नई दिल्ली: महज तीन मिनट में देश के सबसे ताकतवर ओहदे का फैसला हुआ. सियासत में षड़यंत्र और धोखे का मिसाल बन गया वो तीन मिनट. साम, दाम, दंड, भेद , दांव-पेंच और छल प्रपंच सबकुछ एक ही सियासी स्क्रिप्ट में देश ने देखा. सियासत में किसी का तीर, किसी और के कमान में रखना ही दूरगामी परिणाम देता है. कई बार ऐसा लगता है कि सियासत भी शतरंज की तरह है. सटीक चाल के बगैर शतरंज और सियासत दोनों में अच्छे-अच्छे नाम नाकाम हो जाते हैं. शतरंज में मोहरों की चाल से अधिक खिलाड़ी के दिमाग को पढ़ना जरूरी है. चलिए आपको हरियाणा के उस नेता का वो किस्सा बताते हैं, जिसने महज तीन मिनट में पासा पलट दिया.


वक्त का पहिया जरा पीछे ले चलिए... इंदिरा गांधी की हत्या के बाद की सहानुभूति लहर ने 1984 के लोकसभा चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को 400 से ज्यादा सीटें दी. ये करिश्मा ऐसा था जो नेहरू और इंदिरा भी न कर सके. लेकिन जीत का अश्वमेघ घोड़ा 1989 आते आते हांफने लगा. राजीव गांधी 1989 में सत्ता से बाहर हो गये. राजीव गांधी की इस हार में अहम भूमिका उनकी सरकार में ही मंत्री रहे वी पी सिंह की रही. नारों के पुष्पक विमान पर चढ़कर बोफोर्स घोटाले का मुद्दा हर घर तक पहुंच गया. जिसका परिणाम यह हुआ कि 1989 में कांग्रेस को 197 सीटें, जनता दल को 143 सीटें, बीजेपी को 85 और सीपीएम को 33 सीटें मिलीं. कांग्रेस के इस भारी भरकम और ऐतिहासिक हार की वजह रहा बोफोर्स घोटाला, जिसे जन जन तक पहुंचाने में वीपी सिंह की जोरदार मुहिम कामयाब रही.


बीजेपी और वामपंथी दलों के सहयोग से सीटों के अंकगणित का समीकरण बैठने लगा लेकिन सबसे बड़ा सवाल प्रधानमंत्री कौन होगा, यह सत्ता के गलियारे में कौंधने लगा. यहीं से असली खेल शुरू होता है. आम जनमानस के बीच वी पी सिंह नायक की तरह उभरे थे लेकिन पीएम पद की दौड़ में देवीलाल और चंद्रशेखर भी थे. चंद्रशेखर ने लंगड़ी मारते हुए कहा कि वह जनता दल के संसदीय दल का चुनाव लड़ेंगे. चंद्रशेखर की अड़ंगा के बाद वी पी सिंह पीछे हट गये. उन्होंने कहा कि वे तभी पीएम बनेंगे जब सर्वसम्मति से नेता चुने जाएंगे. अब खेल शुरू हो गया. करीब तीन दिनों तक बैठकों और मुलाकातों का दौर चला. सियासी समीकरण अपने अपने पाले में बैठाए जाने लगे. इन मुलाकातों में एक अहम मुलाकात चौधरी देवीलाल और लालकृष्ण आडवाणी की थी. देवीलाल खुद के लिए समर्थन मांगे. लेकिन उन्होंने सीधे तौर पर मना करते हुए कहा कि देश ने वी. पी. सिंह को चुना है. इसी दौरान वी. पी. सिंह और अरुण नेहरू ने ज्योति बसु और आडवाणी से मुलाकात कर नेशनल फ्रंट सरकार पर सहमति ले ली.


अब सियासी साजिश का खेल देखिए. इस साजिश के बारे में चंद्रशेखर ने सपने में भी नहीं सोचा होगा. किसी का तीर, किसी और के कमान में कैसे रखकर चलाते हैं उसका सबसे शानदार उदाहरण है. बताते हैं कि उड़ीसा भवन में बीजू पटनायक के कमरे में तय किया गया कि चंद्रशेखर की नाराजगी वी. पी. सिंह से है. अगर उनके सामने ये पेश किया जाए कि देवीलाल प्रधानमंत्री होंगे तो वो अपनी दावेदारी छोड़ देंगे. और फिर देवीलाल खुद मना करते हुए वी पी सिंह के नाम का प्रस्ताव कर देंगे. साजिश की यही स्क्रिप्ट तय की गई.


