मुंबई: मुफ्ती मोहम्मब सईद और गुलशन आरा की बेटी महबूबा मुफ्ती का जन्म 22 मई 1959 को अनंतनाग ज़िले के बिजबेहरा टाउन में हुआ था. कश्मीर यूनिवर्सिटी से उन्होंने कानून की पढ़ाई की. उनके पिता मुफ्ती मोहम्मब सईद बड़े राजनेता थे. वीपी सिंह की सरकार में वो भारत के गृहमंत्री रहे. लेकिन महबूबा मुफ्ती काफी वक्त तक राजनीति से दूर रहीं. परिवार में उनकी दो बहने हैं, रुबैया और महमूदा सईद और एक भाई मुफ्ती तसादुक सईद. महबूबा ने 1984 में जावेद इकबाल शाह से शादी की. उनकी दो बेटियां भी हैं, इरतिका इकबाल और इल्तिजा इकबाल. हालांकि बाद में उनका और जावेद का तलाक हो गया था.
महबूबा मुफ्ती का सियासी सफर
देश में 17वें लोकसभा चुनाव का काउंटडाउन शुरू हो चुका है. इस बार चुनाव से ऐन पहले कश्मीर में बड़ा आतंकी हमला हुआ है. हमले के बाद से कश्मीर के मुख्तलिफ मसले एक बार फिर उठ खड़े हुए हैं. धारा 370 और 35ए का मुद्दा भी चर्चा में है. इन सब के बीच जिस एक चीज़ पर गौर करने की ज़रूरत है वो है इन मसलों के हवाले से हो रही राजनीति. महबूबा मुफ्ती जम्मू कश्मीर की सबसे ताकतवर महिला नेता हैं. भले ही उनका राजनीतिक सफर काफी उतार चढ़ाव भरा रहा हो, लेकिन जिस तरह से उन्होंने अपनी पार्टी ‘पीपल्स डेमोक्रेटिक एलायंस’ की शुरुआत की और सत्ता की दलहीज़ तक पहुंचाया, उससे उनके सियासी कद के बारे में पता चलता है.
महबूबा मुफ्ती ने 37 साल की उम्र में सियासत की दुनिया में कदम रखा था. साल 1996 में वो कांग्रेस के टिकट पर साउथ कश्मीर के बिजबेहरा से विधानसभा चुनाव लड़ीं और जीत भी हासिल की. इस जीत के बाद से ही महबूबा ने सियासी हलको में अपनी पहचान बनानी शुरू कर दी थी. कहा जाता है कि फारूक अब्दुल्लाह की पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस को जम्मू कश्मीर की सत्ता से बेदखल करने में सबसे बड़ा हाथ महबूबा मुफ्ती का ही था.
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अपनी सियासत के शुरुआती दौर में महबूबा मुफ्ती ने पीडीपी को मज़बूत करने के लिए नई तरह की राजनीति शुरु की. जिस वक्त घाटी में हिंसा ज़ोरों पर थी, उस दौर में महबूबा मुफ्ती उन परिवारों से मिलने पहुंच जाया करती थीं, जिनके अपने कथित तौर पर सरकारी गोलियों का शिकार होते थे. इसके अलावा महबूबा उनके परिवारों के साथ भी खड़ी नज़र आती थीं, जो चरमपंथियों का निशाना बनते थे.
महबूबा मुफ्ती ने घाटी में ज़मीन पर उतरकर राजनीति करना शुरू कर दिया था. उनके कई कदमों का जहां विपक्ष विरोध करता, वहीं, दूसरी तरफ अवाम का महबूबा मुफ्ती के बातों पर यकीन बढ़ने लगा था. उन्होंने धीरे धीरे कश्मीर के लोगों के दिलों को जीता और फिर साल 2002 में कांग्रेस के साथ मिलकर पहली बार पीडीपी की सरकार बनाने में कामयाब रहीं. इसके साथ ही सालों से कश्मीर की सत्ता पर काबिज़ होने की मुफ्ती मोहम्मद सईद की ख्वाहिश भी पूरी हो गई थी.
