लखनऊ: इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों के इस्तेमाल से न सिर्फ मतदान और मतगणना में लगने वाला समय कम हुआ है ,मतगणना के मौके पर आम तौर पर दिखाई देने वाला जोश एवं रोमांच भी सिमट सा गया है. जरा अपनी यादों की किताब के पुराने पन्ने पलटिए और और करीब दो दशक पहले तक के मतगणना स्थल के बाहर के नजारे याद कीजिए जब इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनें नहीं आई थीं और न ही चुनाव आयोग का इतना खौफ था.
इस लोकसभा चुनाव में पहली बार मतदान करने वाली नयी पीढ़ी दो से तीन दिन तक चलने वाली मतगणना के रोमांच से महरूम रह गयी.
उत्तर प्रदेश के निदेशक सूचना अधिकारी और मतपत्रों से मतगणना कराने का अनुभव रखने वाले आईएएस अधिकारी शिशिर बताते है कि ‘तब, पहले मतपेटियां खुलती थीं, मेजों पर वोट पलटे जाते थे, उनकी गडि्डयां बनती थीं और इसके बाद एक एक वोट की गिनती होती थी. विवादित मतपत्रों की जांच माइक्रोस्कोप से होती थी लेकिन अगर फिर भी इसमें कोई विवाद हो जाता था तो फिर मत अवैध घोषित कर दिया जाता था. उन्होंने कहा कि पहले लोकसभा चुनाव में दो से तीन दिन और नगर निगम चुनाव में तीन दिन से ज्यादा का समय लगता था.
राजनीतिक विश्लेषक राजेंद्र द्विवेदी ने कहा कि उन दिनों तीन तीन दिन तक मतगणना का काम होता था और प्रत्येक राउंड के बाद कौन सा प्रत्याशी कितने वोट से आगे है, इसकी घोषणा होती थी और स्थिति हर कुछ घंटे में बदलती रहती थी. चुनाव परिणाम आने पर होली के त्यौहार सा नजारा होता था.’’द्विवेदी कहते है कि इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन से पूरे देश में एक साथ चुनाव वर्ष 2004 से आरंभ हुआ था. इससे पहले 1998 से 2001 के बीच देश के विभिन्न हिस्सों में कुछ क्षेत्रों में ट्रायल बेसिस पर ईवीएम को आजमाया गया था.
पहली बार मतदान करने वाले छात्र शिखर सिन्हा कहते है कि इसके बारे में हमें कोई जानकारी नहीं है,अपने घर वालों से सुना जरूर है कि चुनाव परिणाम आने में दो से तीन दिन लगते थे. अब तो फटाफट का जमाना है ईवीएम से समय बचता है और एक ही दिन में सारा हो हल्ला खत्म हो जाता है.
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