डायरेक्टर: अश्विनी अय्यर तिवारी
रेटिंग: 2.5 स्टार
बॉलीवुड में इन दिनों महिला केंद्रित फिल्में बनाने का दौर चल पड़ा है. कंगना रनौत की 'क्वीन' हो या फिर तापसी पन्नू की 'पिंक'. पिछले कुछ समय से बड़े पर्दे पर लगातार अभिनेत्रियां छाई हुई हैं. ऐसी कहानियों को कभी कॉमेडी के जरिए दर्शकों के सामने परोसा जाता है तो कभी गंभीरता से... कभी फिल्मों में ये फार्मूला हिट कर जाता है और कभी ढ़ीली स्क्रिप्ट और एक्टिंग की वजह से फिल्म फ्लॉप हो जाती है. 'बरेली की बर्फी' के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है. इससे पहले 'नील बट्टे सन्नाटा' जैसी गंभीर फिल्म बना चुकी डायरेक्टर अश्विनी अय्यर इस बार अपनी लीड कैरेक्टर कृति सैनन की कमजोर एक्टिंग की वजह से मार खा गई हैं. कृति सैनन बहुत ही खूबसूरत हैं और फैशनेबल भी और इस फिल्म में यही उनकी कमजोरी है. बरेली की एक साधारण सी लड़की के रोल में वो फिट नहीं बैठती हैं. कॉस्ट्यूम के जरिए उन्हें कैरेक्टर में साधने की कोशिश की गई है लेकिन हाव भाव और बातचीत से वो बनावटी लगती हैं.
फिल्म के लीड कैरेक्टर की कमजोरी का फायदा इस फिल्म में सपोर्टिंग रोल कर रहे राजकुमार राव को मिलता है और वो पूरा लाइम लाइट खींच ले जाते हैं. राजकुमार इस फिल्म में प्रीतम विद्रोही के किरदार में इतने दमदार हैं कि आयुष्मान खुराना और कृति सैनन दोनों पर भारी पड़ जाते हैं. जब से फिल्म में उनकी एंट्री होती है फिल्म में जान आ जाती है.
कहानी-
'बरेली की बर्फी' एक ऐसी लड़की बिट्टी (कृति सैनन) की कहानी है जो अंग्रेजी फिल्में देखती है, सिगरेट पीती है और छत पर खुले में ब्रेक डांस करती है. उसके अंदर हर वो गुण हैं जो समाज कभी भी एक लड़की में हो तो उसे अवगुण ही मानता है. इस वजह से दो-दो बार उसकी इंगेजमेंट होते-होते रह गई है. बिजली विभाग के शिकायत डिपार्टमेंट में काम करने वाली बिट्टी को शादी के लिए ऐसे लड़के की तलाश है जो कम से उससे ऐसे सवाल तो ना पूछे कि क्या वो 'वर्जिन' है? वो जैसी भी है उसे पसंद कर ले. वो कहती भी है, 'कोई तो है भैया इस दुनिया में.. जिसे लगता है कि हम जैसे भी हैं, अच्छे हैं और उसे पसंद हैं.'
वो घर से भागने की सोचती है फिर स्टेशन पर 'बरेली की बर्फी' किताब पढ़ती है और वापस लौट आती है. उसे लगता है कि लेखक प्रीतम विद्रोही (राजकुमार राव) ने अपनी किताब में जिसके बारे में लिखा है वो बिट्टी ही है. प्रीमत विद्रोही को खोजने का सिलसिला शुरू होता है और उसी मुलाकात चिराग (आयुष्मान खुराना) से होती है. दोनों की दोस्ती होती है और प्रीमत विद्रोही के आते ही कहानी लव ट्राएंगल में बदल जाती है.
एक्टिंग
फिल्म के एक सीन में बिट्टी अपने पापा से कहती है कि बेटा होता तो लोग कहते क्या हुआ जो सिगरेट पीता है. क्या हुआ एक दो बार इंगेजमेंट होते-होते रह गई लेकिन उस पर सवाल इसलिए उठते हैं कि क्योंकि वो एक लड़की है. इस सीन में कृति इतनी भावहीन दिखती हैं कि इतना गंभीर विषय पर भी दर्शक के अंदर कोई भाव नहीं जगा पाता.
इस फिल्म में बिट्टी की मां के किरदार में अभिनेत्री सीमा पाहवा खूब जमती हैं. पकंज त्रिपाठी ऐसे पिता के किरदार में हैं जो बेटी से सिगरेट मांग कर पीते हैं. ये फिल्म करीब एक घंटे 50 मिनट की है जिसे पकंज त्रिपाठी, सीमा पाहवा और राजकुमार राव जैसे दमदार एक्टर्स भी नहीं बचा पाए हैं.
आयुष्मान खुराना की पिछली फिल्म मेरी प्यारी बिंदू भी लोगों को कुछ खास पंसद नहीं आई थी और इस बार वो स्क्रीन पर तब तक जमें हैं जब तक फ्रेम में राजकुमार राव नहीं हैं. राजकुमार के पर्दे पर आते ही आयुष्मान सपोर्टिंग एक्टर जैसे लगते हैं.
सबसे ज्यादा अखरती है कृति सैनन की कमजोर एक्टिंग जो फिल्म के क्लाइमैक्स में भी इतनी भाव शून्य दिखती है कि सब फीका पड़ जाता है. 'हिरोपंती' और 'दिलवाले' में कृति को पसंद किया गया था. उनकी पिछली फिल्म और
क्यों देखें
ये एक रोमांटिक कॉमेडी फिल्म है तो कहीं-कहीं हंसाती भी है. इस फिल्म में कुछ ऐसे डायलॉग भी हैं जो आप पहली बार सुन रहे होंगे. जैसे- 'ये तो आस्तीन का एनाकोंडा निकला...', 'डिप्रेस करने भेजा था तुम इंप्रेस करके आ गए हो..'. 'चिराग के पिता ने सोचा था कि लड़का बड़ा होकर नोट छापेगा.... वो छापता तो पर पैसे नहीं, पैंपलेट्स.' इत्यादि. इस फिल्म की सबसे अच्छी बात ये है कि इसे ज्यादा खींचा नहीं गया है. 'बरेली की बर्फी' फीकी है लेकिन फैमिली के साथ एक बार देखी जा सकती है.