Pradhanmantri Series, Morarji Desai: भारतीय राजनीति में मोरारजी देसाई का नाम उन नेताओं में शुमार है जो जिद्दी होने के साथ-साथ हठी भी थे. वो किसी की बात सुनते नहीं थे लेकिन अपने इरादों के पक्के थे. शुरू से ही उन्हें प्रधानमंत्री बनना था और कहीं-न-कहीं उनका अपना रवैया ही उनके आड़े आता रहा. हर बार अपनी दावेदारी उन्होंने खुद पेश की. नेहरू के निधन के बाद उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे पहले अपना नाम आगे बढ़ाया. जय प्रकाश नारायण (जेपी) को ‘भ्रमित’ और इंदिरा गांधी को ‘लिटिल गर्ल’ बताते हुए वो लाल बहादुर शास्त्री के खिलाफ खड़े हुए, लेकिन पीएम पद नहीं मिला. शास्त्री के निधन के बाद भी स्थितियां ऐसी थीं कि उनका हारना तय था, लेकिन फिर भी वो पीछे नहीं हटे. उन्हें हमेशा लगता था कि उनकी काबिलियत के बावजूद उन्हें जानबूझकर पीएम नहीं बनाया जा रहा. 1967 में भी उन्हें मनाना बहुत मुश्किल रहा. इसके बाद 1975 में उन्हें 'जनता पार्टी' ज्वाइन की और 1977 में आखिरकार देश के चौथे प्रधानमंत्री बने. प्रधानमंत्री सीरिज में आज जानते हैं मोरारजी देसाई देश के चौथे प्रधानमंत्री बनने की कहानी.



1967 का आम चुनाव


मोरारजी देसाई के पीएम पद तक पहुंचने की कहानी जानने के साथ ये जानना जरूरी है कि कांग्रेस में कब से फूट शुरु हुई. 1967 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत हुई लेकिन कुछ सीटों का नुकसान हुआ. कुल 520 सीटों में से कांग्रेस को 283 सीटें मिलीं. करीब 78 सीटें कांग्रेस के हाथ से निकल गई. साथ ही 8 राज्यों में बहुमत भी नहीं मिला. पार्टी की गिरती साख को लेकर इंदिरा गांधी पर सवाल उठे. प्रधानमंत्री पद के लिए इंदिरा गांधी के अलावा एक बार फिर मोरारजी देसाई ने अपनी दावेदारी ठोकी. सिंडिकेट नेता के. कामराज के काफी मान-मनौव्वल के बाद मोरारजी देसाई मान गए और इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं. वहीं मोरारजी देसाई उप-प्रधानमंत्री और साथ ही उन्हें वित्त मंत्रालय भी  दिया गया.



कांग्रेस ने चौथी बार सरकार तो बना ली लेकिन पार्टी में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा था. इंदिरा खुद फैसले लेने लगी और इस  बात से ‘कांग्रेस सिंडिकेट’ को परेशानी होने लगी थी.


यहां आपको बता दें कि जब इंदिरा गांधी पहली बार प्रधानमंत्री बनीं तब वो परेशान रहती थीं क्योंकि पार्टी के नेता उनकी बातों को सुनते नहीं थे. लेकिन दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने तक उनमें आत्मविश्वास आ गया था. इस बारे में वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय कहते हैं, ''इंदिरा गांधी जब प्रधानमंत्री बनीं तो वो कॉन्फिडेंट नहीं थीं. ये बात पुपुल जयाकर ने अपनी किताब में इंदिरा गांधी के हवाले से लिखा है. लेकिन पावर स्ट्रक्चर किसी को भी कॉन्फिडेंट बना देता है.''


पार्टी की ये अनबन सरकार बनने के दो साल बाद 10 जुलाई, 1969 को बैंगलोर में अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी (एआईसीसी) की बैठक में देखने को मिली. इस बैठक में काफी बहस के बाद बैंको के राष्ट्रीयकरण को मंजूरी मिली थी.



