नई दिल्ली: 2019 के लोकसभा चुनावों की तारीखों का एलान कर दिया गया है. तारीख तय होते ही तमाम राजनीतिक पार्टियां सत्ता हासिल करने की जद्दोजहद में जुट गई हैं. सरकार चला रही बीजेपी और विपक्ष में बैठी कांग्रेस दोनों के ही जीत को लेकर अपने-अपने दावे हैं. हालांकि, जनता के दिल में क्या है ये तो चुनावी नतीजों के बाद ही पता चल पाएगा. इस बार के लोकसभा चुनाव में महिला उम्मीदवारों की अहम भूमिका बताई जा रही है. बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती और यूपीए प्रमुख सोनिया गांधी भी उन ताकतवर महिलाओं में से हैं, जिनपर इस बार चुनाव में पूरे देश की नज़रें होंगी. यही वजह है कि हम इन दो बड़ी नेताओं सहित 2019 के लोकसभा चुनाव में उन 19 महिला नेताओं के कद और उनके असर को जानने की कोशिश कर रहे हैं, जो इस बार सत्ता के गलियारे में अपनी मौजूदगी दर्ज करा सकती हैं.
इस सीरीज़ के मद्देनज़र आज हम यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंस (यूपीए) की चेयरपर्सन सोनिया गांधी के बारे में बात करेंगे.
"लोकसभा सदस्य होने से कई तरह के फायदे मिलते हैं"
तबीयत नासाज़ रहने के बावजूद सोनिया गांधी लोकसभा का चुनाव लड़ रही हैं. इसके क्या संकेत हैं? इस सवाल पर वरिष्ठ पत्रकार और सोनिया गांधी की बायोग्राफी ‘सोनिया, अ बायोग्राफी’ लिख चुके रशीद किदवई ने कहा, “मुझे लगता है कि उनकी सेहत में काफी सुधार हुआ है. यही वजह है कि उन्होंने चुनाव लड़ने का फैसला किया. लेकिन उससे ज्यादा आश्चर्य इस बात का है कि उन्होंने अपने विवेक से रिटायरमेंट लिया था. और सक्रीय राजनीति से संन्यास लिया था. उसके बावजूद वो चुनाव लड़ रही हैं.”
रशीद किदवई कहते हैं कि सोनिया गांधी का चुनाव लड़ने का फैसला इस बात की ओर इशारा करता है कि वो न सिर्फ कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में मज़बूत करना चाह रही हैं, बल्कि 17वीं लोकसभा में जो सरकार बनाने की कोशिश होगी, उसमें उनकी सक्रीय भूमिका होगी. किदवई का मानना है कि लोकसभा का सदस्य होने से कई तरह के फायदे मिलते हैं, जैसे लुटियंस दिल्ली में रहना और साथ ही तमाम राजनीतिक दलो के संपर्क में रहना. सांसद बनने से ये काम आसान हो जाते हैं.
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सोनिया गांधी का राजनीतिक सफर
पहले 1984 में इंदिरा गांधी और फिर उसके लगभग सात साल बाद राजीव गांधी की हत्या से गांधी परिवार के कंधे पर टिकी कांग्रेस लड़खड़ाने लगी थी. इस बीच 1991, 1996, 1998 और 1999 के लोकसभा चुनाव हुए, जिनमें कांग्रेस की ताकत घटती ही चली गई. इन सब के दरमियान ये मांग भी लगातार उठती रही कि राजीव गांधी के बाद सोनिया गांधी को भी राजनीतिक ज़मीन पर उतरना चाहिए. पार्टी की ज़रूरतों को देखते हुए सोनिया गांधी ने साल 1997 में कांग्रेस ज्वाइन की और चुनाव प्रचार शुरू कर दिया. अप्रैल 1998 में सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर काबिज़ हुईं. उनसे पहले कांग्रेस की कमान सीताराम केसरी के हाथों में थी. सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर सबसे लंबे वक्त तक रहने वाली नेता भी हैं (1998 से 2017).
सोनिया गांधी सबसे लंबे समय तक कांग्रेस प्रेसिडेंट के पद पर रहने वाली नेता हैं. (साल 1998 से 2017) वो 19 सालों तक पार्टी की अध्यक्ष रहीं. उनके बाद इस वक्त राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष हैं.
कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद सोनिया गांधी ने संगठन को मज़बूत बनाने पर मेहनत की और जमकर चुनाव प्रचार किया, लेकिन लोकसभा चुनाव में वो कुछ खास असर नहीं डाल पाईं. हालांकि अध्यक्ष बनते ही तीन राज्यों दिल्ली, राजस्थान और मध्य प्रदेश में उन्होंने जीत दिलाई, जिससे कांग्रेस के कैडर में एक नई जान आ गई. सो रहे कार्यकर्ताओं को जगाने में सोनिया गांधी का अहम योगदान रहा. इस बीच उनके विदेशी मूल के होने का मामला भी उठता रहा. कई साथी इसी को वजह बनाकर कांग्रेस से अलग हो गए. लेकिन सोनिया गांधी ने किसी की परवाह नहीं की और आखिरकार 1999 के 114 सीटों से 2004 में कांग्रेस को 145 सीटों तक पहुंचा दिया. एनडीए को सत्ता से उखाड़ने के बाद माना जा रहा था कि सोनिया गांधी प्रधानमंश्री बनेंगी, लेकिन उन्होंने मनमोहन सिंह को आगे कर दिया और उन्हें पीएम की गद्दी सौंप दी. सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस दो बार, साल 2004 और 2009 में गठबंधन सरकार बनाने में कामयाब रही.
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"...तो सोनिया गांधी का कोई रोल नहीं होगा"
जिस स्थिती में कांग्रेस पार्टी इस वक्त है, उससे उबरने में सोनिया गांधी किस तरह से मददगार साबित हो सकती हैं? इस सवाल पर रशीद किदवई कहते हैं, “सारा दारोमदार इस पर बात पर है कि क्या नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जो एनडीए है वो पूर्ण बहुमत पा लेगी? अगर पूर्ण बहुमत आ जाता है तब तो सोनिया गांधी का कोई रोल नहीं रहेगा. लेकिन अगर पूर्ण बहुमत नहीं आता और एक त्रिशंकु लोकसभा आती है, तो उसमें सोनिया गांधी की भूमिका बहुत बड़ी होगी, क्योंकि वो ही राहुल गांधी से हर किस्म का त्याग या एडजेस्टमेंट करा सकती हैं.”
रशीद किदवई सोनिया गांधी के राजनीतिक कौशल पर रोशनी डालते हुए कहते हैं, “2004 में जिस तरह से उन्होंने (सोनिया गांधी) अपना राजनीतिक कौशल दिखाया, जब यूपीए बना था. उस वक्त उन्होंने तमाम पार्टियों को अपने साथ जोड़ा था. यूपीए में ऐसे-ऐसे भी दौर आए जब परस्पर विरोधी बसपा-सपा, नेशनल कॉन्फ्रेंस-पीडीपी और एआईएडीएमके-डीएमके ने साथ में समर्थन किया. ये उनका विचित्र राजनीतिक कौशल है, जिसका फायदा कांग्रेस उठाना चाहेगी.”
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सोनिया गांधी ने भले ही अध्यक्ष पद राहुल गांधी को सौंप दिया हो, लेकिन वो अब भी यूपीए की चेयरपर्सन हैं. अब इन हालातों में जब महागठबंधन को लेकर सरगर्मियां तेज़ हैं तो यूपीए अध्यक्ष के तौर पर उनके रोल को कैसे देखा जाए? इस पर रशीद किदवई बोले, “इस वक्त देश की राजनीति के तीन बिंदु हैं. पहला नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली एनडीए, दूसरा ऐसी क्षेत्रीय पार्टियां जिनका कांग्रेस से अच्छा तालमेल है और तीसरा, वो पार्टियां जो बीजेपी और कांग्रेस से समान रूप से दूरी बनाए हुए हैं. जिनमें बीजू जनता दल और केसीआर की तेलंगाना राष्ट्र समिति जैसी पार्टियां हैं.”
"सोनिया गांधी की भूमिका होगी महत्वपूर्ण"
रशीद किदवई के मुताबिक जब गठबंधन की सरकार होगी तो तरह तरह की परिस्थितियां पैदा होंगी. उन्होंने कहा कि ऐसा भी हो सकता है कि नीतीश कुमार को संकेद दिया जाए कि उनको प्रधानमंत्री बनाया जा सकता है. यूपीए और एनडीए को व्यावहारिक समूह बताते हुए उन्होंने कहा कि कोई भी नेता किसी तरफ भी पलटी मार सकता है. उनका मानना है, “अगर कांग्रेस और तीसरे मोर्चे की पर्याप्त सीटें आती हैं तो एक तरफ कांग्रेस में ये प्रयास होगा कि कोई कांग्रेस का ही प्रधानमंत्री हो और दूसरी तरफ क्षेत्रीय दल ये चाहेंगी कि कोई क्षेत्रीय नेता प्रधानमंत्री बने. तो ऐसी स्थिति से निपटने में सोनिया गांधी की महत्वपूर्ण भूमिका होगी.”