प्रधानमंत्री सीरीज 12: लालू, मुलायम, मूपनार जैसे नेताओं की आपसी भिड़ंत में गुजराल का नाम हुआ गुलजार
Inder Kumar Gujral: देवगौड़ा की सरकार गिरने के बाद प्रधानमंत्री पद की रेस में कई दिग्गज नेता थे लेकिन ये बड़े नेता अपने ही लोगों की साजिश के शिकार थे. आज प्रधानमंत्री सीरीज में जानते हैं इंद्र कुमार गुजराल के पीएम बनने की पूरी कहानी.
Pradhanmantri Series, Inder Kumar Gujral: 1996 में राजनीतिक अस्थिरता का आलम ये था कि दो साल के भीतर ही तीन प्रधानमंत्री बने लेकिन फिर भी लोकसभा का कार्यकाल पूरा नहीं हो पाया. बीजेपी के अटल बिहारी वाजपेयी और यूनाइटेड फ्रंट के एचडी देवगौड़ा के बाद तीसरे प्रधानमंत्री बने थे इंद्र कुमार गुजराल. उस समय प्रधानमंत्री पद की रेस में कई दिग्गज नेता थे लेकिन गठबंधन के ये बड़े नेता अपने ही लोगों की साजिश के शिकार थे. ऐसे में पाकिस्तान में पैदा हुए इंद्र कुमार गुजराल को प्रधानमंत्री पद की कुर्सी तोहफे में दी गई. दिलचस्प ये है कि जब प्रधानमंत्री पद के लिए उनके नाम का निर्णय हुआ तो उस वक्त वो सो रहे थे. आज प्रधानमंत्री सीरीज में जानते हैं इंद्र कुमार गुजराल के पीएम बनने की पूरी कहानी.
बीजेपी 161 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी और अटल बिहारी वाजपेयी 13 दिनों के लिए प्रधानमंत्री बने. कांग्रेस के पास 141 सीटें थीं लेकिन वो सरकार चलाने से ज्यादा सपोर्ट देने और फिर सरकार गिराने में दिलचस्पी रखती थी. वाजपेयी के बाद कांग्रेस के समर्थन से एचडी देवगौड़ा पीएम बने. लेकिन कुछ ही समय में कांग्रेस के अध्यक्ष सीताराम केसरी बने और उन्होंने अचानक सपोर्ट वापस ले लिया और सरकार गिर गई.
वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई बताते हैं, ''केसरी को लगा कि उन्हें किसी फर्जी मामले में फंसाने की साजिश हो रही है. वो कान के कच्चे भी थे और हर चीज को जातिय समीकरण से देखते थे. उन्हें लग रहा था कि उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया है इसलिए वो कांग्रेस को सत्ता में ला दें. वो बाजी पलटना चाह रहे थे. केसरी ने जब देवगौड़ा सरकार गिरा दी तो सन्नाटा छा गया. तब बजट सेशन चल रहा था और उन्होंने समर्थन वापस ले लिया. कांग्रेस का ये कहना था कि अपना नेता बदलो, नहीं तो हम समर्थन नहीं देंगे. उस वक्त कोई भी पार्टी बीच में चुनाव नहीं चाहती थी. हर तरफ तनातनी का मौहाल था.’’
दरअसल, देवगौड़ा सरकार से समर्थन वापस लेने के पीछे एक और कहानी बताई जाती है. उस वक्त कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी खुद भी प्रधानमंत्री बनना चाहते थे. देवगौड़ा सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद सीताराम केसरी ने बहुत सी पार्टियों को दिल्ली बुलाया और लेकिन उनके पीएम बनने की बात किसी ने नहीं मानी. वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई बताते हैं, ''कांग्रेस में जातीय समस्या भी थी. वो पिछड़े वर्ग से आते थे और पार्टी के कद्दावर नेता उनका ज्यादा सम्मान नहीं करते थे. कांग्रेस की वर्किंग कमेटी के लोग बड़ी जातियों के थे. केसरी की अपनी जीवनशैली बहुत साधारण थी और उन्हें लगता था कि सत्ता हर चीज का समाधान है. केसरी को लगता था कि अगर कांग्रेस सत्ता मिल जाए तो ये लोग उन्हें सम्मान की दृष्ठि से देखेंगे.’’