राष्ट्रपति चुनाव भी बना बड़ा मुद्दा


तत्कालीन राष्ट्रपति डॉक्टर जाकिर हुसैन का निधन हो जाने से वीवी गिरि को कार्यवाहक राष्ट्रपति नियुक्त किया गया. वीवी गिरि को ही इंदिरा राष्ट्रपति बनाना चाहती थीं, लेकिन उनके नाम पर आम सहमति नहीं थी. इंदिरा चाहती थीं कि वीवी गिरि अगर राष्ट्रपति बने रहेंगे तो उनके पक्ष में माहौल बनाते रहेंगे और इस तरह उनकी प्रतिष्ठा बनी रहेगी. वहीं, पार्टी ऐसे व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाना चाहती थी जिससे कि इंदिरा गांधी को काबू में रखा जा सके. बाद में इंदिरा ने जगजीवन राम का नाम भी इस पद के लिए आगे बढ़ाया. ‘कांग्रेस सिंडिकेट’ नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति बनाना चाहती थी. संजीव  रेड्डी आंध्र के बड़े नेता थे और लोकसभा स्पीकर भी थे.  जब वोटिंग हुई तो जगजीवन राम को सिर्फ तीन वोट मिले और संजीव रेड्डी के पक्ष में फैसला आया. उन्हें कांग्रेस पार्टी ने अपना उम्मीदवार घोषित किया. बाद में वीवी गिरि इंडिपेंडेट खड़े हुए और चुनाव जीतकर राष्ट्रपति बने.



इस वाकये से इंदिरा को काफी गुस्सा आया. उन्होंने अपने विरोधी नेताओं को कड़ा संदेश देने की सोची. उन्होंने मोरारजी देसाई से वित्त मंत्रालय छीन लिया. वजह ये भी थी कि मोरारजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण के खिलाफ थे. हालांकि इंदिरा ने ये कहा कि मोरारजी देसाई उप-प्रधानमंत्री बने रहेंगे. इंदिरा के इस निर्णय से आहत मोरारजी देसाई ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया.



कांग्रेस का बंटवारा


करीब-करीब इसके बाद ही कांग्रेस पार्टी दो हिस्सों में बंट गई. कांग्रेस (आर) यानि इंदिरा गांधी की पार्टी और कांग्रेस (ओ) जिसमें के. कामराज, मोरारजी देसाई सहित सिंडिकेट के नेता थे. इसके बाद कांग्रेस (ओ) के नेताओं को 'सिंडिकेट' और इंदिरा के पार्टी के नेताओं को 'इंडिकेट' कहा जाने लगा.


इसके ठीक बाद इंदिरा ने 18 महीने पहले ही लोकसभा को भंग कर दिया और 1971 में आम चुनाव का ऐलान कर दिया. उस वक्त विपक्ष ने नारा दिया- 'इंदिरा हटाओ'. लेकिन, इस चुनाव में बैंको के राष्ट्रीयकरण का बड़ा फायदा इंदिरा गांधी को मिला और उनकी पार्टी को 520 में से 352 सीटें मिली.



इमरजेंसी (आपातकाल)


1971 के आम चुनावों में इंदिरा की सरकार के खिलाफ जय प्रकाश नारायण और राजनारायण जैसे दिग्गज नेता देशभर में प्रदर्शन कर रहे थे. माहौल खिलाफ होने के बावजूद इस चुनाव में इंदिरा ने रायबरेली सीट पर सोशलिस्ट पार्टी के राजनारायण को एक लाख से ज्यादा वोटों से हराया था. राजनारायण को यकीन ही नहीं  हो रहा था कि वो हार गए हैं. राजनारायण ने सरकार पर धांधली का आरोप लगाते हुए हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का रुख किया. 12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया, इंदिरा सुप्रीम कोर्ट गईं. 24 जून, 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला दिया कि इंदिरा गांधी संसद की कार्यवाही में भाग तो ले सकती हैं लेकिन वोट नहीं कर सकतीं. इस फ़ैसले के बाद विपक्ष ने इंदिरा गांधी पर अपने हमले तेज़ कर दिए.



इसके तुरंत बाद ही 25 जून, 1975 को इंदिरा गांधी ने आधी रात को देश में आपातकाल की घोषणा कर दी.  देश में 21 महीने तक आपातकाल रहा और 23 मार्च 1977 को इमरजेंसी खत्म करने की घोषणा हुई. इससे पहले ही 18 जनवरी को इंदिरा सरकार ने लोकसभा चुनाव की घोषणा कर दी थी.



1977 का आम चुनाव


इंदिरा गांधी को हराने के लिए सारी पार्टियों ने एक साथ चुनाव लड़ने का फैसला किया. जनता पार्टी (23 जनवरी, 1977) का गठन हुआ. इसमें जनता मोर्चा, चरण सिंह की पार्टी भारतीय लोक दल, स्वतंत्र पार्टी, राजनारायण और जॉर्ज फर्नांडिस की सोशलिस्ट पार्टी और भारतीय जनसंघ एक साथ आई. नतीजों के बाद जगजीवन राम की पार्टी सीएफडी (Congress for Democracy) जैसी कई और पार्टियों का विलय हुआ. वैसे तो इन सभी पार्टियों की विचारधारा अलग थी लेकिन जय प्रकाश नारायण के अनुरोध पर सभी साथ हो गए. मोरारजी देसाई को जनता पार्टी का चेयरमैन चुना गया. राम कृष्ण हेगडे जनरल सेक्रेटरी बने और जनसंघ के नेता लाल कृष्ण आडवाणी पार्टी प्रवक्ता बने.


