Lok Sabha Election 2019: ऐसा माना जाता है कि प्रधानमंत्री की गद्दी पर पहुंचने का रास्ता देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश से होकर आता है. लेकिन तीन दफे यूपी के मुख्यमंत्री रहने के बावजूद दो बार मुलायम सिंह यादव पीएम की कुर्सी को पाने से चूक गए. 2019 के लोकसभा चुनाव में जब मुलायम सिंह यादव अपनी आखिरी चुनावी लड़ाई लड़ रहे हैं, तो वहीं उनका परिवार अब दो हिस्सों में बंट चुका है. पूरी तरह से पार्टी की कमान संभाल चुके मुलायम के बेटे अखिलेश यादव ने इस चुनाव के लिए 25 साल पुरानी दुश्मनी खत्म करते हुए बीएसपी प्रमुख मायावती से हाथ मिलाया है. हालांकि परिवार में फूट और मोदी के खिलाफ इस लड़ाई तक पहुंचने से पहले मुलायम सिंह यादव के कुनबे ने दशकों का सियासी सफर तय किया है. लोकसभा चुनाव के लिए एबीपी न्यूज की खास सियासी घराना सीरीज में आज हम आपको मुलायम के परिवार की कहानी बताने जा रहे हैं.


पहलवानी का था शौक


मुलायम सिंह यादव का जन्म साल 1939 में यूपी के इटावा जिले के सैफई गांव में हुआ था. मुलायम सिंह के पिता एक किसान थे. मुलायम को बचपन में पहलवानी का शौक था. ऐसा बताया जाता है कि 9 साल की उम्र में ही मुलायम ने कुश्ती के कई दांव सीख लिए थे.


1950 में देशभर में डॉ राम मनोहर लोहिया की अगुवाई में समाजवादी आंदोलनों की शुरुआत हुई. लोहिया की राजनीति कांग्रेस विरोधी थी और मुलायम सिंह यादव इसी से प्रभावित हुए. 15 साल के मुलायम भी इस आंदोलन में कूद पड़े. पुलिस ने दूसरे नेताओं के साथ मुलायम को भी गिरफ्तार कर लिया. मुलायम पहली बार जेल गए.


1967 में पहली बार लड़ा चुनाव


इसके बाद मुलायम सिंह यादव का सीधा संपर्क राम मनोहर लोहिया से हुआ. 1967 में मुलायम सिंह यादव के राजनीति में एंट्री का दरवाजा खुला. मुलायम सिंह ने उस वक्त जसंवतनगर सीट से लोकसभा चुनाव लड़ा. जब नतीजें सामने आए तो मुलायम ने राजनीति के अखाड़े में पहली ही बार में कांग्रेस के दिग्गज नेता को पटखनी दे दी. 28 साल की उम्र में मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश के सबसे कम उम्र के विधायक बने.



1977 में वो राज्य के मुलायम सिंह यादव सहकारिता मंत्री बने और इस वक्त उनके छोटे भाई शिवपाल भी राजनीति में अपनी पकड़ बना चुके थे. शिवपाल सिंह मुलायम के लिए बूथ मजबूत करने का काम करने लगे. फिर मुलायम सिंह यादव ने राष्ट्रीय राजनीति में कदम रखने का फैसला कर लिया और अपनी जसवंतनगर सीट शिवपाल यादव के लिए छोड़ दी. मुलायम सिंह यादव ने अपने चचेरे भाई राम गोपाल की भी राजनीति में एंट्री करवाई और उन्हें राज्यसभा का सांसद बनवाकर दिल्ली भेज दिया.


1989 में मिली मुख्यमंत्री की कुर्सी

राजीव गांधी की सत्ता जाने के बाद मुलायम सिंह यादव की किस्मत पूरी तरह से चमक गई और वह 1989 में देश के सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री बने. लेकिन मुलायम सिंह यादव की सत्ता ज्यादा समय नहीं चल पाई और 1991 में ही उनकी सरकार गिर गई. इसके बाद 1993 के चुनाव में मुलायम सिंह यादव ने कांशीराम और मायावती की पार्टी बीएसपी से हाथ मिलाया और दूसरी बार राज्य के सीएम बने.


मायावती और मुलायम सिंह की पार्टी का ये गठजोड़ बहुत ज्यादा दिन तक चला नहीं. 1995 में बीएसपी ने भारतीय जनता पार्टी का समर्थन ले लिया और मायावती मुख्यमंत्री बन गई. मुख्यमंत्री की कुर्सी जाने के बाद मुलायम का कद सियासत में और बड़ा हो गया. 1996 में जब किसी पार्टी को गठबंधन नहीं मिला था तो मुलायम तीसरे मोर्चे की सरकार में रक्षा मंत्री बने.


