Karnataka Election Results: कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने शानदार जीत दर्ज की है. इस जीत का जश्न मनाने के लिए पार्टी के पास तमाम कारण हैं. पार्टी की जीत एक विशिष्ट सत्ता परिवर्तन का प्रतीक है, जो राज्य में बीजेपी के जरिये मजबूती से आयोजित किया गया था. कांग्रेस की 135 सीटों के विपरीत 224 में से बीजेपी केवल 65 सीटें ही हासिल कर सकी. हालांकि, यह जीत राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस के पुनरुत्थान के लिए एक संभावित स्प्रिंगबोर्ड हो सकती है. वहीं बीजेपी के अलावा, इस चुनाव से मिले महत्वपूर्ण सबक पर अन्य पार्टियों को भी विचार करना चाहिए.
मतदाताओं को डर फैलाने से बचाएं
पहला और सबसे महत्वपूर्ण सबक यह है कि 'अराजकता' शब्द का इस्तेमाल अक्सर कम्युनिस्टों और इस्लामवादियों के जरिये उस लोकतंत्र का शोषण करने के लिए किया जाता है, जो उन्हें लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार को 'अवैध' कहने का अधिकार भी देता है. भारत के महत्वाकांक्षी युवाओं को किसी भी प्रचार के खिलाफ शिक्षित करना महत्वपूर्ण है जो उन्हें जमीनी अवसर पर असहाय महसूस कराएगा या उन्हें नगरपालिका से राष्ट्रीय स्तर पर अपने प्रतिनिधियों को चुनने में बाधा डालेगा.
राजनीतिक नेताओं को लोकतंत्र के तथ्यों को उनके सामने रखने का प्रयास करना चाहिए और उन्हें डर फैलाने से बचाना चाहिए. लोकतंत्र में कोई भी राजनीतिक दल जीत सकता है. इसी सिद्धांत ने कांग्रेस को जीत का इनाम दिया है और कर्नाटक चुनाव में बीजेपी को सबक सिखाया है. भारत में लोकतंत्र ठीक वैसे ही है, जैसे पाकिस्तान की सेना का पाकिस्तान पर मालिकाना हक है.
स्थानीय मुद्दों को प्राथमिकता
इसके बाद, दोनों पार्टियों को स्थानीय मुद्दों को प्राथमिकता देने वाले मजबूत उम्मीदवारों के चयन के महत्व को समझना चाहिए, क्योंकि यह चुनाव परिणामों को बहुत प्रभावित करता है. जहां कर्नाटक में बीजेपी की डबल इंजन सरकार की पिच विफल रही, तो वहीं पार्टी अपने मजबूत स्थानीय नेताओं के कारण उत्तर प्रदेश और असम में हावी रही. यह इस बात का प्रमाण है कि केवल मोदी के नाम पर विधानसभा चुनाव नहीं जीते जा सकते. विधानसभा चुनावों में स्थानीय मुद्दे अक्सर राष्ट्रीय राजनीतिक विचारों पर भारी पड़ते हैं और पार्टियों को उन्हें वह महत्व देना चाहिए जिसके वे हकदार हैं.
कर्नाटक में अलग दृष्टिकोण
इसी तरह, कांग्रेस लंबे समय से हर उपलब्धि का श्रेय गांधी परिवार को देने की गलती करती रही है और अपनी अपील को सीमित करती रही है. हालांकि, पार्टी ने राज्य स्तर की चिंताओं को स्वीकार करते हुए कर्नाटक में एक अलग दृष्टिकोण अपनाया. उदाहरण के तौर पर डेयरी को-ऑपरेटिव के जरिये राज्य में ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म पर उत्पाद बेचने की अपनी योजना की घोषणा के बाद कांग्रेस ने अमूल पर हमला किया. पार्टी ने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार का यह कदम राज्य में स्थानीय रूप से स्थापित सहकारी दूध ब्रांड नंदिनी को कमजोर करने का एक सचेत प्रयास था. कांग्रेस ने अमूल के प्रवेश से कर्नाटक डेयरी उद्योग को होने वाले संभावित जोखिमों को उजागर करके स्थानीय भावना को सफलतापूर्वक पकड़ लिया. कर्नाटक डेयरी उद्योग 25 लाख से अधिक किसानों का समर्थन करता है.
तुष्टीकरण और विवाद की रणनीति
तुष्टिकरण और विवाद उत्पन्न करने की रणनीति की सीमाएं हैं, जो एक पॉइंट के बाद वांछित परिणाम नहीं देती हैं. बीजेपी ने आरक्षण मैट्रिक्स पर खेलने की कोशिश की और मुसलमानों को ओबीसी कोटे से हटाकर उन्हें ईडब्ल्यूएस श्रेणी में स्थानांतरित कर दिया. इसके साथ, लिंगायत और वोक्कालिगा समुदायों के लिए आरक्षण बढ़ाया, जिसके बावजूद पार्टी कोई कोई मदद नहीं मिली. केवल पसमांदा मुसलमानों के लिए ही नहीं, बल्कि लिंगायत और वोक्कालिगा को बीजेपी के वोट बैंक में मजबूत करने में भी यह कदम विफल रहा. लिंगायत समुदाय के वर्चस्व वाले निर्वाचन क्षेत्रों में कांग्रेस ने 44 और बीजेपी केवल 20 सीटें जीतने में सफल रही.
बजरंग दल पर बैन
कांग्रेस ने चुनावी घोषणा पत्र में बजरंग दल जैसे संगठनों पर प्रतिबंध लगाने का वादा करने के बाद एक राष्ट्रव्यापी बहस शुरू हो गई, जिसने पीएम नरेंद्र मोदी सहित प्रमुख बीजेपी नेताओं का ध्यान आकर्षित किया. इसके बाद राज्य के डिप्टी सीएम बनने वाले डीके शिवकुमार ने यह कहकर कांग्रेस के पक्ष में तालियां बजवा दीं कि उनकी पार्टी पूरे राज्य में हनुमान मंदिरों का निर्माण करेगी.
भ्रष्टाचार का मुद्दा
भ्रष्टाचार के मुद्दे ने बिना विवाद के ही मौजूदा सरकार के परिणाम को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. कांग्रेस ने बीजेपी को '40 प्रतिशत कमीशन' सरकार के रूप में कुशलता से लेबल करके कर्नाटक चुनाव अभियान में भ्रष्टाचार को अपना मुख्य केंद्र बना लिया. इस अभियान और चुनाव के नतीजे बताते हैं कि कर्नाटक में भ्रष्टाचार वास्तव में एक प्रमुख मुद्दा है. वास्तव में, पूरे भारत के राजनीतिक इतिहास में, भ्रष्टाचार ने अक्सर सत्तारूढ़ सरकारों के भाग्य का निर्धारण करने में एक निर्णायक भूमिका निभाई है. पूर्व पीएम वीपी सिंह और मनमोहन सिंह से जुड़े मामले इस बात का उदाहरण हैं कि कैसे भ्रष्टाचार मौजूदा प्रशासनों की गति को गहराई से प्रभावित कर सकता है.