UP Assembly Elections 2022: उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे कई मायने में भविष्य की राजनीति को लेकर काफी महत्वपूर्ण साबित होने वाले हैं. यही वजह है कि प्रदेश के चुनावी समर में कूदे सभी राजनीतिक दल वोटों के गणित को साधने के लिए कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहते हैं. एक तरफ जहां योगी सरकार यूपी की सत्ता में वापसी करना चाह रही है तो कांग्रेस अपने संगठन में नई जान फूंककर कर प्रियंका गांधी की अगुवाई में कुछ करिश्मा होने का ख्वाब देख रही है. राजनीतिक तौर पर हाशिए पर गई बीएसपी जातिगत समीकरणों को साधने में जुटी है तो वहीं अखिलेश यादव की अगुवाई में समाजवादी पार्टी भी सियासी गुणाभाग कर राज्य में अगली सरकार बनाने का दावा कर रही है.


इस बार यह देखा जा रहा है कि बीजेपी से लेकर कांग्रेस और बीएसपी तक सभी दलों की तरफ से ब्राह्मण वोटरों को अपने पाले में लाने के लिए कई कदम उठाए गए हैं. बीजेपी ने जहां ब्राह्मण वोटरों को रिझाने के लिए बकायदा कमेटी बनाने का ऐलान किया है, प्रदेश के ब्राह्मण नेताओं और मंत्रियों से घंटों तक राज्य के चुनाव प्रभारी धर्मेन्द्र प्रधान ने दिल्ली में मंथन किया और उसके बाद बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा फीडबैक लिया, वहीं दूसरे दलों की तरफ से ब्राह्मण सम्मेलन करना, इस समुदाय को ताकत को जाहिर करता है. आइये समझते हैं ब्राह्मण वोटों की यूपी में क्या ताकत है और राजनीतिक विश्लेषक शिवाजी सरकार विभिन्न राजनीतिक दलों की तरफ से उठाए गए कदमों को लेकर क्या मानते हैं.


यूपी चुनाव में ब्राह्मण वोटर की कितनी ताकत?


यूपी में ब्राह्मण वोटरों की तहत सिर्फ आठ से दस फीसदी तक है, लेकिन ब्राह्मण समुदाय की ताकत इससे कहीं बहुत ज्यादा है. यहां पर आठ बार ब्राह्मण मुख्यमंत्री रह चुके हैं. गोविन्द बल्लभ पंत से लेकर नारायण दत्त तिवारी तक ब्राह्मण चेहरे के तौर पर राज्य को नेतृत्व दिया. ये बात अलग है कि 1989 के बाद से अब तक कोई भी ब्राह्मण चेहरा सीएम नहीं बन पाया है. यही वजह है कि यह समुदाय पिछले करीब तीन दशक से सिर्फ एक वोटबैंक बनकर रह गया है. लेकिन, इस समुदाय को कोई भी दल अनदेखा नहीं करना चाहता है. यूपी के करीब 60 विधानसभा सीटों पर ब्राह्मण निर्णायक भूमिका में हैं तो वहीं दर्जनभर जिले में इसकी आबादी 20 फीसदी भी ज्यादा है.




दरअसल, राजनीतिक विश्लेषक शिवाजी सरकार का कहना है कि ब्राह्मण का कई वर्गों पर वर्चस्व है. आमतौर पर ये देखा गया है कि लोग ब्राह्मणों की ज्यादा सुनते हैं. ब्राह्मण जिधर जाते हैं बाकी कई तबके भी उसके साथ चलते हैं. ब्राह्मण की छवि पढ़े लिखे की होती है. ऐसे में उनका एक अलग सामाजिक अस्तित्व है. यही वजह है कि अगर पीछे ब्राह्मण समुदाय की बुराइयां भी होती है उसके बावजूद कोई इसकी अनदेखी नहीं करना चाहता है.


सत्ता के हर आयाम पर ब्राह्मणों का असर


शिवाजी सरकार बताते हैं कि सत्ता के जितने भी आयाम है उस पर जरूर ब्राह्मणों का असर रहता है. ब्राह्मण जिधर होता है राजनीतिक झुकाव उधर होने लगता है. खासकर यूपी के समाज में ब्राह्मण एक नेतृत्व देता है, इसे बाकी लोग भी जाने-अनजाने स्वीकार करते हैं. यही वजह है कि ब्राह्मण चुनाव में महत्वपूर्ण फैक्टर बन जाते हैं. उनका कहना है कि ब्राह्मण और ठाकुर में द्वेष भी है लेकिन आमतौर पर ये एक साथ हो जाते हैं. सोशल फैक्टर होने की वजह से ब्राह्मणों का साथ सभी दल चाहते हैं.




राज्य में कब कितने ब्राह्मण मंत्री और विधायक?


