Karnataka Elections: अगले महीने की 10 तारीख को कर्नाटक विधानसभा चुनाव होने हैं. इससे पहले राज्य की राजनीति में भूचाल मचा हुआ है. राजनीतिक पार्टियों में आए दिन कुछ ना कुछ ड्रामा होता ही रहता है. संघ के जमाने से बीजेपी से जुड़े रहे दिग्गज नेता जगदीश शेट्टार 17 अप्रैल को कांग्रेस में शामिल हो गए थे. बीएस येदियुरप्पा के बाद शेट्टार को लिंगायत समुदाय का दूसरा बड़ा चेहरा माना जाता है. लेकिन, बीजेपी ने शेट्टार को गंवा दिया है, क्योंकि पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दिया था, जिससे वो नाराज थे. अब प्रश्न उठता है कि क्या बीजेपी ने उस गलती को दोहरा दिया है जिसे साल 1990 में राजीव गांधी ने की थी? ये किस्सा 33 साल पुराना है, जो लिंगायत नेता वीरेंद्र पाटिल से जुड़ा हुआ है.


दरअसल, उस वक्त राजीव गांधी देश के पीएम थे. साल 1990 में वीरेंद्र पाटिल को कर्नाटक में सीएम पद से हटाने का उनका फैसला कांग्रेस पार्टी के लिए नुकसानदायक रहा. मगर, इसका भरपूर फायदा बीजेपी को मिला और उस घटना के बाद से अभी तक कांग्रेस लिंगायत समुदाय का विश्वास जीतने में नाकामयाब रही है. आइए जानते हैं 33 साल पहले हुए राजीव गांधी के फैसले की कहानी.


क्या था 33 साल पहले का किस्सा?


उस दौर में राम मंदिर को लेकर आंदोलन चरम पर था. राजीव गांधी के हाथों में कांग्रेस की बागडोर थी और कर्नाटक की सत्ता वीरेंद्र पाटिल संभाल रहे थे. राम मंदिर में लोगों के समर्थन को लेकर गुजरात के सोमनाथ से अयोध्या तक बीजेपी के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी राम रथयात्रा कर रहे थे. रथ यात्रा के एक हफ्ते बाद 3 अक्टूबर, 1990 को कर्नाटक के दावणगेरे के मुस्लिम आबादी वाले इलाके में हिंदू लोगों ने एक शोभा यात्रा निकाली थी, जिससे सांप्रदायिक दंगा हुआ था, जिसकी चपेट में कई लोग आ चुके थे. 


इस दंगे की चिंगारी को हवा देने का काम तब हुआ जब उसी दौरान चन्नापटना क्षेत्र में एक मुस्लिम लड़की से हिंदू लड़कों ने छेड़खानी की थी. इस मामले के बाद दोनों समुदायों के बीच खूनी खेल हुआ और तमाम लोगों की जानें गई थीं. इस घटना के कुछ दिन पहले कर्नाटक के सीएम वीरेंद्र पाटिल को हार्ट अटैक आया था और वो बेडरेस्ट पर थे. अब सारा दबाव कांग्रेस पर बढ़ गया था. उस समय सीके जाफर शरीफ कर्नाटक कांग्रेस के सबसे बड़े मुस्लिम नेता थे, जो दंगे को लेकर कांग्रेस हाईकमान पर प्रेशर डाल रहे थे.


कर्नाटक पहुंचते ही राजीव गांधी ने किया सीएम को हटाने का ऐलान


मामले की गंभीरता देखते हुए सियासी डैमेज कन्ट्रोल के लिए कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में राजीव गांधी कर्नाटक पहुंचे थे. एक रिपोर्ट के अनुसार, कांग्रेस नेता एमबी पाटिल ने कहा कि उस वक्त राजीव गांधी के साथ जफर शरीफ थे. राजीव ने साफतौर पर कहा था कि राज्य को किसी ऐसे व्यक्ति पर नहीं छोड़ा जा सकता जो अस्वस्थ हो. इसके बाद बेंगलुरु एयरपोर्ट पर पहुंचते ही राजीव गांधी ने वीरेंद्र पाटिल को सीएम पद से हटाने का ऐलान कर दिया.


लिंगायत समुदाय के बड़े नेता होने के नाते पाटिल को सीएम की कुर्सी से हटाने का मुद्दा विपक्ष ने बनाया और लिंगायत समुदाय के अपमान के तौर पर मिर्च-मसाले के साथ उसका जमकर प्रचार किया गया.


उधर, कांग्रेस का तर्क था पाटिल के बिगड़े स्वास्थ्य के कारण ही उन्हें आराम देने के लिए ही पद से हटाया गया था. हालांकि, ऐसा भी कहा गया था कि पाटिल के अस्वस्थ होने के बावजूद राजीव गांधी ने लिंगायत नेता से मिलना भी ठीक नहीं समझा.


