नई दिल्ली: भारतीय सिनेमा के जनक कहे जाने वाले दादा साहेब फाल्के ने देश को उस वक्त पहली फिल्म दी जब ना तो कोई फिल्मों में काम करना चाहता था, ना ही किसी को कैमरा, स्क्रिप्ट, डायलॉग और बाकी प्रोजक्शन के कामों की जानकारी थी. वो ऐसा दौर था जब उनकी पहली फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' के लिए कोई हीरोइन नहीं मिली तो एक रसोइए ने हीरोइन की भूमिका निभाई. भारत को ये पहली फिल्म 1913 में देखने को मिली जिसमें आवाज नहीं थी. ये फिल्म 'मूक' थी. इसी फिल्म को बनाने वाले आज दादा साहेब फाल्के की 148वीं बर्थ एनिवर्सरी है. इस मौके पर आपको बताते हैं कि दादा साहेब के बारे में कुछ ऐसी बातें जो आपको जरूर जाननी चाहिए-
फोटोग्राफी से की थी करियर की शुरूआत
दादा साहेब फाल्के का असली नाम धुंडीराज गोविंद फाल्के था. उनका जन्म 30 अप्रैल 1870 को महाराष्ट्र के नासिक शहर में हुआ था. उन्हें बचपन से ही आर्ट में दिलचस्पी थी. 15 साल की उम्र में उन्होंने मुंबई के जे.जे.कॉलेज ऑफ आर्ट में दाखिला लिया. इसके बाद उन्होंने महाराज शिवाजी राव विश्वविद्यालय के आर्ट भवन में एडमिशन कराया और चित्रकला के साथ साथ फोटोग्राफी की पढ़ाई की. उन्होंने फोटोग्राफर के तौर पर अपनी पहली नौकरी गोधरा में शुरू. कुछ समय बाद ही प्लेग से अचानक उनकी पत्नी और बच्चे की मौत हो गई जिसे वो बर्दाश्त ना कर सके और नौकरी छोड़ दी.
बाद में दादा साहेब ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग में मानचित्रकार के पद पर भी काम किया. इसे छोड़ने के बाद उन्होंने 40 साल की उम्र में प्रिंटिंग का काम शुरू किया. उन्होंने पेंटर राजा रवि वर्मा के लिए भी काम किया. इसके बाद उन्होंने अपना प्रिंटिंग प्रेस खोल लिया. इसी समय उन्होंने पहली बार विदेश का यात्रा भी किया. लेटेस्ट टेक्नॉलोजी और मशीनरी को समझने के लिए वो जर्मनी पहुंचे. इसके बाद पार्टनर से प्रिंटिंग को लेकर चल रहे विवाद की वजह से उन्होंने इस काम को छोड़ दिया.
ईशा मसीह पर बनी मूवी को देखकर आया फिल्म मेकिंग का आइडिया
उनको फिल्म बनाने का आइडिया साइलेंट फिल्म The Life of Christ देखने के बाद आया. इसे देखकर उन्हें लगा कि अगर महाभारत और रामायण को लेकर वो पर्दे पर कहानी दिखाएं तो इसे लोग पसंद करेंगे. 1910 में दादा साहेब ने पहली शॉर्ट फिल्म 'Growth of a Pea Plant' बनाई. इसके लिए उन्होंने मटर बोया और फिर उसके बढ़ने की प्रक्रिया के हर फ्रेंम को अपने कैमरे में कैद दिया. 45 दिनों तक शूट करने के बाद उन्होंने 2 मिनट की ये शॉर्ट फिल्म बनाई.
लीड एक्टर की तलाश में लिखा-Ugly faces need not apply
इस फिल्म में अच्छे दिखने वाले कलाकारों की जरूरत थी जिसके लिए कई एड दिए गए. इसके बाद उनके यहां हर तरह के लोग पहुंचे. परेशान होकर उन्होंने फिर से एक एड दिया जिसमें लिखा- “Ugly faces need not apply”
पत्नी ने ज्वैलरी बेचकर दिए फिल्म बनाने के लिए पैसे
इसके बाद दादा साहेब फाल्के फिल्म मेकिंग का काम सीखने इंग्लैंड गए. आने के बाद उन्होंने 'राजा हरिश्चंद्र' बनाना शुरू किया. इस फिल्म को बनाने में करीब 15 हजार रुपये खर्च हुए. ये सारे पैसे उनकी दूसरी पत्नी सरस्वती बाई ने अपनी ज्वैलरी बेचकर दी. अगर उनकी पत्नी साथ ना देंती तो शायद वो पहली फिल्म ना बना पाते. इंग्लैंड से आने के बाद जब उन्होंने दोस्तों से फिल्म बनाने का आइडिया शेयर किया तो किसी ने उनका साथ नहीं दिया. कुछ दोस्तों ने तो उन्हें मेंटल असाइलम भेजने की बात भी कही. लेकिन सरस्वती बाई ने उनका सपोर्ट किया.
