नई दिल्ली: हरियाणा विधानसभा चुनाव के लिए महज कुछ दिनों का समय बाकी है ऐसे में हरियाणा की उस राजनीतिक धुरी की बात किया जाना बेहद जरूरी हो जाता है जिसके इर्द-गिर्द ही सूबे की सियासत लंबे समय से घूमती रही है. ये धुरी है 'जाट' समुदाय जो हरियाणा की कुल आबादी का 25 फीसदी हैं. इसीलिए हरियाणा में जाट किसी भी पार्टी को चुनाव जिताने और किसी भी सरकार को गिराने की ताकत रखते हैं.


हरियाणा जिसे जाट लैंड भी कहा जाता है. यहां की सियासत में जाटों का हमेशा से ही वर्चस्व रहा है. यूं तो यहां पहले भी गैर जाट मुख्यमंत्री बने हैं लेकिन चौधरी भजन लाल को छोड़कर कोई भी गैर जाट नेता लंबे समय तक हरियाणा की सियासत में राज नहीं कर पाया. हरियाणा के इतिहास में जितने भी कद्दावर मुख्यमंत्री बने हैं उनमें से ज्यादातर जाट ही रहे हैं. हालांकि 2014 में बीजेपी की जीत के बाद सीएम के तौर पर मनोहर लाल खट्टर की ताजपोशी ने हरियाणा में गैर जाट सियासत को बल दिया. लंबे समय तक जाट समुदाय के दबदबे वाले राज्य में साल 2014 के चुनाव में बीजेपी को गैर जाट वोटों के एकजुट होने का भी फायदा मिला था हालांकि जिस राज्य में ज्यादातर समय जाट समुदाय का मुख्यमंत्री रहा हो वहां पंजाबी मूल का मुख्यमंत्री बनाए जाने से निश्चित तौर पर जाटों को नाराजगी हुई. जले पर नमक साल 2016 में हुए जाट आरक्षण आंदोलन में हुई हिंसा ने छिड़क दिया जिसके बाद से ही हरियाणा जाट बनाम नान जाट वाली पॉलिटिक्स की प्रयोगशाला बन गया है. नेता भले ही हरियाणा में 36 बिरादरियों के एक साथ होने का दावा करते हों लेकिन जाट आरक्षण आंदोलन ने कहीं न कहीं बिरादरियों के दिलों में खटास पैदा कर दी. हालांकि, हरियाणा में जाटों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता इसीलिए बीजेपी सरकार ने जाट आरक्षण बिल पास किया लेकिन फिलहाल उसे कोर्ट में चुनौती दी गई है. बीजेपी ने जाट वोटरों में सेंध लगाने के लिए कई महत्वपूर्ण पद इस समाज के नेताओं को दिए हैं.


2014 की तुलना में 2019 में बीजेपी ने जाट उम्मीदवार कम उतारे
2014 में मनोहर लाल खट्टर को प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद से आज तक बीजेपी हरियाणा में गैर जाट पार्टी की छवि से बाहर नहीं निकल पाई है. पिछले विधानसभा चुनाव में भले ही जाट वोटरों ने बीजेपी का खुलकर समर्थन न किया हो लेकिन हरियाणा में जाट वोटरों की अनदेखी मुमकिन नहीं है, यही वजह है कि पार्टी ने सुभाष बराला को प्रदेश अध्यक्ष बनाया और ओपी धनखड़ और कैप्टन अभिमन्यु जैसे कद्दावर जाट नेताओं को कैबिनेट में जगह दी. बावजूद इसके इसी साल हुए लोकसभा चुनाव में कई जाट बाहुल्य विधानसभा सीटों पर बीजेपी बढ़त नहीं बना पाई और यही कारण है कि आगामी विधानसभा चुनाव के लिए बीजेपी ने पिछली बार की 27 सीटों के मुकाबले इस बार सिर्फ 20 जाट उम्मीदवारों को ही चुनावी मैदान में उतारा है.


क्या इस बार जाट वोटर बीजेपी पर भरोसा जता पाएंगे?
पिछला विधानसभा चुनाव बीजेपी ने बिना सीएम फेस में लड़ा था और गैर जाट वोटों की मदद से बीजेपी ने हरियाणा में पहली बार बहुमत की सरकार बनाई थी. लेकिन इस बार बीजेपी मनोहर लाल खट्टर के गैर जाट चेहरे पर ही चुनाव लड़ रही है. इसी साल लोकसभा चुनाव में बीजेपी जाट बहुल सीटों पर गैर जाट प्रत्याशी उतारकर गैर जाट वोटों का ध्रुवीकरण करने में कामयाब रही थी. विपक्ष के सभी बड़े जाट नेता हार गए थे, ऐसे में विधानसभा चुनाव में जाटों को बीजेपी के साथ जोड़ पाना आसान नहीं होगा. बीजेपी भी इस बात को समझती है इसीलिए पिछले विधानसभा चुनाव में जहां उसने 27 जाट उम्मीदवार मैदान में उतारे थे वहीं इस बार पार्टी ने सिर्फ 20 जाटों को ही टिकट दिया है. क्या इससे बीजेपी की गैर जाट वाली छवि और मजबूत हुई है? क्या इस बार जाट वोटर बीजेपी पर भरोसा जता पाएंगे?


जरूरी जानकारी
हरियाणा में रोहतक, सोनीपत, पानीपत, जींद, कैथल, सिरसा, झज्जर, फतेहाबाद, हिसार और भिवानी जिले की करीब 30 विधानसभा सीटों पर जाटों का अच्छा प्रभाव है, जहां वो हार-जीत का फैसला करते हैं. बीते लोकसभा चुनाव में जाट बाहुल्य कुछ विधानसभा सीटों पर बीजेपी पिछड़ गई थी. इनमें से एक सीट थी नारनौद जो बीजेपी के जाट नेता एवं कैबिनेट मंत्री कैप्टन अभिमन्यु की विधानसभा क्षेत्र है. जबकि दूसरे जाट नेता और कैबिनेट मंत्री ओम प्रकाश धनकड़ की सीट बादली में भी यही हाल था. इसी तरह गढ़ी सांपला-किलोई, बेरी और महम में भी बीजेपी पीछे रही थी. गढ़ी सांपला-किलोई विधानसभा से भूपेंद्र सिंह हुड्डा विधायक हैं. इससे ये लगता है कि लोकसभा चुनाव में बीजेपी की आंधी के बावजूद उससे जाटलैंड में वोटर पूरी तरह से नहीं सधे थे.