Pradhanmantri Series, V. P. Singh: इंदिरा गांधी की हत्या के बाद  की सहानुभूति लहर ने 1984 के लोकसभा चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को 400 से ज्यादा सीटें दी. ये करिश्मा ऐसा था जो नेहरू और इंदिरा भी न कर सके. लेकिन उसी राजीव गांधी को 1989 के लोकसभा चुनाव ने 200 से भी कम सीटों में समेट दिया. राजीव गांधी की इस हार में अहम भूमिका रही उनकी सरकार में ही मंत्री रहे वी पी सिंह. वी पी सिंह ने बोफोर्स घोटाले का मुद्दा कुछ यूं उछाला कि वो हर घर तक पहुंच गया. राजीव गांधी के कुछ औऱ करीबियों के साथ मिल वी पी सिंह बोफोर्स के सहारे सत्ता के करीब पहुंच गए. लेकिन फकीर कहे जाने वाले वी पी सिंह के लिए प्रधानमंत्री की कुर्सी का रास्ता धोखासाजिश औऱ हथकंडो से भरा रहा. आज प्रधानमंत्री सीरीज में जानते हैं वी. पी. सिंह के प्रधानमंत्री बनने की पूरी नाटकीय कहानी.


1989 का लोकसभा चुनाव


इस साल लोकसभा की 525 सीटों के लिए 22 नवंबर और 26 नवंबर को चरणों में चुनाव हुए. नतीजे चौकाने वाले आए. कांग्रेस को 197 सीटें मिलीं. जनता दल को 143 सीटेंबीजेपी को 85सीटें और सीपीएम को 33 सीटें मिलीं. कांग्रेस के इस भारी भरकम और ऐतिहासिक हार की वजह रहा बोफोर्स घोटालाजिसे जन जन तक पहुंचाने में वीपी सिंह की जोरदार मुहिम कामयाब रही. वरिष्ठ पत्रकार कुर्बान अली बताते हैं, ''वी.पी. सिंह ने बोफोर्स को एक राजनीतिक मुद्दा बनायाचुनाव जीते और सरकार बनाई.



जनता दल राजीव गांधी की सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को जनता के दिमाग में बिठाने में सफल रहा. बीजेपी और वामपंथी दलों के सहयोग से जनता दल के पास सरकार बनाने के लिए नंबर तो आ गए लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही था कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा.


क्योंकि प्रधानमंत्री पद की रेस में खुद वी. पी. सिंह के अलावा देवीलाल और चंद्रशेखर भी थे. कुर्बान अली बताते हैं, ''चुनावी नतीजों के बाद ये तय हुआ कि वी. पी. सिंह पीएम बनेंगे क्योंकि वही उस आंदोलन के नेता बनकर उभरे थे. लेकिन चंद्रशेखर को ये बात मंजूर नहीं थी. उन्होंने वी. पी. सिंह को चुनौती दी कि मैं जनता दल के संसदीय दल का चुनाव लड़ूंगा. चंद्रशेखर की चुनौती के बाद वी पी सिंह  ने पीएम पद की दावेदारी से हटते हुए कहा कि वो तभी पीएम बनेंगे जब सर्वसम्मति से नेता चुने जाएंगे. ''



(चंद्रशेखर, वी. पी. सिंह और देवी लाल, 1989 की तस्वीर)

नतीजों के बाद की सियासी हलचल


नतीजे आने के बाद से ही सियासी गलियारों में गतिविधियां बढ़ गयी थीं. उम्मीद की जा रही थी कि नतीजे आने के तुरंत बाद प्रधानमंत्री पद के दावेदार का एलान हो जाएगा लेकिन 28 से शुरू हुआ मुलाकातों औऱ बैठकों का सिलसिला 30 नवंबर तक जारी रहा. इन तीन दिनों में पार्टी के अंदर खूब हलचल रही और सारे दावेदार अपना-अपना पलड़ा भारी करने में लगे रहे. इन मुलाकातों में एक अहम मुलाकात चौधरी देवीलाल औऱ लालकृष्ण आडवाणी की थी. देवीलाल खुद के लिए बीजेपी का समर्थन हासिल करने की खातिर लाल कृष्ण आडवाणी से मिले लेकिन उन्होंने सीधे तौर पर मना करते हुए कहा कि देश ने वी. पी. सिंह को चुना है. इसी दौरान वी. पी. सिंह और अरुण नेहरू ने ज्योति बसु और आडवाणी से मुलाकात कर नेशनल फ्रंट सरकार पर सहमति ले ली.


और फिर रची गयी पीएम की रेस से चंद्रशेखर को हटाने के लिए साजिश....


