क्या आपने कोई ऐसी फिल्म देखी है जिसमें कहानी में आए केस का फैसला आपको ही करना पड़ा हो. अगर नहीं तो जी5 की ओरीजनल नेलपॉलिश देखें और निर्णय दें. फिल्म में न्यायाधीश कृष्ण भूषण (रजित कपूर) कोई सीधा-सपाट फैसला नहीं सुनाते क्योंकि कहानी सीधी-सरल नहीं है. यहां पूरा मामला दो पाटों के बीच फंसा है, जिसमें साबुत न्याय देना आसान नहीं है क्योंकि मुद्दा यह है कि जुर्म तो दिमाग करता है, इंसान पर तो सिर्फ इल्जाम लगते हैं. नेलपॉलिश में अदालत के कठघरे में खड़ा मुलजिम गुनहगार भी है और बेगुनाह भी. ऐसे में क्या फैसला सही हो सकता है. फिल्म के नरेटर का दावा है कि यह कहानी एक सच्चे मुकदमे से प्रेरित है. ऐसा मुकदमा, जो दशकों में एकाध बार आता है.


मुद्दा यह कि उत्तर प्रदेश में पांच साल में प्रवासी मजदूरों के 38 बच्चों की हत्या हो चुकी है. पुलिस को कभी कोई सुराग नहीं मिला. उम्र के प्राइम टाइम में सेना और खुफिया सेवाओं में रह कर देश की सेवा करने वाले वीर सिंह (मानव सिंह) लखनऊ में एक स्पोर्ट्स एकडमी चलाते हैं. अनाथालयों को आर्थिक मदद देते हैं. उनका बड़ा नाम और समाज में सम्मान है. मगर वक्त का पहिया घूमता है. दो प्रवासी मजदूर बच्चों की लाशें मिलने के बाद वीर सिंह की गिरफ्तारी होती है. वीर सिंह के फार्म हाउस से एक बच्चा जिंदा बरामद होता है. कई बच्चों के खून के निशान वहां मिलते है. मारे गए बच्चों के साथ रेप भी हुआ है. इसकी पुष्टि फार्म हाउस की विभिन्न जगहों तथा बच्चों के शरीर में मिले वीर सिंह के डीएनए से होती है. बच्चों की हत्याओं का केस सुलझने को सरकार की सफलता जैसा देखने वाला विपक्षी दल मजबूत वकील सिद्धार्थ जयसिंह (अर्जुन रामपाल) को वीर सिंह के बचाव में अदालत में उतारता है. बदले में जयसिंह को मिलेगी राज्यसभा की उम्मीदवारी. क्या जयसिंह केस को सिर के बल खड़ा कर सकेंगे और क्या वीर सिंह की कहानी में कोई ट्विस्ट आएगा.



नेलपॉलिश साइकोलॉजिकल ड्रामा है. जो अदालत में रंग बदलता है. तमाम वैज्ञानिक सुबूत वीर सिंह के खिलाफ होने के बावजूद जयसिंह का तर्क हैः जब तक साइंस एक्यूरेट नहीं, साइंस नहीं है. एस्ट्रोलॉजी है. जहां मनचाहे नतीजे पाने के लिए ग्रहों के उपाय किए जा सकते हैं. यह कहानी अपने मध्य-बिंदु पर इतनी तेज घूमती है कि कई भंवर बन जाते हैं. दर्शक के दिमाग में किंतु-परंतु पैदा होने लगते हैं. वीर सिंह का किरदार अदालत और दर्शक के लिए चुनौती बन जाता है कि उसके बारे में क्या राय बनाई जाए. जज, वकील और दर्शक तीनों को यहां सोचना है.



नेलपॉलिश की खूबसूरती इसका चौंकाने वाला केस है, जो लेखक-निर्देशक बग्स भार्गव कृष्ण ने मेहनत से बुना और पर्दे पर उतारा है. ऐक्टरों ने भी इसमें अच्छा अभिनय किया है लेकिन समस्या यह है कि जिस वीर सिंह की वजह से उलझनें हैं, उसकी कहानी तो समझ में आती है. परंतु केस को अंजाम तक पहुंचाने में लगे सिद्धार्थ जयसिंह और कृष्ण भूषण के जीवन की कहानियां साफ नहीं हैं. आप यह नहीं जान पाते कि सिद्धार्थ जयसिंह क्यों हमेशा उखड़ा और परेशान रहता है. क्यों शराब पीते हुए हमेशा अपने वकील/जज पिता की तस्वीर को डार्टबोर्ड बना कर निशाना लगाता रहता है. इसी तरह जज कृष्ण भूषण की पत्नी (मधु शाह) क्यों हमेशा वाइन पीकर नशे में रहती है या फिर उससे झूठ बोलती है. वह कुछ-कुछ मानसिक रूप से बीमार लगती है. यह भी साफ नहीं है कि क्यों जज साहब उसे दुनिया से अलग-थलग रखते हैं. इन सवालों के जवाब देने की जिम्मेदारी लेखक-निर्देशक के खाते में जाती है. फिल्म के अंत में जज द्वारा की गई निर्णायक टिप्पणी संतुलित और प्रशंसनीय है.



फिल्म सधी रफ्तार से चलती है और करीब दो घंटे पांच मिनट में अपनी बात पूरी करती है. नेलपॉलिश में समय-समय पर नए रंग, नई छटाएं उभरती हैं और रोमांच बना रहता है. मॉडल-ऐक्टर के रूप में करिअर शुरू करने वाले अर्जुन रामपाल की ट्रेजडी यह है कि जैसे-जैसे उनके अभिनय में निखार आता गया, वह निजी और कारोबारी उलझनों में फंसते चले गए. इससे फिल्मों में उनका काम करना कम होता गया. नेलपॉलिश में वह अपने किरदार में फिट हैं. उनके सामने सरकारी वकील के रूप में खड़े होने वाले आनंद तिवारी अपनी कद-काठी के साथ रोल में जमे हैं. अपनी भूमिका को आनंद ने अच्छे ढंग से निभाया है. रंगमंच से आए मानव कौल बीते कुछ वर्षों से फिल्मों में अपनी सही भूमिका तलाश रहे हैं और उन्हें कुछ अच्छे मौके मिले हैं. तुम्हारी सुलू के बाद यहां एक बार फिर वह अपने अभिनय की छाप छोड़ते हैं.