Lok Sabha Elections 2019: मोदी नहीं तो कौन? लोकसभा चुनाव में इस सवाल पर हर तरफ बहस छिड़ी है. बीजेपी हर मौके पर जोर देकर इस सवाल को उठा रही है, ताकि आम मतदाताओं के विमर्श में यह मुद्दा छाया रहे. दरअसल, विपक्षी पार्टियों के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं है, जिसके नाम को लेकर वह जनता के बीच जाए और वोट की अपील करे. बीजेपी 2014 के लोकसभा चुनाव की तरह ही पीएम मोदी के चेहरे पर वोट मांग रही है. बीजेपी और खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दावा करते रहे हैं कि अगर विपक्ष जीता तो गठबंधन में प्रधानमंत्री पद को लेकर सिर फुटव्वौल होगा, जो किसी बड़े राजनीतिक संकट से कम नहीं है.


दरअसल, इस तरह की राजनीतिक स्थिति को TINA (There Is No Alternative-कोई विकल्प नहीं है) फैक्टर कहते हैं. सत्तारूढ़ पार्टी इस फैक्टर के फायदे को बखूबी समझती है. लेकिन इतिहास में कई ऐसे मौके आए हैं जब तब कि विपक्षी पार्टियां सत्तारूढ़ दल के खिलाफ गठबंधन कर बगैर किसी चेहरे के चुनाव लड़ी है और केंद्र में सरकार का गठन किया है. पहली बार 1977 में ऐसा हुआ और एक-दो मौकों को छोड़ दें तो यह सिलसिला चलता रहा.


साल 1977 के चुनाव में TINA फैक्टर थोड़ा कमजोर हुआ और करीब 20 साल बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने इस फैक्टर को करीब-करीब कमजोर कर दिया है. दरअसल, 1977 में पहली बार गैर-कांग्रेसी गठबंधन की सरकार बनी थी. इमरजेंसी के ठीक बाद हुए चुनाव में इंदिरा गांधी को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा. खुद इंदिरा भी रायबरेली की सीट से चुनाव हार गईं. जनता पार्टी बगैर किसी चेहरे को आगे किये चुनाव लड़ी और मोरारजी देसाई गठबंधन सरकार में प्रधानमंत्री बने.


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लेकिन ढ़ाई साल के भीतर जिसका डर आज प्रधानमंत्री दिखा रहे हैं वही हुआ. मोरारजी देसाई के साथ-साथ कई ऐसे चेहरे थे जो प्रधानमंत्री बनने की इच्छा पाले थे. जनता पार्टी की गठबंधन सरकार में दोहरी सदस्यता, इमरजेंसी से जुड़े केस को लेकर फूट पड़ा और चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने. नाटकीय ढ़ंग से चौधरी चरण सिंह को इंदिरा गांधी ने बहुमत परीक्षण के दौरान समर्थन देने का वादा किया, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. चरण सिंह को लोकसभा में बहुमत परीक्षण से पहले प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा. तीन साल के भीतर 1980 में चुनाव हुए और कांग्रेस ने पूर्ण बहुमत से जीत दर्ज की. जनता पार्टी की सरकार जाने की दो मुख्य वजह थी- पहला पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिलना और और दूसरा चेहरे की कमी थी.


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1980 के बाद दो-तीन मौकों को छोड़ दें तो उसके बाद गठबंधन की सरकार बनी और हर बार चेहरे और गठबंधन सहयोगियों की महात्वकांक्षा मजबूत सरकार नहीं दे पाई. पांच साल का कार्यकाल पूरा होने से पहले चुनाव करवाने पड़े. लेकिन 1999 के चुनाव में बीजेपी खुद बगैर किसी चेहरे (हालाँकि वाजपेयी का चेहरा था, लेकिन एलानिया नहीं था. ) को आगे किये चुनाव लड़ी और और जीत दर्ज की. अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने. उन्होंने पांच साल तक सरकार चलाई.


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अब विपक्षी पार्टियां बीजेपी को 1999 की वाजपेयी की सरकार की याद दिला रही है और प्रधानमंत्री पद के चेहरे की घोषणा नहीं करने को लेकर खुद का बचाव कर रही है. हालांकि बीजेपी बार-बार मोदी नहीं तो कौन? मायावती? ममता? राहुल? जैसा सवाल कर विपक्षी पार्टियों में असमंजस की स्थिति पैदा कर रही है.