नई दिल्लीः जब दो विपक्षी ध्रुव आपस में चिपक जाएं तो हमेशा वह चुंबक ही नहीं होता. कभी-कभी दो राजनीतिक दल भी ऐसा करते हैं. वही राजनीतिक दल जो अपने वजूद को बचाने के लिए एक होते हैं. वही राजनीतिक दल जो विरोधियों को पटखनी देने के लिए एक होते हैं. वही राजनीतिक दल जो दूसरे दल को सत्ता से बेदखल करने के लिए एक होते हैं. वो दल जो कल तक अपने विरोधी दलों के खिलाफ मुखर होकर जनता के सामने उनकी बखिया उधेड़ते हैं वो साथ आ जाते हैं.


कुछ ऐसा ही मामला आज उत्तर प्रदेश में देखने को मिल रहा है. समाजवादी पार्टी और बीएसपी साथ आ रही हैं जो पिछले 25 सालों तक एक दूसरे का कट्टर विरोध करती रहीं. दूरियां गेस्ट हाउस कांड की वजह से बढ़ी थीं. तब एसपी के मुखिया मुलायम सिंह यादव थे. आज पार्टी की कमान अखिलेश यादव के हाथों में है. अब उन्होंने 'बुआ' की ओर हाथ बढ़ाया है. राजनीति में खिसकती जमीन की वजह से मायावती ने भी अखिलेश की ओर हाथ बढ़ाने में देरी नहीं की.


मायावती पर निजी हमले करने से बचते रहे हैं अखिलेश


शुरुआत से ही अखिलेश यादव, मायावती को लेकर हमलावर नहीं रहे. राजनीति की मजबूरी कहें या वक्त की जरूरत कि अखिलेश यादव हल्के-फुल्के शब्दों में मायावती की सरकार के खिलाफ चुटकी लेते थे लेकिन उनके खिलाफ निजी हमले करने से बचते थे.


अपने वोटरों के बीच 'बहन जी' के नाम से मशहूर मायावती को अखिलेश ने सार्वजनिक सभाओं और प्रेस कांफ्रेंस में बुआ जी कहकर संबोधित करना शुरू किया. पार्कों में बड़ी-बड़ी मूर्ति लगाने को लेकर तंज तो किया लेकिन मूर्ति का सिर तोड़े जाने की घटना पर 24 घंटे के अंदर कार्रवाई करते हुए मूर्ति को नया सिर लगवा दिया.


गेस्ट हाउस कांड से बनी दूरी तब नजदीकी में बदलते दिखी जब अखिलेश यादव ने पार्टी की कमान अपने हाथों में ले ली. अखिलेश यादव ने अपने पिता और सियासी अखाड़ों के पहलवान मुलायम सिंह और अपने चाचा शिवपाल सिंह को पार्टी के अंदर हाशिये पर धकेल दिया.


कैसे बढ़ी नजदीकियां


जब समाजवादी पार्टी के अंदर मुलायम और शिवपाल को किनारे करने का खेल चल रहा था तब बीएसपी और मायावती ने पूरी तरह से इस मुद्दे पर चुप्पी साध रखी थी. राजनीतिक विशेषज्ञ कहते हैं कि नजदीक आने की एक वजह यह भी कि जब गेस्ट हाउस कांड हुआ था तब अखिलेश यादव को राजनीति का ककहरा भी नहीं मालूम था. अब पार्टी का कमान अखिलेश की हाथों में है और मुलायम सिंह मात्र संरक्षक की भूमिका में हैं. वहीं शिवपाल यादव को पार्टी से बाहर किया जा चुका है.


एक दौर था जब सरकार एसपी की बने या बीएसपी की दोनों दलों के कार्यकर्ता आपस में टकराते रहते थे. अखिलेश की सरकार आने के बाद इसमें काफी हद तक कमी देखने को मिली. दो चार मामलों को छोड़ दिया जाए तो कहीं से भी कार्यकर्ताओं के बीच मारपीट का बड़ा मामला सामने नहीं आया.


दो विरोधी दलों के बीच गठबंधन का इतिहास है पुराना


देश की राजनीति में ऐसी कहानियां भरी पड़ी हैं जब शीर्ष नेताओं का विरोध कर बनी पार्टी या तो फिर से आपस में गठबंधन कर चुनावी मैदान में उतरी या सरकार बनाने में समर्थन दिया हो.


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यह कोई पहला मामला नहीं है कि देश के सबसे बड़े सियासी सूबे उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (एसपी) और बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) एक छतरी के नीचे खड़े हुए हैं. इसके पहले मुलायम सिंह और कांशीराम के बीच भी गठबंधन कर यूपी के चुनावी मैदान में किस्मत आजमा चुके हैं.


2017 में हुए यूपी विधानसभा चुनाव में जीत की संभावनाओं को तलाशने उतरी कांग्रेस और एसपी का गठबंधन भी देखने को मिला था. तब एक नारा चला था 'यूपी को यह साथ पसंद है.' जबकि कांग्रेस और एसपी एक दूसरे के धुर-विरोधी माने जाते रहे हैं.


क्या काम कर पाएगा नया नारा?


मुलायम-कांशीराम के बाद अब एक बार फिर एसपी और बीएसपी सूबे की राजनीति में साथ खड़े हो रहे हैं. दोनों दलों के कार्यकर्ताओं के जुबान पर नया नारा चढ़ चुका है 'एसपी-बीएसपी आई है, नई क्रांति लाई है'. अब देखना यह होगा कि यह नारा 'यूपी को यह साथ पसंद है' की तरह खारिज हो जाएगा या 'मिले मुलायम काशीराम, हवा में उड़ गए जय श्री राम' की तरह सार्थक.


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