Kerala: आमतौर पर विपक्ष की सभी पार्टियां बीजेपी को अल्पसंख्यकों का विरोधी बताती हैं. लेकिन, पीएम नरेंद्र मोदी के पिछले कुछ दिनों के दौरे ने इससे उलट तस्वीर पेश की है. दरअसल, पीएम मोदी दिल्ली के एक चर्च में जाने के बाद मंगलवार (25 अप्रैल) को केरल में आठ ईसाई धर्म गुरुओं से मिले.
पीएम मोदी की इस मुलाकात को राजनीति की समझ रखने वाले दूर का निशाना मान रहे हैं. लंबे समय से इसकी चर्चा हो रही है कि यूपी-बिहार में जहां पसमांदा मुस्लिम को साधने में पार्टी लगी है तो वहीं मणिपुर और केरल जैसे राज्यों में बीजेपी ईसाइयों को करीब लाने की तैयारी में है.
आपको बता दें कि केरल वो राज्य है जहां लोकसभा के मामले में बीजेपी आज तक खाता भी नहीं खोल पाई है. ऐसे में आंकड़ों के सहारे आपको बताएंगे कि क्या केरल में पीएम मोदी की धर्म गुरुओं से हुई मुलाकात का 2024 में बीजेपी के राजनीतिक भाग्य पर कोई असर पड़ सकता है?
यहां प्रमुख हैं एलडीएफ और यूडीएफ
केरल की राजनीति की बात करें तो यहां दो प्रमुख धड़े एलडीएफ और यूडीएफ हैं. एलडीएफ यानी लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट. लेफ्ट पार्टियों के इस गुट की केरल में सरकार है. यहां सबसे जरूरी बात ये है कि केरल वो पहला राज्य है, जहां कम्युनिस्ट पार्टी ने पहली बार सरकार बनाई थी.
साल 1950 के दशक के अंत में ये वो दौर था जब कांग्रेस का पूरे देश में एकछत्र राज था और नेहरू को चुनौती देने वाला कोई नेता पूरे देश में मौजूद नहीं था. इसके बावजूद साल 1957 में कम्युनिस्ट पार्टी ने केरल में सरकार बनाने में सफलता पाई थी. पूरी दुनिया में तब ये पहला उदाहरण था जब चुनाव जीतकर किसी कम्युनिस्ट पार्टी ने सरकार बनाई थी.
इस इलेक्शन के बाद ईएमएस नंबूदरीपाद राज्य के सीएम बने थे. लेकिन, कम्युनिस्ट पार्टी की ऐसी जीत नए-नए आज़ाद हुए भारत के लिए चिंता का विषय बन गया. कहते हैं कि करीब ढाई साल चली इस सरकार को तब की कांग्रेस प्रेसिडेंट इंदिरा गांधी के सुझाव पर नेहरू ने बर्खास्त कर दिया था.
बाद के दशकों में राज्य की सत्ता कांग्रेस की लीडरशिप वाली यूडीएफ और लेफ्ट पार्टियों का गठबंधन एलडीएफ के पाले में जाती रही. वैसे केरल का हिसाब किताब बिल्कुल हिमाचल या राजस्थान जैसा है. यानी यहां हर पांच साल में सरकार बदल जाती है, लेकिन 2021 की मई में एलडीएफ फिर से केरल जीतकर यहां दोबारा सरकार बनाने में सफल रही.
केरल में आज तक बीजेपी का सिर्फ एक विधायक एक बार ही जीता
ये किस्सा सुनकर आपको लग रहा होगा कि इसमें बीजेपी कहां हैं. जवाब ये है कि बीजेपी कहीं नहीं है. 140 विधानसभा सीटों वाले केरल में आज तक बीजेपी का सिर्फ एक विधायक एक बार ही जीतने में सफल रहा है. आज तक पार्टी का कोई सांसद केरल से चुनकर दिल्ली नहीं आया. ऐसे में कहा जा रहा है कि राज्य में ईसाइयों के करीब जाकर बीजेपी यहां अपनी पकड़ मज़बूत करने की कोशिश में है. पीएम मोदी की ईसाई धर्मगुरुओं से हुए मुलाकात को इसी से जोड़कर देखा जा रहा है. एक फैक्ट ये है कि साल 2016 में बस एक बार बीजेपी का एक विधायक यहां से जीता है. साल 2021 में वो सीट भी बीजेपी सीपीआई से हार गई.