कांग्रेस को भुगतना पड़ा खामियाजा


साल 1989 में राजीव गांधी केंद्र में सत्ताहीन हो गए थे. उस समय कर्नाटक में वीरेंद्र पाटिल ने जनता दल के रामकृष्ण हेगड़े और जनता पार्टी के एचडी देवगौड़ा को हराकर कांग्रेस को बड़ी जीत दिलाई थी. रामकृष्ण हेगड़े भी लिंगायतों के सबसे बड़े नेता थे. लेकिन, पाटिल की वजह से लिंगायत समुदाय ने कांग्रेस को एकतरफा वोट दिया था. साल 1989 में वीरेंद्र पाटिल की अगुआई में कांग्रेस ने 178 सीटें जीती थीं.


लेकिन, राजीव गांधी के उन्हें सीएम की कुर्सी से हटाने के बाद लिंगायत समुदाय की बढ़ती नाराजगी का खामियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ा. इसके बाद से आज तक कर्नाटक में लिंगायतों ने कांग्रेस की तरफ पलटकर भी नहीं देखा. उधर, रामकृष्ण हेगड़े लिंगायतों के लोकप्रिय नेता बन गए, उनके निधन के बाद लिंगायतों ने बीएस येदियुरप्पा को अपना नेता मान लिया था.


लिंगायत बन गए बीजेपी के वोटर 


लिंगायत समुदाय की नाराजगी के चलते साल 1994 के चुनाव में कांग्रेस सिर्फ 34 सीटें ही जीत पाई थी. वहीं, लिंगायतों से बीजेपी को फायदा हुआ और राज्य में पार्टी की 40 सीटें हो गईं, जो पहले सिर्फ 4 ही थीं. साथ ही, बीजेपी का वोट प्रतिशत भी 6% से बढ़कर 17% पहुंच गया. इसके अलावा, कर्नाटक में लिंगायत समुदाय के लोग बीजेपी के परंपरागत वोटर बन गए. साल 1999 में 44, साल 2004 में 79 और साल 2008 में 110 सीटों पर बीजेपी पहुंच गई. साल 2008 में लिंगायत वोटों के सहारे ही बीजेपी ने पहली बार कर्नाटक की सत्ता संभाली थी, जिसमें सीएम बीएस येदियुरप्पा बने. 


इसके बाद बीजेपी ने येदियुरप्पा को सीएम की कुर्सी से हटा दिया तो साल 2013 के विधानसभा चुनाव में लिंगायत आक्रोशित हुए और पार्टी सत्ता से आउट हो गई. फिर साल 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले येदियुरप्पा की घर वापसी हुई और उन्हें सीएम पद का उम्मीदवार बनाया गया. इसका सीधा फायदा बीजेपी को मिला और एक बार फिर वो सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी.


नाराज हो सकता है लिंगायत समुदाय


इस बार के विधानसभा चुनाव से येदियुरप्पा बाहर हो चुके हैं. येदियुरप्पा के बाद अब जगदीश शेट्टार ही लिंगायतों के सबसे बड़े नेता के तौर पर बीजेपी में थे. लेकिन, पार्टी से टिकट ना मिलने की वजह से उन्होंने भी पार्टी छोड़ दी और कांग्रेस में शामिल हो गए हैं. इस हिसाब से फिर से ऐसे में लिंगायतों की नाराजगी बढ़ सकती है, जो बीजेपी के लिए नुकसानदायक साबित होगा.


प्रभावशाली और ताकतवर जाति है लिंगायत


कर्नाटक की सियासत में सबसे महत्वपूर्ण और ताकतवर जाति लिंगायत समुदाय है. राज्य में लिंगायतों की आबादी 16% के करीब है, जो 224 सीटों में से करीब 67 सीटों पर खुद जीतने या फिर किसी दूसरे को जिताने की ताकत रखते हैं. सामाजिक रूप से लिंगायत सेंट्रल कर्नाटक, उत्तरी कर्नाटक के क्षेत्र में प्रभावशाली जातियों में गिनी जाती है. राज्य के दक्षिणी हिस्से में भी लिंगायत लोग रहते हैं.


येदियुरप्पा और शेट्टार जैसी नहीं है बोम्मई की पकड़


साल 2018 के चुनाव में सबसे ज्यादा 58 लिंगायत समुदाय के विधायक जीते थे. इसमें बीजेपी के 38, कांग्रेस के 16 और जेडीएस के 4 विधायक थे. वर्तमान सीएम बसवराज बोम्मई भी लिंगायत समुदाय से आते हैं. लेकिन, जो येदियुरप्पा और जगदीश शेट्टार जैसी सियासी पकड़ उनमें नहीं है.


इस चुनाव में येदियुरप्पा बाहर है और शेट्टार कांग्रेस में है. ऐसे में लिंगायतों की नाराजगी से बीजेपी को घाटा हो सकता है. खैर, ये दिलचस्प देखना होगा कि इस बार लिंगायतों का विश्वास बीजेपी पर पहले की तरह कायम रहता है या फिर कांग्रेस को सेंध लगाने में कामयाबी मिलेगी.


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