Class of 83 Review: फिल्म दिखाती है पुलिस के सिलेबस से बाहर का कोर्स
क्लास ऑफ 83 के शुरुआती मिनटों में नासिक (महाराष्ट्र) पुलिस ट्रेनिंग सेंटर में खाकी की ट्रेनिंग ले रहे थकेले युवाओं पर ट्रेनर चिल्लाता है, ‘भविष्य की मुंबई पुलिस... फिल्म में नकली पुलिसवाले का रोल करने लायक भी नहीं हो तुम लोग.’ आज की मुंबई पुलिस पर ऐसे ही तंज कसे जा रहे हैं.
अतुल सभरवाल
बॉबी देओल, अनूप सोनी, जॉय सेनगुप्ता, विश्वजीत प्रधान
विडंबना है कि जिस वक्त सुशांत सिंह राजपूत की मौत का केस मुंबई पुलिस से छीन कर सीबीआई को दे दिया गया है, उस समय उसके कर्मठ-जांबाजों की कहानी नेटफ्लिक्स पर रिलीज हो रही है. 1983 से 2020 तक बहुत कुछ बदल चुका है. अपने गौरवशाली अतीत को संभाल कर रखना किसी के लिए भी आसान नहीं होता.
क्लास ऑफ 83 के शुरुआती मिनटों में नासिक (महाराष्ट्र) पुलिस ट्रेनिंग सेंटर में खाकी की ट्रेनिंग ले रहे थकेले युवाओं पर ट्रेनर चिल्लाता है, ‘भविष्य की मुंबई पुलिस... फिल्म में नकली पुलिसवाले का रोल करने लायक भी नहीं हो तुम लोग.’ आज की मुंबई पुलिस पर ऐसे ही तंज कसे जा रहे हैं. इन दिनों जब ऐक्टर सुशांत सिंह राजपूत की मौत को मीडिया ट्रायल में हत्या बताते हुए मुंबई पुलिस की जांच पर अंगुलियां उठ रही हैं और सुप्रीम कोर्ट ने मामला सीबीआई को सौंप दिया है, क्लास ऑफ 83 देखना रोचक होगा. जिसमें 1980 के दशक की मुंबई पुलिस के सामने देश के सबसे बड़े महानगर को यहां सक्रिय माफियाओं के चंगुल से छुड़ाने का चैलेंज है. स्वतंत्र भारत के इतिहास में इतनी बड़ी चुनौती का सामना शायद देश की किसी अन्य पुलिस को नहीं करना पड़ा है.
क्लास ऑफ 83 पुलिस सिस्टम को अंदर से देखती है. जहां पुलिस सिस्टम ऐसे सिक्के की तरह नजर आता है, जिसके दो पहलू हैं. एक लॉ (कानून). दूसरा ऑर्डर (व्यवस्था). पुलिस को ऑर्डर बनाए रखने के लिए कभी-कभी लॉ की बलि चढ़ानी पड़ती है. कारण यह कि ऑर्डर बना रहे तो सिस्टम सही चलता है और इस सिस्टम की असली पढ़ाई पुलिस के सिलेबस से बाहर होती है. जहां अपराधियों के साथ सफेदपोशों और धनपशुओं का गठजोड़ बार-बार पुलिस व्यवस्था को अंदर से खोखला करता रहता है. इससे पुलिस कैसे निबटेॽ
यह फिल्म क्राइम जर्नलिस्ट एस.हुसैन जैदी की 2019 में आई किताब ‘क्लास ऑफ 83: द पनिशर्स ऑफ मुंबई पुलिस’ पर आधारित है. कहानी सीधी-सरल है कि एक काबिल पुलिस अफसर विजय सिंह (बॉबी देओल) मुख्यमंत्री पाटकर (अनूप सोनी) की आंखों में खटकता है और उसे पनिशमेंट पोस्टिंग में मुंबई से हटाकर नासिक ट्रनिंग स्कूल का डीन बना दिया जाता है. वहां डीन बैच के सबसे नालायक पांच लड़कों को चुन कर उन्हें ऐसे तैयार करता है कि