अखिलेश यादव की राजनीति में एंट्री

मुलायम ने अपने बेटे अखिलेश यादव को 1998 में आस्ट्रेलिया से पढ़ाई करने के बाद ही राजनीति के मैदान में लाने का फैसला कर लिया. 2000 में मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव के लिए कन्नौज की सीट छोड़ दी और इस तरह से अखिलेश यादव पहली बार उपचुनाव लड़कर संसद में पहुंचे. 2002 में मुलायम तीसरी बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने.



2007 में मायावती पहली बार अपने दम पर बहुमत लाकर सरकार बनाने में कामयाब हुई. मुलायम के सत्ता के बेदखल होने के बाद अखिलेश यादव पार्टी में काफी एक्टिव हो गए. साल 2009 के आम चुनावों में अखिलेश ने फिरोजाबाद और कन्नौज सीट से चुनाव लड़ा और दोनों पर जीत दर्ज की. अखिलेश यादव ने इसके बाद फिरोजाबाद सीट को छोड़ने का फैसला किया. इस सीट पर उपचुनाव में अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल को उम्मीदवार बनाया गया. हालांकि डिंपल को अपने पहले चुनाव में हार का सामना करना पड़ा.


2014 का सपना टूटा


2012 के विधानसभा चुनाव के लिए अखिलेश ने जमकर प्रचार किया. समाजवादी पार्टी चुनाव में पूर्ण बहुमत पाने में कामयाब हुई. जीत का क्रेडिट अखिलेश यादव को दिया गया और आखिरकार मुलायम ने अपनी विरासत अखिलेश को सौंपते हुए राज्य के सीएम की कमान उनके हाथों में दे दी. सीएम बनने के बाद अखिलेश यादव मुलायम सिंह यादव को पीएम बनाने का सपना देखने लगे. अखिलेश यादव ने पार्टी कार्यकर्ताओं के सामने 50 सीटें जीतने का चैलेंज भी रखा. लेकिन मोदी लहर में एसपी के बहुमत की हवा निकल गई और सिर्फ परिवार के सदस्य ही चुनाव जीतने में कामयाब हो पाए.


फूट की शुरुआत

चुनाव में हार के बाद पार्टी और परिवार में आपसी फूट बढ़ने लगी. शिवपाल यादव के समर्थक अखिलेश के खिलाफ बोलने लगे. पार्टी में उस वक्त बड़ा उलटफेर हो गया, जब अक्टूबर 2016 में मुलायम सिंह यादव ने राम गोपाल यादव और अखिलेश यादव को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया. इसके जवाब में राम गोपाल यादव ने विशेष अधिवेशन बुलाकर मुलायम की जगह अखिलेश को समाजवादी पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष नियुक्त कर दिया और शिवपाल यादव की भी प्रदेश अध्यक्ष से छुट्टी कर दी.



इस लड़ाई के बाद दोनों गुट चुनाव आयोग पहुंच सिंबल की लड़ाई के लिए पहुंचे. अखिलेश यादव को जीत वहां जीत मिली और शिवपाल यादव को हार का सामना करना पड़ा. आपसी फूट के बीच ही अखिलेश यादव कांग्रेस के साथ गठबंधन करते हुए चुनावी मैदान में गए. लेकिन बीजेपी की लहर में अखिलेश को करारी हार मिली और पार्टी 50 का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाई.


इस हार के बाद चाचा शिवपाल यादव ने हार का ठीकरा अखिलेश यादव के सर फोड़ दिया. अगस्त 2018 में यादव वंश टूट गया. समाजवादी पार्टी के गद्दावर नेता और मुलायम सिंह यादव के छोटे भाई शिवपाल ने समाजवादी पार्टी छोड़ दी. शिवपाल ने नई पार्टी बनाई जिसका नाम समाजवादी सेक्युलर मोर्चा रखा.


मायावती के साथ आए अखिलेश


वहीं इस हार के बाद अखिलेश यादव ने कांग्रेस से दूरी बनाना शुरू कर दिया और मायावती के साथ हाथ मिलाने की कोशिशें करने लगे. मायावती ने भी अखिलेश के कदम का स्वागत किया और गोरखपुर और फुलपुर के उपचुनाव में एसपी के उम्मीदवार को समर्थन देने का एलान किया. बीजेपी के गढ़ में एसपी को जीत मिली और यहीं से एसपी-बीएसपी के फिर से साथ आने की बिसात भी बिछ गई.



जनवरी 2019 में मायावती ने अखिलेश यादव के साथ मिलकर 2019 का लोकसभा चुनाव लड़ने का एलान किया. मुलायम और मायावती के बीच भी दूरियां कम होने लगी. मायावती मैनपुरी में मुलायम सिंह यादव के लिए प्रचार करने पहुंची. वहीं दूसरी तरफ शिवपाल यादव दूसरे दलों के साथ 2019 की लड़ाई लड़ रहे हैं. 2019 में नतीजे कुछ भी हों, लेकिन अखिलेश यादव, मायावती को साथ लाकर वक्त का पहिया 1993 में से ही गए और 25 साल पुरानी लड़ाई का भी अंत किया.