"महबूबा मुफ्ती का अपना राजनीतिक दबदबा तकरीबन खत्म हो गया”
भले ही जम्मू कश्मीर में लोकसभा की महज़ 6 सीटे हों, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में इस प्रदेश के नेताओं की अहमियत बड़ी है. राजनीतिक पार्टियां कश्मीर के मुद्दे को उठाकर देश के कई इलाकों में वोट पाने की ख्वाहिश रखती हैं. कश्मीरी नेताओं के बयानों पर पलटवार कर हिंदी पट्टी के राजनेता सिर्फ तालियां ही नहीं, बल्कि वोट भी बटोरते हैं. यही वजह है कि लोकसभा चुनाव में कश्मीरी नेताओं की भूमिका और भी बड़ी हो जाती है.
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चुनावी माहौल में महबूबा मुफ्ती की देश की राजनीति में कितनी अहमियत है ? क्योंकि राष्ट्रीय राजनीति में महबूबा के बयानों पर निशाना साध कर कई पार्टियां और नेता वोट बटोरने की कोशिश में रहते हैं. इस सवाल पर वरिष्ठ पत्रकार रियाज़ मसरूर कहते हैं, “महबूबा मुफ्ती की जो पूरी राजनीति है उसके दो चरम है. एक तो ये कि वो बीजेपी के साथ गठबंधन सरकार चला चुकी हैं. वो पूरी तरह से एक ऐसी सरकार की मुख्यमंत्री थीं, जिसमें बीजेपी के नेता भी थे और उनकी पार्टी के भी. उसके बाद उनमें अनबन हुई और वो दूर हो गए. उसके बाद से हालात खराब हुए हैं और महबूबा मुफ्ती का अपना राजनीतिक दबदबा तकरीबन खत्म हो गया.”
रियाज़ मसरूर का कहना है कि महबूबा मुफ्ती को उसी चीज़ से वापस आना है, जिस चीज़ से उन्होंने शुरू किया था. उनके मुताबिक, “वो चरमपंथियों की अप्रत्यक्ष तौर पर समर्थन में यकीन रखती हैं. उनके घरों में जाती हैं. और वो कहती हैं इंडिया पाकिस्तान बात करे. जैसा कि यहां सभी राजनीतिक दल कहते हैं. इस पर बीजेपी के नेता ये कहते हैं कि ये चरमपंथ का विस्तार है. हालांकि उससे महबूबा मुफ्ती को कोई फर्क नहीं पड़ता. क्योंकि महबूबा मुफ्ती पहले ही काफी ज़मीन खो चुकी हैं. और जितना बीजेपी उनका विरोध करेगी उतना वो यहां हीरो बनेंगी.”
रियाज़ मसरूर ने ये भी बताया कि कश्मीर में कुछ वर्ग ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि ये एक फिक्सर मैच भी हो सकता है, ताकि महबूबा मुफ्ती को प्रमोट किया जाए और दोबारा एक गठबंधन बनाया जाए. जब बीजेपी के नेता महबूबा मुफ्ती को अलगाववादी कहेंगे, उनको चरमपंथियों का समर्थक कहेंगे तो ऐसे में वो, अपना जो सपोर्ट खो चुकी हैं उसे वापस लाने में मदद मिलेगी.
कांग्रेस से अलग होकर बनाई पीडीपी
कांग्रेस के टिकट पर 1996 में महबूबा मुफ्ती विधानसभा का चुनाव जीती थीं. लेकिन 3 साल के बाद ही 1999 में पिता मुफ्ती मुहम्मद सईद के साथ मिलकर उन्होंने अपनी नई पार्टी पीडीपी का एलान कर दिया. मुफ्ती मोहम्मद सईद पार्टी के अध्यक्ष बनें और महबूबा मुफ्ती वाइस प्रेसिडेंट बनीं. 1999 के लोकसभा चुनाव में महबूबा उमर अब्दुल्लाह के सामने श्रीनगर से चुनावी मैदान में उतरीं, लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा, हालांकि तब तक उन्होंने राजनीतिक ज़मीन तैयार कर ली थी.