वे पुलिस की वर्दी में रहते हुए अंडरवर्ल्ड के गुनाहगारों का सफाया करें. डीन को कामयाबी मिलती है और उसके तैयार किए पुलिसिए पाटकर के आश्रय में पनपने वाले कलसीकर और शेट्टी जैसे माफियाओं की बैंड बजा देते हैं. निश्चित ही पत्रकारीय तथ्यों पर आधारित इस कहानी में सच के साथ कल्पना का घाल-मेल है मगर यह फिल्म रोचक ढंग से मुंबई में पुलिस-माफिया-सत्ता की खींचतान, गठजोड़, मजबूरियों और संघर्षों की तस्वीर सामने लाती है. फिल्म में पुलिस के आपसी टकराव और अहंकार भी सामने आते हैं. अपराध और उससे लड़ने को लेकर कुछ रोचक संवाद यहां हैं. जैसे, ‘क्राइम और क्रिमिनल बिन बुलाए बारातियों की तरह होते हैं’, ‘जहां बारूद न चले वहां दीमक की तरह काम करना पड़ता है’, ‘कैपिटलिस्ट इकोनॉमी आई तो सोशलिस्ट नारे चलेंगे क्या’ और अंत में विजय सिंह का लंबा डायलॉग, ‘हर बॉडी का इम्यून सिस्टम होता है. गवर्नमेंट बॉडी, एजुकेशनल बॉडी, जूडिशियल बॉडी. ये सब मजबूत किले हैं. इनका इम्यून सिस्टम इतना सख्त होता है कि इन्हें बाहर की मार से हिलाया नहीं जा सकता. इन्हें अंदर से बीमारी की तरह सड़ाना पड़ता है.’
मुंबई पुलिस और अडंरवर्ल्ड के टकराव पर दर्जनों फिल्में बनी हैं. जिन्होंने पुलिस को गौरवान्वित किया है. क्लास ऑफ 83 भी इसी श्रणी का सिनेमा है. जो अपराधियों के विरुद्ध मुंबई पुलिस की बहादुरी और कर्मठता की कहानी कहता है. इनके साहस-श्रम ने मुंबई को आतंकवादी बन चुके माफियाओं के चगुंल से आजाद कराया. इन पुलिसवालों के बलिदान के अध्याय में एक पन्ना ऐसा भी है, जिसमें इनमें से कई को खुद विभाग की ओर से चलाई गई सख्त जांच से गुजरना पड़ा. किसी-किसी को इसमें सजा भी हुई. क्लास ऑफ 83 ऐसे पुलिसवालों की भी कहानी है.
लगातार मल्टी स्टारर फिल्मों में खोए जा रहे बॉबी देओल 2010 में फिल्म हेल्प के बाद करीब एक दशक पश्चात किसी फिल्म के मुख्य चेहरे के रूप में आए हैं. माना जा सकता है कि काल्पनिक-रूमानी संसार से वह हकीकत की दुनिया में उतर आए हैं. जिसमें हीरो आम आदमी जैसा दिखता है और साथी कलाकारों को भी बराबरी की जगह देता है. फिल्म में बॉबी ने विजय सिंह का किरदार बखूबी निभाया है. उम्मीद की जानी चाहिए कि यह रोल इंडस्ट्री में उनके लिए नए रास्ते खोलेगा. अनूप सोनी, जॉय सेनगुप्ता, विश्वजीत प्रधान ने भी अपने रोल प्रभावी ढंग से निभाए. निर्देशक अतुल सभरवाल संतुलन बनाए रहे और मात्र 98 मिनट में काफी कुछ कह गए. वह क्लास ऑफ 83 को फिल्मी बनाने के चक्कर में नहीं पड़े. इसका सबसे बड़ा सुबूत यह है कि फिल्म में न तो मुंबई में उस दौर के शराबखाने हैं और न छलकते जामों, उड़ते नोटों के बीच आइटम डांस करती कोई हसीना. खल्लास.