विकसित की गई वो स्याही थी जिसे मतदाताओं की उंगली पर लगा दी जाए तो वह एक सप्ताह तक वैसी ही रहती थी. चुनाव में इस स्याही के कुल 3 लाख 89 हज़ार 816 शीशियों का इस्तेमाल किया गया था. 


1951 के पूरे साल चुनाव आयोग ने लोकतंत्र के इस महामेले के बारे में जनता को जागरूक करने के लिए फिल्म और रेडियो के साथ-साथ समाचारपत्रों का इस्तेमाल किया. मताधिकार करने वाले मतदाता किस तरह से अपना मत डाले, इसके लिए 3,000 से अधिक सिनेमाघरों में इस युक्ती को सुझाने के लिए विजुअल्स का इस्तेमाल किया गया था. ऑल-इंडिया रेडियो के माध्यम से भारत के नागरिकों तक पहुंच बनाई गई. जिनमें- संविधान पर कई कार्यक्रम प्रसारित किए, वयस्क मताधिकार के उद्देश्य के बारे में बताया गया, मतदाता सूची तैयार करने और मतदान की प्रक्रिया के बारे में प्रोग्राम प्रसारित किए गए.



चुनाव आयोग की तरफ से जारी 1952 के आम चुनाव की स्टेटिकल रिपोर्ट के अनुसार, 21 फरवरी 1952 को संपन्न लोकतंत्र के इस महाकुम्भ का समापन हुआ. लोकसभा की 489 सीटों के लिए 1849 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा. 17 करोड़ 60 लाख मतदाताओं में 45.7 फीसदी लोगों ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया. पहले आम चुनाव में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) ने शानदार जीत हासिल की. 489 सीटों में कांग्रेस को 364 सीटें मिलीं और कुल मतों का 44.99 प्रतिशत हिस्सा हासिल हुआ. वोटों का यह आंकड़ा दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप हासिल किए जाने वाले वोटों से चार गुना अधिक था. इस तरह जवाहरलाल नेहरू भारत में पहली बार लोकतांत्रिक रूप से चुने गए प्रधानमंत्री बने.




 

स्रोत: हमारा संविधान (सुभाष कश्यप), भारत की राज्य व्यवस्था, पांचवां संस्करण (एम लक्ष्मीकांत), भारत गांधी के बाद (रामचंद्र गुहा), चुनाव आयोग की वेबसाइट, अन्य समाचार पत्र