बताते हैं कि संसद के केंद्रीय कक्ष में मधु दंडवते चुनाव अधिकारी थे. जब नेता पक्ष का चुनाव हुआ तो वी. पी. सिंह ने देवीलाल का नाम प्रपोज किया. चंद्रशेखर ने समर्थन किया. देवीलाल नीचे बैठे हुए थे. उन्हें डायस तक आने में करीब तीन मिनट का समय लगा. जैसे ही देवीलाल आए उन्होंने सांसदों का धन्यवाद किया. उन्होंने कहा कि देश वी. पी. सिंह को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहता है तो उनके पक्ष में मैं अपना नाम वापस लेता हूं. बस फिर क्या था ये सुनते ही चंद्रशेखर आग बबूला हो गए. चंद्रशेखर को पहले से इस ड्रामे के बारे में बिल्कुल भी खबर नहीं थी. वो वहां से वॉकआउट कर गए. इस तरह वी. पी. सिंह को प्रधानमंत्री पद के लिए चुना गया. और इस तरह वी पी सिंह ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और चौधरी देवीलाल उप-प्रधानमंत्री बने.


लालू प्रसाद यादव की बायोग्राफी ‘गोपालगंज से रायसीना- माई पॉलिटिकल जर्नी’ रिलीज हुई है. इसमें लालू ने बताया कि सरकार बनने के कुछ महीनों के भीतर ही सत्ता के दो केंद्र बन गए थे. एक प्रधानमंत्री की दूसरी उप-प्रधानमंत्री की. लालू वैसे तो तब देवीलाल कैंप में थे लेकिन जब उन्हें सरकार गिरने का अंदेशा हुआ तो खुद वी. पी. सिंह से मिले और देवीलाल के साजिशों के बारे में बता दिया. लालू के मुताबिक मंडल कमीशन के सिफारिशों को लागू करने की सलाह भी उन्होंने ही वी. पी. सिंह को दी थी.


आजादी की लड़ाई का हिस्सा थे देवीलाल
1912 में देवीलाल का जन्म हरियाणा के सिरसा जिले के तेजाखेड़ा गांव में हुआ था. देवीलाल ने 15 साल की उम्र में ही देश के लिए कुछ करने का इरादा ठान लिया था. देवीलाल ने 1930 में महात्मा गांधी के आंदोलन में शामिल होने का फैसला किया और इसी के चलते 1930 में उन्हें जेल भी जाना पड़ा. इसके बाद 1938 में देवीलाल ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी का हिस्सा बने. 1942 में देवीलाल को 'अंग्रेजो भारत छोड़ो' आंदोलन के दौरान करीब दो साल तक जेल में रहना पड़ा.


1952 में राजनीति का आगाज
उस समय हरियाणा पंजाब का हिस्सा हुआ करता था. देवीलाल 1952 में पहली बार पंजाब विधानसभा के सदस्य चुने गए. इसके बाद उन्हें 1956 में पंजाब कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया. लेकिन इसके बाद देवीलाल ने हरियाणा को अलग राज्य बनाने की लड़ाई छेड़ दी और 1966 में उनकी मुहिम कामयाब हुई. 1971 में देवीलाल ने कांग्रेस के साथ अपने लंबे सफर का अंत कर दिया. 1974 में देवीलाल रोडी हलके से विधायक चुने गए. देवीलाल को एमरजेंसी के दौरान जेल में रखा गया. इसके बाद देवीलाल 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़े और पहली बार राज्य के सीएम बनने में कामयाब रहे.


हालांकि भजनलाल के पार्टी तोड़ने की वजह से देवीलाल दो साल तक ही सीएम रह पाए. 1987 के विधानसभा चुनाव से पहले देवीलाल ने लोक दल बना लिया. इस वक्त तक देवीलाल एक बड़े किसान नेता के रूप में उभर चुके थे. देवीलाल 1987 में हरियाणा में सरकार बनाने में कामयाब रहे. इसके बाद देवीलाल ने 1989 में जनला दल की सरकार में शामिल होने का फैसला किया और उन्हें वीपी सिंह और चंद्रशेखर की सरकार में उपप्रधानमंत्री की कुर्सी मिली. ये वो समय था जब देवीलाल की पहचान एक बड़े राष्ट्रीय कद्दावर नेता के तौर पर उभरी.