"कश्मीर के राजनेता सत्ता से बाहर होते ही थोड़े बहुत अलगाववादी बन जाते हैं"
कश्मीर मुद्दे पर महबूबा काफी मुखर हैं. भारत सरकार के खिलाफ उनके तल्ख तेवर को कैसे देखा जाए? इस पर रियाज़ मसरूर ने कहा, “यहां (कश्मीर) के जो भी राजनेता हैं, वो जब सरकार से बाहर रहते हैं तो थोड़े बहुत अलगाववादी बन जाते हैं. जिस तरह से आज कल उमर अब्हुल्लाह भी हैं और महबूबा मुफ्ती भी हैं. हालांकि इसका कोई महत्व नहीं है. लेकिन ये ज़रूर है कि जितना विरोध महबूबा के बयानों का होता उतना उमर अब्दुल्लाह के बयानों का नहीं होता. इसीलिए यहां कई लोग कहते हैं, क्योंकि महबूबा मुफ्ती ने बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई थी, तो हो सकता है कि किसी तरह का कोई समझौता हो, कि आप इस तरह के बयान दें कि महबूबा मुफ्ती चरमपंथियों की समर्थक हैं. तो इससे उनकी लोगों में एक धाक बैठेगी या वो जो ज़मीन खो चुकी हैं उसे फिर से हासिल कर पाएंगी. ये इसी तरह की राजनीति है.”
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महबूबा ने अब तक क्या पाया और क्या खोया ?
- पहली बार 1996 में एमएलए बनीं.
- 1999 के लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी पीडीपी के गठन के बाद श्रीनगर से उमर अब्दुल्लाह के खिलाफ मैदान में उतरीं, पर हार गईं.
- 2002 के विधानसभा चुनाव में पहलगाम विधानसभा सीट पर जीत हासिल की.
- साल 2004 के आम चुनाव में पहली बार लोकसभा पहुंची.
- 2009 में हार का सामना करना पड़ा.
- 2014 में एक बार फिर आम चुनाव में जीत मिली.
- दो साल बाद 2016 में पिता के निधन के बाद जम्मू-कश्मीर की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं.
देश की महिला लीडरों के सामने कहां ठहरती हैं महबूबा
देश की महिला लीडरों में महबूबा मुफ्ती का कद कितना ऊंचा है? इस सवाल पर रियाज़ मसरूर सीधे सीधे कहते हैं कि बिल्कुल उंचा नहीं है. उनका कहना है, “कश्मीर के लोग ममता बनर्जी, जयललीता, मायावती को बहुत ज्यादा पसंद करते हैं और तारीफ भी करते हैं. केजरीवाल की भी तारीफ करते हैं. अपने राज्य के हित को बचाने के लिए अगर आप केंद्र के साथ भिड़ जाते हैं, तो आपकी लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ जाता है.”
रियाज़ मसरूर ने कहा कि आप देख लीजिए मायावती, ममता बनर्जी या जयललीता (दिवंगत) को, जो अब हैं नहीं, लेकिन जब वो थीं, तो उनका किस तरह का व्यवहार रहता था. उनके अनुसार महबूबा मुफ्ती ने इन नेताओं की तरह कभी कुछ नहीं किया. मसरूर कहते हैं, “जब वो बीजेपी के साथ सरकार में थीं तब वो कुछ नहीं बोलती थीं. जब यहां लोग मर रहे थे. यहां लोगों पर बहुत ज्यादा जुल्म हो रहे थे तब उनको याद नहीं आया. जब उनको कुर्सी से हटाया गया तब उनको याद आ गया.”