Lok Sabha Elections 2024: लोकसभा चुनाव 2024 की तैयारियां अंतिम पड़ाव पर हैं. देश की 18वीं लोकसभा के लिए इस चुनाव के जरिए सांसदों का चयन होगा. देश में पहली बार चुनाव 1951-52 में हुए थे. इसके बाद से भारत में लोकतंत्र लगातार आगे बढ़ा है और अब 18वीं लोकसभा के लिए चुनाव होने हैं. समय के साथ चुनाव आयोग, उसके काम करने का तरीका और उसके सामने मौजूद चुनौतियां सब बदल चुका है. यहां हम बता रहे हैं कि पहले आम चुनाव से लेकर अब तक चुनाव आयोग कि चुनौतियां कितने बदली हैं.


शुरुआत में चुनाव आयोग के लिए मतदाता सूची में लोगों को शामिल करना ही बड़ी चुनौती थी. इसके बाद सुदूर क्षेत्रों में चुनाव करना. बूथ कैप्चरिंग से निपटना और वोटों की खरीद रोकना बड़ी समस्या रहा. अब फेक वीडियो और आर्टिफिशियल इंटिलिजेंस की मदद से नेता चुनाव जीतने की कोशिश करते हैं. तकनीकि के दुरुपयोग को रोकना भी आज के समय में चुनाव आयोग के सामने बड़ी समस्या है.


पहले चुनाव में कैसे थे हालात
देश के पहले चुनाव में हालात आज के समय की तुलना में काफी अलग थे. मतदाता सूची में सभी लोगों के नाम शामिल करना बड़ी चुनौती थी. इसके लिए 16500 लोगों को छह महीने के अनुबंध में नौकरी पर रखा गया था. इस चुनाव में लगभग 17 करोड़ लोग शामिल थे. इनमें से 85 फीसदी लोग पढ़ने-लिखने में सक्षम नहीं थे. 499 लोकसभा सीटों के लिए हुए मतदान में 80 लाख महिलाएं शामिल नहीं थीं, क्योंकि वह अपना नाम बताना नहीं पसंद करती थीं. इस वजह से उनका नाम मतदाता सूची में ही नहीं जुड़ा था. मतपत्र ले जाने के लिए कई इलाकों पर पुल बनाए गए थे. 8200 टन इस्पात से मतपेटियां बनाई गई थीं. नौसैनिक पोत के जरिए भी कुछ जगहों पर मतपेटियां ले जाई गई थीं.


भारतीय मतदाता अपने उम्मीदवार को नाम से नहीं जानते थे. अधिकतर चुनाव प्रचार बड़े नेताओं ने ही किया था. इनमें नेहरू अकेले थे, जिन्होंने हवाई जहाज का इस्तेमाल करके प्रचार किया था. ऐसे में मतदान केंद्र में हर पार्टी के चुनाव चिन्ह के साथ पेटियां रखी रहती थीं, जिन पर मतदाता वोट डालते थे. मतदान अक्टूबर में शुरू हुआ था और फरवरी में खत्म हुआ था. सिनेमाघरों में मतदान से जुड़ी जानकारी देते हुए चित्र दिखाए गए थे.


मतदाताओं की उंगली में एक सप्ताह तक न मिटने वाली स्याही लगाए जाने की परंपरा भी इसी दौरान शुरू हुई थी. मध्यप्रदेश के शहडोल में सिर्फ 20 फीसदी मतदान हुआ था. हालांकि, कुम मतदान 60 फीसदी था.


बीच के चुनावों में कैसे बदली चुनौतियां?
1951 के बाद चुनाव आयोग के लिए मतदाता सूची बनाने और सुदूर क्षेत्रों में मतदान कराने में पहले जैसी परेशानी नहीं हुई, क्योंकि इससे निपटने के तरीके खोज लिए गए थे. अब चुनौती थी निष्पक्ष चुनाव कराने की. कई जगहों पर चुनाव की टीम में नक्सली हमला करते थे तो कई जगहों पर मतपेटियां लूट ली जाती थीं. पोलिंग बूथ पर कब्जा करके मनमाने तरीके से वोट डलवाए जाते थे. दबंगों के डर से लोग वोट डालने नहीं आते थे या सिर्फ उन्हीं के पक्ष में वोट करते थे. फर्जी फतदाता भी वोट करने आते थे. मतदान से पहले शराब या पैसे बांटकर वोट खरीदे जाते थे. इनसे भी निपटने के लिए चुनाव आयोग ने सुरक्षा बलों की मदद ली और लगातार जागरुकता फैलाई.


बैलेट पेपर की जगह ईवीएम से मतदान शुरू हुआ तो इस पर भी सवाल खड़े किए गए. चुनाव आयोग ने लोगों को भरोसा दिलाया कि ईवीएम में कोई गड़बड़ी नहीं है और इसे हैक नहीं किया जा सकता.


अब क्या हैं चुनौतियां?
मौजूदा समय में शराब या पैसे बांटने की घटनाओं में काफी कमी आई है, लेकिन अब चुनौतियां बदल गई हैं. तकनीक का दुरुपयोग कर नेता चुनाव जीतने की कोशिश करते हैं. पिछले साल तेलंगाना में मतदान शुरू होने के साथ ही व्हाट्सएप पर एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें राज्य के मुख्यमंत्री केटी रामा राव कांग्रेस को वोट देने की बात कह रहे थे. यह वीडियो पूरी तरह फर्जी था और डीपफेक की मदद से बनाया गया था. हालांकि, जब तक इसकी सच्चाई लोगों को पता चलती, तब तक मतदान हो चुका था और कांग्रेस ने यह चुनाव स्पष्ट बहुमत के साथ जीता. 


लोकसभा चुनाव 2024 में भी डीपफेक और अन्य तकनीक के दुरुपयोग की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता. ऐसे में चुनाव आयोग के सामने लोगों को जागरुक करने और राजनीतिक पार्टियों द्वारा तकनीक के दुरुपयोग को रोकने की चुनौती है.

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