इस चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ माहौल ऐसा था कि इंदिरा गांधी को राजनारायण ने करीब 55 हजार वोटों से हरा दिया. संजय गांधी भी अपनी सीट हार गए. इस चुनाव में जनता गठबंधन ने 345 सीटों पर बंपर जीत हासिल की, वहीं कांग्रेस 189 सीटों पर सिमट गई.


इसके बाद प्रधानमंत्री पद के लिए एक बार फिर मोरारजी देसाई दावेदार बने. लेकिन इस बार भी उनके अलावा चौधरी चरण सिंह और जगजीवन राम भी प्रधानमंत्री पद की रेस में थे.


वरिष्ठ पत्रकार और लेखक जनार्दन ठाकुर ने अपनी किताब ‘ऑल द जनता मेन’ में लिखा है, ''चुनावों से पहले जब जेपी आंदोलन के समय बिहार में थे उस वक्त ये सवाल भी उठे कि पीएम कौन होगा. ये सुनकर जेपी टेंशन में आ गए. उन्होंने कहा था कि प्रधानमंत्री पद के लिए इतने लोग दावा कर रहे हैं. मोरारजी देसाई होगें, चौधरी चरण सिंह होंगे या फिर वाजपेयी होंगे. पता नहीं क्या होगा?.''



तब जगजीवन राम के नाम की पीएम पद के लिए चर्चा भी नहीं थी. लेकिन गठबंधन को मिली भारी जीत के बाद जगजीवन राम को भी इस बात का पूरा भरोसा था कि वो प्रधानमंत्री बनेंगे. फैसला लेने का वक्त आया तो ऐसे कयास लगाए गए कि जेपी जगजीवन राम का समर्थन करेंगे. जनसंघ ने भी जगजीवन राम को सपोर्ट किया. उस वक्त ये भी कहा गया कि अगर दलित प्रधानमंत्री बनता है तो जनता पार्टी की छवि लोगों के बीच और चमक जाएगी. जनसंघ के समर्थन की वजह ये भी थी कि जगजीवन राम के पास ज्यादा सांसद (28) नहीं है तो उन पर नियंत्रण रखना भी आसान रहेगा. चंद्रशेखर के सपोर्टर भी जगजीवन राम को ही पीएम बनान चाहते थे. और उनकी पार्टी की इस जीत में अहम भूमिका थी, इसलिए उनपर नहीं सवाल उठाया जा सकता था.



इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब India After Gandhi में लिखा है, ''चरण सिंह के समर्थक सोचते थे कि उत्तर भारत में पार्टी की भारी विजय में उनके नेता अहम योगदान है, इसलिए प्रधानमंत्री पद के वे स्वाभाविक दावेदार हैं. जगजीवन राम के लोग ये सोचते थे कि चुकि उनके कांग्रेस छोड़कर आने से ही जनता पार्टी की इतनी बड़ी जीत हासिल हुई है, इसलिए उनके नाम पर विचार होने चाहिए. सबसे बड़े दावेदार मोरारजी देसाई थे जो 1964 और 1967 में करीब-करीब प्रधानमंत्री बन ही गए थे. इस हिसाब से उनका दावा सबसे मजबूत था.''


उस वक्त हर तरफ यही चर्चा चल रही थीं कि जेपी किसे पीएम बनाएंगे? 23 मार्च 1977 को तय हुआ कि अगले दिन जेबी कृपलानी और जेपी एक साथ बैंठंगे. फिर सभी सांसद पीएम पद के लिए अपनी च्वाइस का नाम लिखकर चिट में उन्हें दे देंगे.


जनार्दन ठाकुर के मुताबिक, ''इसके बाद चरण सिंह के खेमे में खलबली मची. खुद राजनारायण हॉस्पिटल पहुंचे जहां चरण सिंह एडमिट थे. उन्होंने चरण सिंह को बताया कि वो पीएम बनने की अपनी ख्वाहिश जेपी के सामने नहीं रखेंगे तो बहुत देर हो जाएगी. जगजीवन राम की दावेदारी पर चौधरी चरण सिंह ने जेपी को एक चार लाइन की चिट्ठी लिखी. उसमें चरण सिंह ने लिखा कि वो जगजीवन राम के प्राइम मिनिस्टरशिप में काम नहीं कर पाएंगे. साथ ही ये भी बता दिया कि वो मोरारजी देसाई के लिए इस रेस से बाहर हो रहे हैं. ये चिट्ठी लेकर राजनारायण वहां से निकले और साथ ही जगजीवन राम के खिलाफ अपने कुछ लोगों से माहौल बनाने के लिए कहा.'' यहां राजनारायण ने जगजीवन राम को लेकर जातिसूचक शब्दों का भी इस्तेमाल किया. साथ ही उस समय जगजीवन राम को लेकर ये भी सवाल उठे कि उन्होंने इमरजेंसी के समय सरकार का साथ दिया था.


