विरासत: जयंत चौधरी पर पिता के विरासत को बचाने की चुनौती, बागपत से लड़ रहे हैं चुनाव
2014 की हार के बाद अजित सिंह ने आरएलडी का गढ़ माने जाने वाले बागपत से अपने बेटे जयंत चौधरी को उतारा है, जबकि खुद मुजफ्फरनगर से चुनावी मैदान में हैं.
नई दिल्ली: चौधरी अजित सिंह लोकसभा चुनाव 2019 में मुजफ्फरनगर सीट से मैदान में हैं. इसी सीट पर 1971 में उनके पिता और देश के पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह चुनाव हार गए थे. अजित ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है लेकिन राजनीति उन्हें अपने पिता से विरासत में मिली. वे राष्ट्रीय लोकदल के संस्थापक हैं और इस चुनाव में उन्होंने सपा-बसपा गठबंधन को समर्थन दिया है.
अजित सिंह के राजनीतिक करियर की बात करें तो पहली बार वह 1986 में उत्तर प्रदेश से राज्य सभा में पहुंचे. इसके बाद 1987 में उन्हें लोकदल का अध्यक्ष बनाया गया. इसके बाद बागवत से पहली बार वह लोकसभा चुनाव 1988 में जीता था. इसके बाद 1998 में पहली बार उनकी इस सीट पर हार हुई. वह बीजेपी नेता सोमपाल शास्त्री से चुनाव हार गए थे. इसके बाद उन्होंने अपनी पार्टी राष्ट्रीय लोकदल बनाई. साल 1999 में वह चुनाव फिर जीते और साल 2009 तक लगातार जीतते रहे, लेकिन साल 2014 के चुनाव में वह बीजेपी के सत्यपाल हार गए.
वह विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार में वह उद्दयोग मंत्री रहे. इसके अलावा अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार में केंद्रीय कृषि मंत्री रहे. 2001 में मनमोहन सिंह की सरकार में नागरिक उड्डयन मंत्री बनाए गए.
इस बार बागपत से बेटे को उतारा चुनावी रण में
2014 की हार के बाद अजित सिंह ने आरएलडी का गढ़ माने जाने वाले बागपत से अपने बेटे जयंत चौधरी को उतारा है, जबकि खुद मुजफ्फरनगर से चुनावी मैदान में हैं. यहां अजित का मुकाबला पूर्व केन्द्रीय मंत्री और बीजेपी से मौजूदा सांसद संजीव बालियान से है जबकि कांग्रेस ने इस सीट पर कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं किया है.
अजित सिंह की विरासत के उत्तराधिकारी और उनके पुत्र जयंत चौधरी ने पिछला लोकसभा चुनाव जयंत ने मथुरा से लड़ा था लेकिन इस बार वह बागपत की पारिवारिक सीट से उतरे हैं. 2009 में जयंत चौधरी ने मथुरा लोकसभा सीट से बीएसपी के श्याम सुंदर शर्मा को हराया था. 2014 की मोदी लहर में जयंत यह सीट बॉलिवुड की ड्रीम गर्ल हेमा मालिनी से गंवा बैठे. बागपत में इस बार जयंत चौधरी के सामने बीजेपी के सत्यपाल सिंह हैं. उन पर अपने दादा और पिता की विरासत को बचाकर रखने का दबाव है. कुछ लोग इसे आरएलडी के वजूद की लड़ाई भी बता रहे हैं.
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