रूपाली भावे ने अपनी किताब Lights Camera Action में लिखा है कि सरस्वती बाई ने कॉस्ट्यूम तैयार करने से लेकर सभी क्रू मेंबर्स के लिए खाना बनाने तक का हर काम खुद किया. दादा साहेब के इस आइडिया पर काम करने के लिए उन्होंने खुद उत्साहित किया. उन्होंने सिर्फ एक काम नहीं किया. दादा साहेब उन्हें इस फिल्म में लीड एक्ट्रेस के रूप काम करवाना चाहते थे लेकिन उन्होंने मना कर दिया. रूपाली भावे ने लिखा है कि सरस्वती बाई ने कहा, ''मैं पहले से ही इतना सारे काम संभाल रही हूं. अगर में अभिनय करूंगी तो क्या मैं ये सारे काम कर पाऊंगी? मैं फिल्म में काम नहीं करूंगी.''
इसके बाद जब मुख्य भूमिका के लिए कोई नहीं मिला तो रेस्टोरेंट में रसोइए का काम करने वाले सालुंके ने रानी तारामती की भूमिका निभाई.
तीन आने में दिखाई फिल्म
फिल्म बनने के बाद लोगों को थियेटर तक लाने की समस्या भी बहुत बड़ी थी. उस समय दो आने में लोग 6 घंटे नाटक देखते थे तो फिर फिल्म देखने कौन आता. इसके लिए नए तरीके से प्रचार-प्रसार किया गया. इसके प्रचार में लिखा गया- 'सिर्फ तीन आने में देखिए दो मील लंबी फिल्म में 57 हजार चित्र...' कुछ खास लोगों और पत्रकारों को लिए 21 मई को इस फिल्म का प्रीमियर रखा गया. बाद में 3 मई, 1913 को मुंबई के कोरोनेशन थियेटर में ये फिल्म रिलीज की गई. ये फिल्म हिट हुई. इसके बाद ग्रामीण क्षेत्रों में इसे दिखाने के लिए कई प्रिंट तैयार किए गए.
इस फिल्म की कहानी दादा साहेब की थी और डायरेक्टर प्रोड्यूसर भी वही थी. ये फिल्म कुल 40 मिनट की थी. Wikipedia के मुताबिक इस फिल्म ने कुल 47000 रूपये की कमाई की थी.
ये हैं मुख्य फिल्में
'राजा हरीशचंद्र' के बाद 'मोहिनी भस्मासुर' (1913), 'सत्यवान सावित्री' (1914), 'लंका दहन' (1917), 'श्री कृष्णा जन्म' (1918), 'कालिया मर्दन' (1919) जैसी फिल्म दादा साहेब ने बनाईं. 1932 में रिलीज हुई फिल्म 'सेतुबंधन' दादा साहेब फाल्के की आखिरी मूक फिल्म थी. उन्होंने 1937 में फिल्म 'गंगावतरण' से कमबैक की कोशिश की लेकिन ये फिल्म नहीं चली. ये उनकी आखिरी बोलने वाली (सवाक) फिल्म थी. इन फिल्मों की विदेशों में भी काफी तारीफ हुई. 16 फरवरी 1944 को नासिक में उनकी मृत्यु हो गई.
दादा साहेब फाल्के पुरस्कार
दादा साहेब फाल्के के नाम पर सिनेमा में अतुलनीय योगदान के लिए भारत सरकार की ओर से अवॉर्ड दिया जाता है. इस अवॉर्ड की शुरूआत दादा साहेब फाल्के के जन्म शताब्दी वर्ष 1969 से हुआ. 'लाइफ टाईम अचीवमेंट अवार्ड' के रूप में दिया जाने वाला ये 'दादा साहेब फाल्के पुरस्कार' भारतीय फिल्म इंडस्ट्री का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार है. 1969 में ये पहला पुरस्कार अभिनेत्री देविका रानी को दिया गया था.
इसके बाद 1971 में दादा साहेब फाल्के के नाम पर पोस्टेज स्टैंप जारी किया गया.