फैसले की घड़ी आई तो जेपी ने मोरारजी देसाई का समर्थन किया. आखिरकार जो मोरारजी देसाई, नेहरू और शास्त्री की मौत के बाद पीएम नहीं बन पाए, आज उनका सपना पूरा हो गया. मोरारजी देसाई यहां इमोशनल हो गए और जेपी से कहा कि उनके सलाह के मुताबिक ही काम करेंगे.



मोरारजी देसाई बेधड़क कुछ भी बोल देते थे. ये तब देखने को मिला जब प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाए जाने के बाद आचार्य कृपलानी ने मोरारजी देसाई से कहा कि ''आपको बाबूजी से मिलने जाना चाहिए''. तो देसाई ने बहुत ही तपाक से जवाब दिया, ''मैं क्यों उनसे मिलने जाऊं?''


ठाकुर लिखते हैं, ''ऊधर जगजीवन राम के समर्थक ये खबर सुनकर आग बबूला हो गए. जनता पार्टी के झंडे फाड़े जा रहे थे. जगजीवन राम भी गुस्से में थे और चिल्ला रहे थे- धोखा हुआ है. जनता पार्टी के नेता उनके घर पहुंचे और कहा कि जेपी उन्हें मनचाहा पोर्टफोलियो देंगे. इसपर उन्होंने चिल्लाकर कहा, ''मुझे देने वाले जयप्रकाश नारायण कौन होते हैं?'’ चार दिनों तक ये ड्रामा चलता रहा. बाद में वो तब माने जब जेपी ने उनसे कहा, ''आपके सहयोग के बिना भारत निर्माण संभव नहीं है.''


23 मार्च 1977 को मोरारजी देसाई ने चौथे भारतीय प्रधानमंत्री के रुप में शपथ ग्रहण किया. उस समय उनकी उम्र 81 साल थी. उनकी कैबिनेट में चरण सिंह और जगजीवन राम उप-प्रधानमंत्री बने. जगजीवन राम को रक्षा मंत्रालय भी मिला वहीं चरण सिंह को गृह मंत्रालय मिला.



मोरारजी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए. दो साल बाद ही उनकी सरकार अल्पमत में आ गई. वो 28 जुलाई, 1979 तक प्रधानमंत्री रहे.


मोरारजी देसाई के बारे में-


मोरारजी देसाई का जन्म 29 फ़रवरी, 1896 को गुजरात के भदेली में हुआ था.  स्वतंत्रता संग्राम में भी उनकी अहम भूमिका थी. इस दौरान वो कई बार जेल भी गए. 1931 में उन्होंने राजनीति में कदम रखा और गुजरात प्रदेश की कांग्रेस कमेटी के सचिव बनाए गए. 1952 में वो बंबई के मुख्यमंत्री बने.


1957 से 1980 तक वो सूरत लोकसभा सीट से सांसद रहे.


13 मार्च, 1958 से मोरारजी देसाई 29 अगस्त, 1963 तक नेहरू के कैबिनेट में वित्त मंत्री रहे.


13 मार्च, 1967  से 16 जुलाई, 1969 तक इंदिरा गांधी के कैबिनेट में उप-प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री रहे.


24 मार्च, 1977 से 28 जुलाई, 1979 तक प्रधानमंत्री रहे. 


व्यक्तिगत जीवन


15 साल की उम्र में मोरारजी देसाई की शादी गुजराबेन के साथ हुई थी. मोरारजी देसाई के तीन बेटे थे, जिनमें से कोई भी राजनीति में नहीं उतरा. उनके पोते मुधुकेश्वर देसाई इस समय बीजेपी युवा मोर्चा के उपाध्यक्ष हैं.


मोरारजी देसाई 'यूरीन थेरेपी' के समर्थक थे. उनका कहना था कि लाखों भारतीय जो मेडिकल की सुविधा से वंचित हैं वो यूरीन पीकर बीमारियों से बच सकते हैं.


99 साल की उम्र में 10 अप्रैल 1995 को मोरारजी देसाई ने दुनिया को अलविदा कह दिया.


मोरारजी देसाई एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मान 'भारत रत्न' और पाकिस्तान के सर्वोच्च सम्मान 'निशान-ए-पाकिस्तान' से भी सम्मानित किया गया है.


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