इसके बाद जो हुआ उस बारे में ना तो चंद्रशेखर ने कल्पना की थी और ना ही सियासी गलियारे में किसी को ये भनक थी. कुर्बान अली बताते हैं, ‘’चंद्रशेखर को रास्ते से हटाने के लिए उड़ीसा भवन में बीजू पटनायक के कमरे में षड्यंत्र रचा गया. उसमें ये तय किया गया कि चंद्रशेखर की नाराजगी वी. पी. सिंह से है. अगर उनके सामने ये पेश किया जाए कि देवीलाल प्रधानमंत्री होंगे तो वो अपनी दावेदारी छोड़ देंगे. और फिर देवीलाल खुद मना करते हुए वी पी सिंह के नाम का प्रस्तवा कर देंगे’’ कुर्बान अली के मुताबिक इस साजिश की पूरू स्किप्ट अरूण नेहरू ने तैयार की थी.


उस दिन की घटना की आंखो देखी वो कुछ यूं बयान करते हैं ''संसद के केंद्रीय कक्ष में मधु दंडवते चुनाव अधिकारी थे. जब नेता पक्ष का चुनाव हुआ तो वी. पी. सिंह ने देवीलाल का नाम प्रपोज किया. चंद्रशेखर ने सपोर्ट किया. देवीलाल नीचे बैठे हुए थे. उन्हें डायस तक आने में दो तीन मिनट का समय लगा. जैसे ही देवीलाल आए उन्होंने सांसदों का धन्यवाद किया. उन्होंने कहा कि देश वी. पी. सिंह को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहता है तो उनके पक्ष में मैं अपना नाम वापस लेता हूं. बस फिर क्या था ये सुनते ही चंद्रशेखर आग बबूला हो गए. चंद्रशेखर को पहले से इस ड्रामे के बारे में बिल्कुल भी खबर नहीं थी. उन्होंने वीपी सिंह को चुने जाने के बाद सिर्फ इतना कहा कि अगर अपनी ओर से उन्होंने ये प्रस्ताव रखा है तो मैं उसका विरोध नहीं करता हूं लेकिन मेरा अपना रिजर्वेशन है. ये कहकर वो वहां से वॉकआउट कर गए. इस तरह वी. पी. सिंह को प्रधानमंत्री पद के लिए चुना गया.’’


 इसके बाद राष्ट्रपति ने उसी दिन वी. पी. सिंह को सरकार बनाने का न्यौता दिया. औऱ इस तरह वी पी सिंह प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे. दो दिसंबर को वी पी सिंह ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली औऱ चौधरी देवीलाल उप-प्रधानमंत्री बने.



वी. पी. सिंह के पीएम बनने के बारे में इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी India After Gandhi में लिखा है, ''इस तरह गैर-कांग्रेस प्रधानमंत्री भी वही नेता था जिसने पहले (मोरारजी देसाई) की तरह ही अपने राजनीतिक जीवन का अधिकांश हिस्सा कांग्रेस में बिताया था. इस चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला. उस वक्त के राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना था कि ये चुनाव अपने आप में युगांतकारी घटना थी. वरिष्ठ पत्रकार वीर सांघवी ने तब लिखा कि  हिंदुस्तान राजनीतिक अस्थिरता में प्रवेश कर गया है. अब मजबूत सरकारों और तानाशाह प्रधानमंत्रियों का दौर खत्म हो गया हैयह चुनाव एक अनिश्चित युग की शुरुआत का उद्घाटन है.''


वी. पी. सिंह ने अपने कार्यकाल में मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने का फैसला लिया. हालांकि ये फैसला उन पर काफी भारी पड़ा


हाल ही में लालू प्रसाद यादव की बायोग्राफी ‘गोपालगंज से रायसीना- माई पॉलिटिकल जर्नी’ रिलीज हुई है. इसमें लालू ने बताया कि सरकार बनने के कुछ महीनों के भीतर ही सत्ता के दो केंद्र बन गए थे. एक  प्रधानमंत्री की दूसरी उप-प्रधानमंत्री की. लालू वैसे तो तब देवीलाल कैंप में थे लेकिन जब उन्हें सरकार गिरने का अंदेशा हुआ तो खुद वी. पी. सिंह मिले और देवीलाल के साजिशों के बारे में बता दिया. लालू के मुताबिक मंडल कमीशन के सिफारिशों को लागू करने की सलाह भी उन्होंने ही वी. पी. सिंह को दी थी.