केसरी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के बीच उनकी ही पार्टी आ रही थी. प्रणव मुखर्जी, शरद पवार, अर्जुन सिंह, जीतेंद्र प्रसाद जैसे लोग उनके पीएम पद की दावेदारी से सहमत नहीं थे. इसके बाद कांग्रेस के पास यूनाइटेड फ्रंट को समर्थन देकर सरकार बनवाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था.
वहीं, यूनाइटेड फ्रंट में प्रधानमंत्री पद की रेस में एसआर बोमई, लालू प्रसाद यादव, जीके मूपनार और मुलायम सिंह सहित कई बड़े नाम शामिल थे. लेकिन इनकी परेशानी ये थी कि ये आपस में ही एक दूसरे के विरोधी थे. यही वजह थी कि कोई कद्दावर नेता पीएम पद नहीं हासिल कर पाया. रशीद किदवई बताते हैं, ''उस वक्त यूनाइटेड फ्रंट में ताकतवर नेताओं पर लोग ग्रहण लगा देते थे. मुलायम सिंह यादव बड़े नेता था और वो यूपी से काफी सीटें जीतकर आए थे. सरकार में रक्षा मंत्री भी थे. लालू यादव की दावेदारी को लेकर भी विद्रोह था. चंद्र बाबू नायडू, मुलायम सिंह यादव और लालू यादव जैसे मजबूत नेताओं के नाम पर सहमति नहीं बन पा रही थी.’’
वो आगे बताते हैं, ''लालू खुद मुलायम सिंह के घोर विरोधी थे. मुलायम सिंह भी लालू को नहीं चाहते थे. तब तक चारा घोटाले में लालू का नाम भी आ गया था. उनपर प्रश्न चिह्न ही लग गया कि वो पीएम बन सकते हैं या नहीं. लालू-मुलायम में परस्पर असुरक्षा और अविश्वास की भावना की थी. ये सभी कद्दावर लोग इसलिए भी पीएम नहीं बन सकते थे क्योंकि ये अपने ही लोगों के षणयंत्र का शिकार थे. यही वजह थी कि कोई कद्दावर नेता पीएम पद का दावेदार नहीं बन पाया.’’
वहीं, जब इंद्र कुमार गुजराल को पीएम बनाने की बात उठी तो उसपर कम लोगों की असहमति थी. मुलायम सिंह उसमें से एक थे जो गुजराल को पीएम नहीं बनाना चाहते थे. गुजराल के चयन में अच्छी बात ये थी कि मौजूदा कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी भी उन्हें पसंद करते थे.
लालू ने ही इंद्र कुमार गुजराल का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए आगे बढ़ाया था. इस बात का जिक्र हाल ही में रिलीज अपनी बायोग्राफी ‘गोपालगंज टु रायसीना: माई पॉलिटिकल जर्नी’ में भी लालू ने किया है.
जब पीएम पद के लिए गुजराल के नाम पर सहमति बनी उस वक्त का एक बहुत ही दिलचस्प वाकया बताया जाता है. दिनभर चली मीटिंग के दौरान किसी नाम पर समहति नहीं बन पाई. रात में गुजराल मीटिंग छोड़कर सो गए. इसी बीच उनका चयन हुआ. ऐसा कहा जाता है कि तेलगु देशम पार्टी के एक सांसद ने उन्हें नींद से जगाकर ये कहा कि उठिए अब आपको प्रधानमंत्री पद संभालना है. ये सुनते ही गुजराल ने खुश होकर उसे गले लगा लिया.
इस तरह गुजराल ने 21 अप्रैल 1997 को देश के 12वें प्रधानमंत्री पद की शपथ ली.
गुजराल कांग्रेस और केसरी दोनों को प्रधानमंत्री पद के लिए पसंद थे लेकिन अपनी परंपरा के अनुसार कांग्रेस ने ये सरकार भी ज्यादा दिनों तक चलने नहीं दी. करीब 11 महीनों बाद कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस ले लिया और गुजराल सरकार गिर गई. 19 मार्च 1998 तक गुजराल प्रधानमंत्री पद पर रहे.
