चुनाव को लेकर कर सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2013 में बड़ा फैसला दिया और कहा कि मतदाताओं को उम्मीदवारों को खारिज करने का भी अधिकार होना चाहिए. कोर्ट ने कहा कि यह देश की राजनीतिक प्रणाली को साफ करने में एक लंबा रास्ता तय करेगा. शीर्ष अदालत ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि एक बड़े चुनावी सुधार के तहत इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) और बैलेट पेपर पर 'नन ऑफ द अबोव' (नोटा) का विकल्प दिया जाए.
इस प्रकार भारत 14वां देश बन गया जहां मतदाताओं को चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को खारिज करने का हक मिल गया. हालांकि, भारत में नोटा मतदाताओं को 'राइट टू रिजेक्ट' का अधिकार प्रदान नहीं करता है. चुनाव में हासिल किए गए सबसे ज्यादा मतों के आधार पर ही उम्मीदवार की जीत मुकर्रर होती है.
नोटा के जरिए कैसे किया जाता है वोट?
हर ईवीएम में उम्मीदवारों की सूची के अंत में नोटा एक विकल्प होता है. इससे पहले चुनावों में नेगेटिव वोटिंग करने के लिए मतदान केंद्रों पर मतदाताओं को पीठासीन अधिकारी को सूचित करना पड़ता था. नोटा के आने से नेगेटिव वोटिंग के लिए पीठासीन अधिकारी की जरूरत खत्म हो गई. एक मतदाता ईवीएम में मौजूद नोटा विकल्प को चुन कर सभी उम्मीदवारों को नकार सकता है.
नोटा से पहले भी ऐसा ही एक प्रावधान था
नोटा का विकल्प अस्तित्व में आने से पहले नेगेटिव वोट डालने वालों को एक रजिस्टर में अपना नाम दर्ज कराना होता था. वह एक अलग बैलेट पेपर पर अपना वोट डालते थे. चुनाव नियम 1961 की धारा 49 (ओ) के तहत, एक मतदाता फॉर्म 17ए के तहत अपने चुनावी क्रम संख्या के जरिए नेगेटिव वोट डाल सकता था. इस प्रक्रिया में पीठासीन अधिकारी रिकॉर्ड के तौर पर मतदाता से नेगेटिव वोटिंग की सूची में साइन करवाते थे. ताकि धोखाधड़ी या वोटों के दुरुपयोग को रोका जा सके. हालांकि, यह प्रावधान सुप्रीम कोर्ट की तरफ असंवैधानिक माना गया, क्योंकि इसमें मतदाताओं की पहचान सुरक्षित नहीं थी.
अब तक नोटा का इस्तेमाल
अभी भी नोटा इस्तेमाल करने वाले मतदाताओं की संख्या बहुत कम है. चुनाव आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, औसतन नोटा का वोट शेयर किसी भी चुनाव में डाले गए कुल मतों का 2.02% हिस्सा भी पार नहीं कर पाया है. राजनीतिक वर्ग के खिलाफ भारतीय मतदाताओं की कथित निंदा अतिशयोक्तिपूर्ण लगती है. हालांकि, यह जानने के लिए नोटा पर पड़े वोट के पैटर्न को जानना काफी दिलचस्प है, क्योंकि मतदाताओं ने अलग-अलग चुनावों में नेगेटिव वोटिंग के इस विकल्प का उपयोग कैसे किया है?
- ईवीएम में नोटा की शुरुआत 2013 के चार राज्यों - छत्तीसगढ़, मिजोरम, राजस्थान और मध्य प्रदेश और केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली के विधानसभा चुनावों में हई. दिल्ली समेत इन राज्यों में जितने वोट पड़े उसमें नोटा की हिस्सेदारी 1.85% थी. आठ राज्यों- हरियाणा, झारखंड, आंध्र प्रदेश, सिक्किम, ओडिशा, अरुणाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर और महाराष्ट्र में 2014 के विधानसभा चुनावों में औसतन नोटा का वोट शेयर 0.95% तक गिर गया.
- 2015 में संपन्न दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनावों में नोटा का वोट शेयर बढ़कर 2.02% हो गया. जबकि दिल्ली में मात्र 0.40% मतदान नोटा पर किए गए. बिहार में 2.49% वोट नोटा के खाते में गए, जो किसी भी राज्य में विधानसभा चुनावों में अब तक का सबसे अधिक नोटा का वोट शेयर साबित हुआ.
- 2016 के विधानसभा चुनावों में असम, पश्चिम बंगाल, केरल, पुडुचेरी और तमिलनाडु में नोटा का वोट शेयर एक बार फिर से गिरकर 1.6% रह गया.
- 2014 के लोकसभा चुनावों में नोटा ने कुल वोटों का 1.1% हिस्सा अपने नाम किया. 2013 के चुनावों के दौरान 261 विधानसभा क्षेत्रों में उम्मीदवारों के बीच जीत-हार में जितने मतों का अंतर था उससे अधिक नोटा पर वोट पड़े. ऐसा ही 2014 के लोकसभा चुनावों में 24 संसदीय क्षेत्रों में देखा गया.