हालांकि, पार्टी के लिए राहत की बात ये है कि बीतते सालों के साथ राज्य में इसका वोट शेयर बढ़ा है. साल 2011 विधानसभा चुनाव में बीजेपी को जहां 6.6 पर्सेंट वोट मिले थे. वहीं, साल 2016 में ये बढ़कर 14.93 पर्सेंट हो गया. साल 2021 में ये 14.4 पर्सेंट पर रहा. पार्टी के लिए राहत की बात ये भी है कि पिछले विधानसभा चुनाव में सात सीटों पर बीजेपी दूसरे नंबर पर थी और कई सीटों पर चुनावी नतीजों को प्रभावित किया था.
तीन राज्यों में रहीं लेफ्ट पार्टियों की सरकारें
भारत के जिन तीन राज्यों में कम्युनिस्ट यानी लेफ्ट पार्टियों की सरकारें रही हैं उनमें केरल के अलावा त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल शामिल हैं. त्रिपुरा में लेफ्ट पार्टियों का एकछत्र राज था, लेकिन साल 2018 और 2023 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने इसे ध्वस्त कर दिया.
वहीं, बंगाल में लेफ्ट पार्टियों के 34 सालों का राज समाप्त करने वाली ममता बनर्जी के किले में भी बीजेपी तेज़ी से सेंध लगा रही है. केरल के मामले में पार्टी के लिए ईसाई वोट्स बेहद अहम होंगे.
बीजेपी के स्ट्रेटजी में ईसाइयों के साथ राज्य में हिंदुओं और मुसलमानों तक पहुंचने का भी ख़्याल रखा है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, 8 अप्रैल को हुए ईस्टर पर बीजेपी ने एक लाख मुस्लिम परिवारों तक पहुंचने का प्रयास किया. वहीं, 15 अप्रैल को विशु पर हिंदुओं और 22 अप्रैल को ईद पर मुसलमानों से संपर्क साधने की कोशिश की गई. ऐसे आउटरीच के पीछे बीजेपी का मकसद वोटों के गणित को साधने की है.
केरल की आबादी
दरअसल, केरल में आधी आबादी अल्पसंख्यकों की है. राज्य में मुसलमानों की आबादी 26% है. वहीं ईसाई समुदाय के 18% लोग हैं. विश्लेषकों का कहना है कि बीजेपी की जैसी मुस्लिम विरोधी छवि रही है, उसकी वजह से माना जाता है कि मुसलमान शायद ही पार्टी को वोट देंगे. ऐसे में राज्य में हिंदुओं के अलावा ईसाई समुदाय पार्टी के लिए बेस्ट ऑप्शन नजर आता है. शायद इसी वजह से पीएम नरेंद्र मोदी ने दो दिनों के दौरे पर 8 ईसाई धर्म गुरुओं से मुलाकात की.
वहीं, पिछले दो चुनावों से केरल में कांग्रेस जीतने में असफल रही है. ऊपर से पार्टी का ईसाई समुदाय के बीचे जैसी पकड़ पहले थी वो अब कमज़ोर होती जा रही है. उससे भी बड़ी बात ये है कि आज के दौर में हिंदू राइट विंग जिस लव जिहाद के मुद्दे को ज़ोर-शोर से उठाता है, उसे सबसे पहली बार केरल के क्रिश्चियन कम्युनिटी ने उठाया था. ऐसे में बीजेपी लव जिहाद के मुद्दे पर भी इस समुदाय के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश कर रही है.
हालांकि, पार्टी द्वारा इस समुदाय के रोज़ी रोटी के मुद्दों को गंभीरता से नहीं उठाए जाने की वजह से वैसा तालमेल बन नहीं पा रहा. ऊपर से नॉर्थ इंडिया में आरएसएस से जुड़े आउट फिट्स पर जिस तरह से चर्चों पर हमला करने के आरोप लगते हैं, उनकी वजह से भी ये समुदाय बीजेपी वालों से बिदका रहता है.
शायद इन्हीं वजहों से पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने जिन सीटों पर अच्छा प्रदर्शन किया था, उनमें से ज़्यादातर पर ईसाई वोटरों का कोई प्रभाव नहीं था. विश्लेषकों का ये भी मानना है कि लव जिहाद जैसे मुद्दों पर बीजेपी ईसाइयों के कितने करीब जाएगी, राज्य के मुसलमान बाकी पार्टियों के पीछे उतनी मज़बूती से खड़े हो जाएंगे.
नॉर्थ ईस्ट के कई राज्यों में बीजेपी ने ये साबित किया है कि चाहे पहचान आधारित राजनीति हो या लेफ्ट का डॉमिनेंस, किसी न किसी तरह से पार्टी इनका काट निकाल ही लेती है.
ऐसे में देखने वाली बात ये होगी कि 2024 में पीएम नरेंद्र मोदी की बीजेपी उस केरल में कैसा प्रदर्शन कर पाती है जिसकी डगर नेहरू से इंदिरा गांधी तक के लिए आसान नहीं रही.