हाल ही में लालू प्रसाद यादव की बायोग्राफी ‘गोपालगंज से रायसीना- माई पॉलिटिकल जर्नी’ रिलीज हुई है. इसमें लालू ने बताया कि सरकार बनने के कुछ महीनों के भीतर ही सत्ता के दो केंद्र बन गए थे. एक  प्रधानमंत्री की दूसरी उप-प्रधानमंत्री की. लालू वैसे तो तब देवीलाल कैंप में थे लेकिन जब उन्हें सरकार गिरने का अंदेशा हुआ तो खुद वी. पी. सिंह मिले और देवीलाल के साजिशों के बारे में बता दिया. लालू के मुताबिक मंडल कमीशन के सिफारिशों को लागू करने की सलाह भी उन्होंने ही वी. पी. सिंह को दी थी.


वी. पी. सिंह को इतिहास में किस तरह के नेता के तौर पर याद किया जाएगा? इस सवाल पर कुर्बान अली कहते हैं, ‘’वी. पी. सिंह एक अवसरवादी नेता थे. पहले यूपी में मुख्यमंत्री बनने के लिए संजय गांधी का आशीर्वाद लिया. बाद में इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के कैबिनेट में मंत्री रहे. फिर उन्होंने राजीव गांधी को जिस तरह से बोफोर्स मामले में डिच किया. जिस तरह सांप्रदायिक शक्तियों का उभार आज हो रहा है भारतीय जनता पार्टी का आना, दरअसल उसी राजनीति का हिस्सा है. जब प्रधानमंत्री बनने के 6 महीने बाद उन्हें देवीलाल की तरफ चैलेंज मिला तो उन्होंने 10 साल पुरानी मंडल आयोग की रिपोर्ट को एक झटके में लागू कर दिया. जिससे जातिगत द्वेष लोगों में बढ़ा और समाज बटा. हालांकि मंडल आयोग की रिपोर्ट संविधान के तहत ही लागू की गई थी. लेकिन जिस तरीके से की गई और उसका जो राजनीतिक इस्तेमाल किया गया उसे मैं गलत मानता हूं. इसलिए उन्हें इतिहास में एक अवसरवादी नेता के रूप में याद किया जाएगा.’’



वो ये भी कहत है, ‘’प्रधानमंत्री बनने के लिए वी. पी. सिंह ने अपनी उसी पार्टी को छोड़ा जिसके लिए वो कहते थे कि तिरंगा मैं कभी नहीं छोड़ूंगा. मैं इलाहाबाद के कांग्रेस दफ्तर में झाडू लगाने के लिए तैयार हूं और राजीव गांधी कहेंगे तो मैं संन्यास लेने को तैयार हूं. लेकिन फिर वो अपनी बातों से बदल गए. बाद में उन्होंने अपना पश्चाताप किया. 2004 में वो सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने में जुटे लेकिन बाद में खुद सोनिया ने मना कर दिया. ‘’


वी. पी. सिंह के बारे में-


विश्वनाथ प्रताप सिंह का जन्म 25 जून 1931 को यूपी के इलाहाबाद ज़िले में हुआ था. वह राजा बहादुर राय गोपाल सिंह के पुत्र थे. उनका विवाह 25 जून 1955 को उनके जन्म दिन पर ही सीता कुमारी के साथ हुआ. इनके दो बेटे हैं. उन्होंने इलाहाबाद और पूना विश्वविद्यालय से पढा़ई पूरी की और कॉलेज के वक्त से ही राजनीति में उनकी रुचि रही. 1957 में उन्होंने भूदान आन्दोलन में सक्रिय भूमिका थी.


 1969-1971 में यूपी विधानसभा में पहुंचे. 9 जून 1980 से 28 जून 1982 तक वो यूपी के मुख्यमंत्री रहे. 31 दिसम्बर 1984 को राजीव गांधी सरकार में वे भारत के वित्तमंत्री बने. राजीव गांधी से तकरार होने के बाद उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी.



1989 में उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री पद को संभाला. 2 दिसंबर, 1989 से 10 नवंबर 1990 तक वे प्रधानमंत्री रहे. इस दौरान वीपी सिंह ने सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) को 27 फीसदी आरक्षण की मंडल आयोग की सिफ़ारिश को भी लागू कर दिया. इसके कुछ समय बाद उनकी सरकार गिर गई थी.


वी. पी. सिंह राजनेता होने के साथ-साथ अच्छे कवि भी थे. उन्होंने लिखा था-


उसने उसकी गली नहीं छोड़ी
अब भी वहीं चिपका है,
फटे इश्तेहार की तरह
अच्छा हुआ मैं पहले
निकल आया
नहीं तो मेरा भी वही हाल होता.


मैं और वक्त
काफिले के आगे-आगे चले
चौराहे पर …
मैं एक ओर मुड़ा
बाकी वक्त के साथ चले गये.


 27 नवम्बर 2008 को 77 वर्ष की अवस्था में वी. पी. सिंह का निधन हो गया.


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