ये सरकार गिराने के लिए बकायदा साजिश रची गई. वजह ये थी कि खुद केसरी नहीं चाहते थे कि वो गुजराल की सरकार गिराए. रशीद किदवई बताते हैं, ''उस वक्त एक रिपोर्ट लीक हुई थी और राजीव गांधी की हत्या के शक की सुई डीएमके पर भी थी. कांग्रेस ने गुजराल से मांग की कि डीएमके के मंत्री को बर्खास्त कर दे. ये बात गुजराल सहित यूएफ के घटक दलों को मंजूर नहीं थी. हास्यास्पद ये था कि केसरी भी नहीं चाहते थे कि गुजराल सरकार गिरे. कांग्रेस अध्यक्ष की मर्जी के खिलाफ जीतेंद्र प्रसाद और अर्जुन सिंह सहित कई नेताओं ने साजिश के तरह गुजराल की सरकार गिराई थी.’’
दरअसल सरकार गिराने के पीछे एक और वजह भी थी. गुजराल की सरकार बनने के बाद ही कांग्रेस में अर्जुन सिंह की वापसी हुई. रशीद किदवई बताते हैं, ‘’अर्जुन सिंह वापस आते ही सोनिया गांधी का नाम आगे बढ़ाने लगे कि वो सक्रीय राजनीति में आएं. इस तरह खिचड़ी पकी और फिर गुजराल की सरकार केसरी की मर्जी के बिना गिराई गई.’’
गुजराल के बारे में-
इंद्र कुमार गुजराल राजनेता होने के अलावा सामाजिक कार्यों, लेखन और शेरो शायरी में भी दिलचस्पी रखते थे. राजनीति की शुरुआत उन्होंने दिल्ली नगर निगम से की थी. वो लंबे समय तक इंदिरा गांधी के सहयोगी और कांग्रेस में रहे. इमरजेंसी के दौरान वो सूचना प्रसारण मंत्री रहे. 1980 में वो कांग्रेस छोड़कर जनता दल में शामिल हुए थे.
गुजराल अपनी Doctrine थ्योरी के लिए भी जाने जाते हैं. डॉक्ट्रिन का मूल मंत्र ये कि किसी देश को अंतराष्ट्रीय स्तर पर दबदबा कायम करना है तो सबसे पहले पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते सही करने होंगे. गुजराल ने विदेश मंत्री रहते हुए 1996 में भारत को सीटीबीटी पर दस्तखत नहीं करने दिया और आज भारत अपने को परमाणु ताकत घोषित करने में कामयाब हुआ.
इंद्र कुमार गुजराल का जन्म 4 दिसंबर 1919 को पाकिस्तान के पंजाब के झेलम में हुआ था. गुजराल के माता-पिता स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने पंजाब के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था. पढ़ाई लिखाई में वो तेज तर्रार थे. उन्होंने एम.ए, बी.कॉम, पी.एच.डी. और डी. लिट. की उपाधि प्राप्त की थी. 26 मई 1945 को उन्होंने शीला गुजराल से विवाह किया. उनके बड़े बेटे नरेश गुजराल राजनीति में सक्रीय हैं. नरेश गुजराल शिरोमणि अकाली दल के नेता हैं और राज्यसभा सदस्य हैं.
(इंद्र कुमार गुजराल के बेटे नरेश गुजराल)1931 में 11 वर्ष की उम्र में गुजराल ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया जिसमें पुलिस ने उनको झेलम में युवा बच्चों के आन्दोलन का नेतृत्व करने के लिए गिरफ्तार कर लिया और बर्बरता से पीटा. 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्हें फिर से गिरफ्तार किया गया.
भारत के प्रधानमंत्री बनने से पहले गुजराल 1996 में विदेश मंत्री बने. 28 जून 1996 को उन्होंने जल संसाधन मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार भी संभाला. 1989 में पहला लोकसभा चुनाव जालंधर से जीते थे. वह वर्ष 1989-90 में जल संसाधन मंत्री थे. 1976 से 1980 तक यूएसएसआर में भारत के राजदूत (मंत्रिमंडल स्तर) रहे और 1967 से 1976 तक उन्होंने संचार एवं संसदीय मामलों के मंत्री, सूचना, प्रसारण तथा संचार मंत्री, निर्माण एवं आवास मंत्री, सूचना एवं प्रसारण मंत्री, योजना मंत्री, का पद संभाला.
30 नवंबर 2012 को लंबी बीमारी के बाद इंद्र कुमार गुजराल का निधन हो गया.
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