- 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में आरके पुरम से आप प्रत्याशी शाजिया इल्मी 326 वोटों से हारीं जबकि नोटा को 528 वोट मिलें. 2014 के लोकसभा चुनाव में भागलपुर से बीजेपी के शाहनवाज हुसैन 9485 वोटों से हारे जबकि नोटा को 11,875 वोट मिलें.
- मध्यप्रदेश सरकार के चार मंत्री जयंत मलैया, अर्चना चिटनिस, शरद जैन और नारायण सिंह कुशवाहा की हार का अंतर नोटा को मिले वोट से कम था. 2014 के लोकसभा चुनाव में तमिलनाडु के नीलगिरि सीट पर नोटा को 46 हजार 559 वोट मिले जो देश में अब तक सबसे ज्यादा हैं. 2015 के विधानसभा चुनाव में बिहार में सबसे ज्यादा 9.47 लाख वोट नोटा को मिले थे.
इन आंकड़ों से हम क्या अनुमान लगा सकते हैं?
- आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में अपेक्षाकृत बड़ी संख्या में नोटा वोट देखने को मिले हैं, जो एससी/एसटी के लिए राजनीतिक आरक्षण के खिलाफ जारी सामाजिक पूर्वाग्रह की ओर इशारा करते हैं.
- वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित निर्वाचन क्षेत्रों ने भी नोटा का बेहतर प्रदर्शन दर्ज किया है. यहां शायद यह स्टेट के खिलाफ विरोध के एक साधन के रूप में कार्य करता है. यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि इन मतदाताओं ने नोटा का इस्तेमाल लोकतांत्रिक साधन के तौर पर उम्मीदवारों के प्रति अपनी नापसंदगी जाहिर करने के लिए किया ना कि चुनाव का बहिष्कार करने के किए.
- नोटा के आंकड़े तुलनात्मक रूप से उन निर्वाचन क्षेत्रों में अधिक हैं जहां कांग्रेस और बीजेपी के बीच सीधा मुकाबला देखा गया. इससे साफ होता है कि जहां भी मतदाताओं के पास विकल्प की कमी होती है तो वहां वह नोटा का इस्तेमाल अधिक करते हैं. यह दो मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के प्रति लोगों के रोष के संकेत हैं.
- कुल मिलाकर, भारतीय मतदाता नोटा का उपयोग न केवल अपने उम्मीदवारों के प्रति अस्वीकृति दिखाने के लिए, बल्कि राजनीतिक व्यवस्था में कई चीजों के प्रति अपना विरोध प्रकट करने के लिए भी करते हैं.
यदि कोई चुनावी मूल्य नहीं है, तो नोटा क्यों?
नोटा लोगों को उम्मीदवारों के प्रति अपनी अस्वीकृति व्यक्त करने का अवसर देता है. इससे अधिक से अधिक लोगों के मतदान करने की संभावना भी बढ़ती है. यह ऐसे लोगों को भी मतदान के लिए प्रेरित करता जो किसी भी उम्मीदवार का समर्थन नहीं करते हैं. नोटा लाने के पीछे सुप्रीम कोर्ट का भी यही तर्क था कि इससे चुनावों में एक बदलाव आएगा और राजनीतिक दल सही उम्मीदवारों को मैदान में उतारने के लिए मजबूर होंगे.
क्यों है नोटा की जरूरत?
- नोटा विकल्प राजनीतिक दलों को ईमानदार उम्मीदवारों का चयन करने के लिए मजबूर करेगा. इससे बिना किसी आपराधिक रिकॉर्ड वाले उम्मीवारों को चुनाव में उतारने का चलन बढ़ जाएगा. साथ ही इससे मतदान प्रतिशत में वृद्धि होगी.
- नोटा लोगों की अभिव्यक्ति और उम्मीदवारों को नाकारने की स्वतंत्रता के अधिकार को सुनिश्चित करता है.
- चुनाव नियम 1961 की धारा 49(ओ) के तहत साल 2013 तक डाले जाने नेगेटिव वोटिंग की त्रुटियों को खत्म करने के लिए नोटा लाया गया. जिसके लिए खास चिंता सुप्रीम कोर्ट की तरफ से जताई गई थी.
अब तक के चुनावों में मतदाता उम्मीदवारों के लिए अपनी नापसंदगी जाहिर करने के लिए नोटा इस्तेमाल करने लगे हैं. यह चुनावी विकल्प तब तक ज्यादा कारगर साबित नहीं होगा जब तक इसे सिमंबोलिक इंट्रूमेंट मानने की जगह 'राइट टू रिजेक्ट' का अधिकार हालिस नहीं हो जाता. हालांकि, नोटा को पूरी तरह से राइट टू रिजेक्ट का अधिकार मिले इसके लिए मद्रास हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका पहले ही दायर की जा चुकी है.