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लोकसभा चुनाव 2019 :खुद की बिछाई बिसात के चक्रव्यूह में उलझ गई BJP, गोरखपुर सीट पर उम्मीदवार को लेकर पेंच ही पेंच
लोकसभा चुनाव में यूपी की अहम सीटों में गोरखपुर सदर सीट भी मानी जा रही है. लेकिन इस बार गोरखपुर सीट पर उम्मीदवार को लेकर एक ही पेंच ही पेंच दिखाई दे रहा है. इसी सीट पर यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ लगातार पांच बार सांसद रहे हैं.
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गोरखपुर: साल 2019 का लोकसभा चुनाव शुरू होने के पहले ही रोचक मोड़ पर आ गया है. सीटों पर उम्मीदवार के जोड़-तोड़ में बीजेपी जैसी दिग्गज पार्टी भी असमंजस में दिख रही है. यही वजह है कि गोरखपुर सीट पर उम्मीदवार की घोषणा को लेकर बीजेपी अपनी ही बिछाई बिसात के चक्रव्यूह में उलझ कर रह गई है. अब गोरखपुर सीट पर उम्मीदवार को लेकर एक ही पेंच ही पेंच दिखाई दे रहा है.
लोकसभा चुनाव में यूपी की अहम सीटों में गोरखपुर सदर सीट भी मानी जा रही है. इसी सीट पर यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ लगातार पांच बार सांसद रहे हैं. उसके पहले उनके गुरु महंत अवेद्यनाथ इसी सीट पर तीन बार सांसद रहे. यानी लगातार आठ बार इस सीट पर गोरक्षपीठ का कब्जा रहा है. ऐसे में इस सीट के महत्व का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है. लेकिन, सांसद योगी आदित्यनाथ के साल 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री बनते ही ये सीट खाली हो गई. साल 2018 में हुए उप-चुनाव में बीजेपी को गोरखपुर लोकसभा सीट से हाथ धोना पड़ा.
उपचुनाव को हल्के में लेना भारतीय जनता पार्टी को भारी पड़ गया. बीजेपी के प्रत्याशी उपेंद्र दत्त शुक्ल को समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी प्रवीण निषाद के हाथों हार का सामना करना पड़ा. प्रवीण निषाद ने साढ़े बाइस हजार वोटों के साथ जीत हासिल कर बड़ा उलटफेर कर दिया.
उप-चुनाव में गोरखपुर सीट हाथ से निकल जाने के कारण बीजेपी खेमे में निराशा फैल गई. क्योंकि बीजेपी के शीर्ष नेताओं को इस बात का पूरा विश्वास था कि योगी आदित्यनाथ की सीट होने के कारण यह सीट पूरी तरह से सुरक्षित है. लेकिन, ऐसा नहीं हुआ और जरूरत से ज्यादा विश्वास में यह सीट मंदिर के हाथ से निकल गई. उप-चुनाव में मिली हार का असर ऐसा रहा कि बीजेपी खेमे में खलबली मच गई. क्योंकि इसे लोकसभा चुनाव 2019 का होमवर्क भी माना जा रहा था. जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सीट इतनी अहम है कि उस पर हार का असर अन्य सीटों पर भी पड़ सकता है. ऐसे में आसपास के जिलों की सीटों का प्रभावित होना हैरान करने वाला नहीं होगा.
यही वजह है कि बीजेपी शीर्ष नेतृत्व में कई बड़े दिग्गज नेताओं की माथे पर चिंता की लकीर आ गई. लोकसभा चुनाव के पहले आचार संहिता लगते ही शीर्ष नेतृत्व में गोरखपुर सीट को लेकर मंथन होने लगा. लेकिन, निषाद वोट बैंक की काट खोज पाना मुश्किल ही लग रहा था. उप-चुनाव में ब्राह्मण कैंडिडेट को आजमा चुकी बीजेपी फिर से गलती दोहराना नहीं चाहती थी. हालांकि बीजेपी के प्रदेश उपाध्यक्ष उपचुनाव में हार चुके प्रत्याशी उपेंद्र दत्त शुक्ल और बीजेपी के क्षेत्रीय अध्यक्ष धर्मेंद्र सिंह के नाम पर चर्चा होती रही. लेकिन, शीर्ष नेतृत्व को बात जमी नहीं. इसके बाद सपा नेता अमरेंद्र निषाद और उनकी मां पूर्व विधायक राजमती निषाद को बीजेपी में शामिल कर लिया गया.
उम्मीद की जाने लगी कि प्रवीण निषाद के खिलाफ अमरेंद्र निषाद को बीजेपी टिकट दे सकती है. लेकिन उनके पिता स्वर्गीय जमुना निषाद की भाजपा विरोधी छवि और अमरेंद्र का बड़ा नाम नहीं होने की वजह से इस नाम पर भी मुहर नहीं लग पाई. इसके बाद फिर नए सिरे से मंथन शुरू हुआ और निषाद वोट बैंक को समेटने के लिए प्रवीण निषाद को ही उनके काट के रूप में इस्तेमाल करने के लिए जोड़-तोड़ होने लगा. नतीजा सकारात्मक निकला और निषाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और गोरखपुर के सपा सांसद प्रवीण निषाद के पिता डा. संजय निषाद ने गठबंधन से नाता तोड़ लिया. लखनऊ में इसके ऐलान के 4 दिन बाद ही वे बेटे को लेकर दिल्ली पहुंच गए. वहां पर बीजेपी के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय मंत्री जेपी नड्डा ने प्रवीण निषाद को बीजेपी की सदस्यता दिला दी. यहीं से यह माना जाने लगा कि प्रवीण निषाद को टिकट देकर बीजेपी चुनावी रण को जीतना चाहती है.
लेकिन, बीजेपी अपनी बिछाई बिसात के चक्रव्यूह में ऐसा फंस गई, जिसका उसे अंदाज भी नहीं था. सूत्रों की मानें तो जिस प्रवीण निषाद के नाम पर लगभग मुहर लगी चुकी थी, बीजेपी के स्थानीय पदाधिकारियों में उनके नाम को लेकर फुस-फुसाहट होने लगी. ब्राह्मण, क्षत्रिय और सैंथवार बिरादरी के पदाधिकारी और कार्यकर्ता अंदर ही अंदर उनके नाम का विरोध करने लगे. यह बात जब शीर्ष नेतृत्व तक पहुंची, उसके बाद फिर से गोरखपुर के उम्मीदवार के नाम पर मंथन किया जाने लगा.
सूत्रों की मानें तो पुराने स्थानीय नेताओं और वरिष्ठ पदाधिकारियों की नाराजगी के कारण शीर्ष नेतृत्व को बैकफुट पर आना पड़ा. ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि अब गोरखपुर से बीजेपी किसे अपना उम्मीदवार बनाती है. जिससे न तो स्थानीय पदाधिकारी और पुराने नेता नाराज हो और इस सीट पर उप-चुनाव की तरह फिर से हार का सामना न करना पड़े.
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रुमान हाशमी, वरिष्ठ पत्रकार
Opinion