पिछले विधानसभा चुनाव यानी 2017 में उत्तर प्रदेश के 312 बीजेपी विधायकों में से 58 ब्राह्मण उम्मीदवार जीतकर विधानसभा पहुंचे थे. योगी सरकार में जिन 56 चेहरों को मंत्री पद दिया गया था उनमें श्रीकांत शर्मा, ब्रजेश पाठक, दिनेश शर्मा और जितिन प्रसाद समेत 9 ब्राह्मण मंत्री बनाए गए. ये अलग बात है कि इसके बावजूद योगी सरकार पर लगातार ठाकुरवाद के के आरोप लगे और कई मौके पर ब्राह्मणों की नाराजगी देखने को मिली.


इससे पहले, बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने इस समुदाय को अपने साथ में लाने के लिए 2007 के विधानसभा चुनाव में 55 से भी ज्यादा ब्राह्मणों को टिकट दिया था. इनमें से 41 ब्राह्मण चुनाव जीतने में कामयाब भी रहे थे और मायावती की राज्य में पूर्ण बहुमत से सरकार भी बनी थी. उस वक्त मायावती ने नारा दिया था- हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु महेश है.




ब्राह्मणों को साधने के लिए किस दल की क्या रणनीति?


बीजेपी जहां ब्राह्मण वोटरों को साथ रखने के लिए ब्राह्मण नेता, और मंत्रियों के साथ मंथन कर कमेटी बनाई है तो वहीं अब वे इस समुदाय में जाकर ये बताने का प्रयास करेगी कि उन्होंने ब्राह्मणों को लिए अयोध्या में मंदिर समेत और क्या-क्या काम किए हैं. बीजेपी ब्राह्मणों की नाराजगी जोखिम नहीं लेना चाहती है क्योंकि उसे ऐसा लगता है कि इस समुदाय की नाराजगी कहीं उसे दोबारा राज्य की सत्ता में आने पर भारी न पड़ जाए.


जबकि कांग्रेस अपने परंपरागत वोटर को एक बार फिर से अपने पाले में लाने में लगी हुई है. सबसे खास बात ये है कि यूपी में जितने भी ब्राह्मण सीएम बने वे सारे कांग्रेस राज में ही थे. ऐसे में प्रियंका गांधी की अगुवाई में कांग्रेस ब्राह्मणों को अपने साथ लाने के लिए पुरजोर कोशिश कर रही है.


बीएसपी की बात करें तो 2007 में ब्राह्मणों के सहारे सत्ता पाने वाली मायावती को यह पता है कि उसके लिए इस समुदाय को वोट कितने मायने रखते हैं. यही वजह है कि सतीश मिश्रा को आगे कर बीएसपी ब्राह्मणों को अपने पाले में लाने में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहती है.


सपा चीफ अखिलेश यादव भी ब्राह्मणों को रिझाने में किसी दल से पीछे नहीं है. पिछले साल सपा ने लखनऊ में परशुराम की 108 फीट लंबी प्रतिमा लगाने की चुनाव दाव खेला था. इसके साथ ही, कई ब्राह्ण चेहरों को सपा ने अपने यहां जगह दी है.





किसका फॉर्मूला कितना हिट?


 दरअसल, शिवाजी सरकार की मानें तो बेशक यूपी चुनाव में ब्राह्मण एक महत्वपूर्ण फैक्टर है. जितने भी ब्राह्मण सीएम बने कांग्रेस ने ही बनाया है. लेकिन सवाल ये है कि कांग्रेस क्या सत्ता में आ पाएगी. सत्ता के लिए ब्राह्मण रणनीति बनाते हैं. ब्राह्मण को जिधर अच्छा लगेगा जो दल तवज्जों देगें, उसके साथ जाने का प्रयास करेंगे. इन सारे फैक्टर्स में खासकर दलित और ओबीसी वोट भी यूपी के रंग को तय करेगा. उनका मानना है कि बीजेपी जिस तरह हिन्दुत्व के कार्ड पर खेल रही है, ये भी कम कमजोर नहीं है. उसका भी व्यापक असर है. बीजेपी के साथ समस्या है कि जो डिलीवरी करनी चाहिए वो नहीं कर रही है, ऐसे में पूरा चुनाव धर्मगत समीकरण के आधार पर हो सकता है.


ऐसी स्थिति में कांग्रेस के लिए प्रियंका गांधी कितना न्यूट्रलाइज कर पाती हैं, क्योंकि सारी पार्टियां हिन्दुत्व के ईर्द गिर्द घूम रही है. हिन्दुत्व पूरी तरह बीजेपी के साथ है. ये कहा जा रहा है सनातन धर्म को बीजेपी ने आघात पहुंचाया है. ये सभी कयासबाजी है, लेकिन यूपी चुनाव बहुत महत्वपूर्ण मोड़ ले रहा है.