नई दिल्ली: सियासी समर में भावनात्मक मुद्दे सिर्फ अंकगणित को मजबूत करते हैं. लोकतंत्र में जीत या हार, तय सिर्फ संख्या के आधार पर तय होता है. 2014 के बाद देश की मौजूदा सियासत का मानचित्र देखें तो सिर्फ कांग्रेस ही नहीं बल्कि उसके मौजूदा साथी और पुराने साथियों का भी बुरा हाल है. 2014 में यूपीए का करीब 35 फीसदी आबादी पर राज था. तब एनडीए सिर्फ 22 फीसदी आबादी तक थी लेकिन अब चार साल बाद करीब एनडीए 68 फीसदी आबादी पर राज करती है. जबकि यूपीए सिर्फ आठ फीसदी तक सिमट गई है.


आज लोकसभा की तीन सीटों पर आये चुनाव नतीजे को ज्यादातर लोग अगले साल होनेवाले लोकसभा चुनाव के सेमीफाइनल के तौर पर देख रहे हैं. इसकी बड़ी वजह ये है कि जिन दो राज्यों से आज बीजेपी के लिए खतरे की घंटी बजी है. वहां पर लोकसभा की कुल 120 सीट है और सियासी इतिहास गवाह है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश और बिहार से होकर ही गुजरता है.


बीएसपी मुखिया मायावती और सपा प्रमुख अखिलेश यादव, बुआ और भतीजे की जोड़ी अगर अगले लोकसभा चुनाव तक बनी रही तो फिर क्या चमत्कार हो सकता है, ये समझने के लिए 2014 के चुनावी आंकड़ों पर गौर कीजिए.


2014 में बीजेपी ने 42.63 फीसदी वोट के साथ 71 सीटों पर जीत दर्ज की थी जबकि उसकी सहयोगी अपना दल 2.12 फीसदी वोट के साथ 2 दल पर विजयी रही थी. समाजवादी पार्टी 22.35 फीसदी वोट के साथ 5 सीटों पर कब्जा जमाने में कामयाब रही थी. वहीं बीएसपी 19.77 फीसदी वोट पाने के बावजूद खाता तक नहीं खोल पायी थी. कांग्रेस के हिस्से में 7.55 फीसदी मत और सीट 2 आया था.


अब यहां आपके मन में सवाल उठ रहा होगा कि अगर आज की तरह 2019 में भी बुआ-भतीजा जिंदाबाद के नारे लग गये और इस जोड़ी को कांग्रेस के हाथ का साथ मिल गया तो फिर चुनाव नतीजा क्या होगा ?


पिछले लोकसभा चुनाव के आंकड़ों के हिसाब से इस सवाल का जवाब तलाशें तो फिर समाजवादी पार्टी और बीएसपी का वोट 22.35 प्लस 19.77 फीसदी मतलब 42.12 फीसदी वोट फीसदी होता है. इस वोट फीसदी के साथ सपा-बसपा के हिस्से में 41 सीटें आतीं. अगर कांग्रेस के हिस्से में आये 7.55 फीसदी मत को भी इसमें जोड़ दिया जाए तो फिर बीजेपी विरोधी गठबंधन के पास होता 49.67 फीसदी वोट मिलता और सीट होती करीब 56. मतलब 2014 में 73 सीट जीतने वाली एनडीए केवल 24 सीटों पर सिमट जाती.


आंकड़ों के इसी समीकरण में साल 2019 का सियासी अंकगणित छुपा है. आज के चुनाव नतीजे के बाद ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं कि अगले लोकसभा चुनाव में भी मायावती और अखिलेश साथ मिलकर बीजेपी का मुकाबला करना पसंद करेंगे. उत्तर प्रदेश में हुए दोनों उपचुनावों में कांग्रेस का एसपी-बीएसपी से गठबंधन नहीं हो पाया था लेकिन कल सोनिया गांधी के डिनर में दोनों दलों के प्रतिनिधि पहुंचे थे. मतलब, इस बात की संभावना काफी प्रबल है कि एसपी-बीएसपी के गठबंधन को हाथ का साथ मिल सकता है और अगर ऐसा हो जाता है तो फिर तय मानिए, अगले साल यूपी देश की राजनीति में एक नया अध्याय लिख सकता है.